उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥
(कठोपनिषद् 1/3/14) (उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य, वरान्, निबोधत, क्षुरस्य, धारा, निशिता,दुरत्यया,दुर्गम्,पथः, तत्, कवयः,
वदन्ति उठो, जागो, पाओ,बड़ों से, बोध, उस्तरे की, धार,तेज,पार करना, चलने में कठिन, रास्ता, वह, ऋषिगण, बोलते
हैं ) उठो, जागो,बड़ों से बोध प्राप्त करो ऋषिगण ऐसा बोलते हैं कि वह रास्ता उस्तरे की तेज धार पर चलकर उसे पार करने के समान कठिन है प्रस्तुत है भूरिदक्षिण आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण ttps://sadachar.yugbharti.in/, https://youtu.be/YzZRHAHbK1w , https://t.me/prav353
हमारा नित्य विकास होता है यात्रा सतत् होती रहती है लेकिन उसका हमें अनुभव नहीं होता है लेकिन बाह्य विक्षेप (जैसे पैदल चलना, वायु मार्ग से चलना आदि )हमें आवश्यकता से अधिक चञ्चल कर देता है कुछ लोग सतत् यात्रा में रहते हैं बहुत अधिक किसी को रहना है तो वह कहीं तीन रात्रि रह सकता है यह मनुष्य को क्रियाशील बनाने का हमारे यहां प्रावधान है जो भारतवर्ष को अपना मानते हैं जिनकी इस धरती के प्रति इस संस्कृति के प्रति आस्था है जो इस भाव में डूबने का अभ्यास कर लेते हैं ऐसे लोग जीवन के प्रत्येक क्रम और व्यवस्था को जिज्ञासा और आदर के भाव के साथ देखते हैं
ज्ञानं परम गुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्। सरहस्यं तदगं च गृहाण गदितं मया।।
आत्मा परमात्मा अत्यन्त रहस्यमय हैं लेकिन हम सदाचारी लोग बाह्य जीवन में और परेशानी में इसका निष्कर्ष निकालते हैं रामकथा एक उदाहरण है जब लग रहा था कि हिन्दुत्व की सनातनता डूब जायेगी हमारी कथा भी इसी तरह प्रारम्भ होती है सब नष्ट हो रहा है नाव में एक पुरुष बैठा है प्रलयकालीन वर्षा हो रही है फिर वह बचता है सृष्टि का विकास होता है ये आशा देने वाला साहित्य है इसके महत्त्व को समझते हुए प्रतिदिन इसका अध्ययन करने का मन बनायें अभ्यास करें विश्वास करें कि हम परमात्मा के अंश हैं तो इस तरह के चिन्तन से बहुत सारी सांसारिक समस्याओं का हम हल भी पा लेते हैं औरों का सहारा भी बनते हैं |
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
सदाचार संप्रेषण का आशय यही है कि हमारे तन और मन की थकान मन की निराशा बुद्धि का भ्रम आदि शमित हों और
प्रातःकाल इस शरीर रूपी हवनकुंड में यज्ञ की आहुतियां डालते रहें संसार में रहते हुए मार्गान्तरित न हों इसके लिए भी इस तरह की सदाचारवेला की आवश्यकता है राम और सीता का भाव भी हमारे अन्दर प्रविष्ट रहे भारत के भविष्य को संभालने के लिये और विश्व के कल्याण के लिये हमें उद्यत होना होगा उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥
(कठोपनिषद् 1/3/14) (स्वामी विवेकानन्द जन्म 12 जनवरी 1863 )