प्रस्तुत है प्रवेक आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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हमने अपना उद्देश्य बनाया कि भारत मां के चरणों में सारी बुद्धि क्षमता योग्यता शक्ति समर्पित करेंगे और इस उद्देश्य के लिये शिक्षा स्वास्थ्य स्वावलम्बन और सुरक्षा को आधार बनाया संस्कार के केन्द्र के रूप में विद्यालय को विकसित करना, संस्कार देकर बालकों को आगे बढ़ाना आदि इस तरह के विचार विद्यालय प्रारम्भ करते समय आचार्य जी आदि के मन में आये और फिर इन पर कार्य प्रारम्भ हो गये आचार्य जी ने इन विचारों के विस्तार के लिये करे गये प्रयोगों का उल्लेख किया इन प्रयोगों के प्रति अनेक लोगों को उत्साह रहता था अनेक को मजबूरी किसी की मजबूरी किसी का उत्साह, जीवन का यह क्रम सर्वत्र व्याप्त है प्रायः लोग एक दूसरे को उपदेश देते रहते हैं (देशना का अर्थ है शिक्षा और इसमें उप उपसर्ग लग गया ) ट्रेन में हुए उपदेश से संबन्धित एक रोचक प्रसंग आचार्य जी ने बताया जब बीड़ी पीने वाले आदमी ने अपना तर्क दिया व्यामोहग्रस्त अर्जुन का आत्मबोध भगवान् कृष्ण ने जाग्रत किया अठारह अध्यायों में भगवान् ने समझाया एक स्थान पर है |
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।
बिना फल की इच्छा , अपने आप जो कुछ मिल जाय, उसमें संतुष्टि रहे और जो ईर्ष्या से रहित, द्वन्द्वों से अतीत व सिद्धि और असिद्धि में सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4.23।।
जिसकी आसक्ति मिट गयी है, जो मुक्त हो गया है, जिसकी बुद्धि स्वरूप के ज्ञान में स्थित है, ऐसे मात्र यज्ञ के लिये कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं। स्वतः होने वाला लाभ अत्यधिक विस्तार ले लेता है तो हम कर्म का आनन्द लेने लगते हैं रैदास को सर्वत्र ईश्वर दिखाई देते थे और वो पूज्य बन गये उपदेश जब अनुदेश बन जाये यानि दूसरे को सिखाने की जगह अपने को सीखने की आदत बन जाये तो यह बहुत अच्छी बात है | कामना में लिप्त रहना और उससे मुक्त हो जाना संसार में रहस्यात्मक है परमात्माश्रित भाव संसार में रहते हुए सदा बना रहे यह आसान नहीं है लेकिन प्रातःकाल हम कुछ समय इसके लिये अवश्य निकालें |