प्रस्तुत है हयङ्कष आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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यह सदाचार वेला हमें उत्साह से भरने के लिये होती है और हमें इस काबिल बनाती है कि हम अपनी समस्यायें स्वयं हल कर सकें मनुष्य परमात्मा की अपरा प्रकृति का अंशमात्र है कुछ में पराज्ञान की बहुत अधिक ललक रहती है आचार्य जी उन्हीं में से एक हैं और इन सदाचार वेलाओं में हम इसे आसानी से बिना संदेह किये देख सकते हैं सांसारिक प्राप्तियों के लिये हम सभी छोटे स्तर से लेकर बृहद् भावनाओं तक कल्पनाओं में बहते रहते हैं दिन पर दिन इसी में बीत जाते हैं कि प्रायः हम छोटी छोटी उपलब्धियों में ही संतोष प्राप्त कर लेते हैं शरीर, परिवार, समाज, देश आदि के संकट निपटाकर मन बुद्धि के माध्यम से सूक्ष्म से महान् तक हमारा जीवन चलता रहता है |
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।। गीता
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - इन आठ प्रकार में मेरी प्रकृति है।।
प्राणिक ऊर्जा के अंगों मन बुद्धि अहंकार आदि के रहने के कारण हम मनुष्य बनते हैं अन्यथा पशु आदि प्राण का स्वभाव ही गति है जो चैतन्ययुक्त है वही प्राणी है वृक्ष भी प्राणी है चिन्तन की शक्ति पराज्ञान की ओर ले जाती है कि हम कौन हैं कहां से आये हैं गीता में तो बहुत विस्तार है आचार्य जी ने यह भी बताया कि पराप्रकृति में कौन प्रवेश कर सकते हैं संसार का स्वरूप यही है कि इसमें बहुत से प्रपंच हैं और संसार का स्वभाव है जिज्ञासा कि मैं कौन हूं संसार का मूल भाव यही है संसारीजन संसार में रहते रहते ऐसे जिज्ञासु हो जाते हैं कि जहां रहते हैं उसी को जानने की चेष्टा करते रहते हैं बचपन के खिलौनों के बाद घर परिवार विवाह आदि खिलौनों से जब मन ऊब जाता है वैराग्य वहीं से प्रारंभ हो जाता है वैराग्य भी अपार निधि है किसी चीज की अपेक्षा करने पर यदि उसकी पूर्ति न हो तो उसकी उपेक्षा करिये |