प्रस्तुत है विकुर्वाण आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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अनुभूति की बात है कि इस रहस्यात्मक संसार में हम कुछ क्षण के लिये भी यदि आत्मस्थ हो जायें तो इसी मन बुद्धि चित्त अहंकार वाले प्राणवान शरीर में पूरा संसार दिखाई पड़ सकता है किसी को संपूर्ण संसार सीताराममय किसी को कृष्णमय किसी को ज्ञानमय किसी को भक्तिमय दिखाई देता है लक्षण भक्त तुलसीदास की सारी भक्ति प्रभु राम में समर्पित है क्योंकि बहुत छोटी आयु से ही उन्होंने राम की चर्चा सुनी है बारे तेँ ललात बिललात द्वार द्वार दीन, जानत हौं चारि फल चारि ही चनक को॥ तुलसी सो साहिब समर्थ को सुसेवक है, सुनत सिहात सोच बिधि हू गलक को।
नाम, राम! रावरो सयानो किधौं बाबरो, जो करत गिरी तेँ गरु तृन तेँ तनक को॥
कवितावली के द्वारा संकेत करते हुए आचार्य जी ने तुलसी का अत्यधिक कष्टमय बचपन रेखांकित किया भीख मांगना मजबूरी है और उस पर अपमान भी मिलता है लेकिन आत्म जाग्रत हो तो मानअपमान की अनुभूति तो होती है राम के प्रति भक्ति है संसार के प्रति अपमान है शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं
वेदान्तवेद्यं विभुम्। रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्॥ (१)
भावार्थ:- शान्त, शाश्वत , अप्रमेय, निष्पाप, मोक्ष व शान्ति प्रदान करने वाले, ब्रह्मा , शंकर एवं शेषनाग से निरंतर सेवित, वेदों द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया के कारण मनुष्य के रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की मूर्ति , रघुकुल में श्रेष्ठ और राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश की मैं वंदना करता हूँ l सुन्दर कांड यह अद्भुत छंद है आचार्य जी ने निर्भरा भक्ति की व्याख्या की इस भक्ति में बुद्धि का नहीं भाव का स्थान है भक्तों और उनके भगवान रूपी गुरुओं के अनेक उदाहरण हैं नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च वानखिलान्तरात्मा। भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥ भावार्थ:- हे रघुनाथजी!
आप सभी के दिल में आत्मा रूप में स्थित हैं, फिर भी मैं सच कहता हूँ कि मेरे दिल में अन्य कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुल श्रेष्ठ! आप मुझे केवल आप पर ही जो आश्रित हो ऐसी भक्ति प्रदान करिये व मेरे मन को काम आदि दोषों से मुक्त करिये l इसी तरह विवेकानन्द की राष्ट्रभक्ति भी अद्भुत है हम सेवा कर रहे हैं तो जो कुछ मिल जाये वही ठीक है पहले शिक्षकों को भी उनके शिष्य जो कुछ दे देते थे वही उनका शुल्क होता था वकीलों के चोंगों में इसी तरह मुवक्किल शुल्क डालते थे लेकिन इस समय हमारी कमजोरी के कारण शिक्षा की दुर्गति हो गई आज पुनः आचार्य जी ने अध्ययन स्वाध्याय ध्यान चिन्तन मनन निदिध्यासन पर जोर दिया |