प्रस्तुत है उद्यतायुध आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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श्रोता और वक्ता दोनों यदि अपने विकारी शरीर को भुलाकर अविकारी चिन्तन वाले भाव में डूब जायें तो श्रोता और वक्ता का सदाचार संपर्क अत्यन्त प्रभावकारी हो जाता है यदि शरीर का ध्यान रखते हैं तो मन शरीर की तरफ भागता है देहाभास की विस्मृति करके ही मन को आत्मस्थ कर सकते हैं मैं कौन हूं मेरा स्वरूप क्या है मेरा स्वभाव क्या है ध्यान योग में मन की साधना बताई गई है |
भगवान् शङ्कराचार्य के भाव को हम यदि संस्पर्श कर पायें तो लब्ध्वा कथश्चिन्नरजन्म...(विवेक चूडामणि से )
आदि का संकेत करते हुए आचार्य जी ने स्वार्थ का अर्थ बताया सैकड़ों ब्रह्मवर्ष बीत जाने पर भी मुक्ति नहीं हो सकती युगभारती की प्रार्थना लेते हुए आचार्य जी ने सूक्ष्म सेवा का अर्थ बताया गीता से
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।
को उद्धृत करते हुए आपने बताया कि हम ही अपने मित्र हैं हम ही अपने शत्रु हैं भैया शैलेन्द्र दीक्षित कोरोना के कारण निराश न हों हम सब लोग उनके साथ हैं आचार्य जी ने TELEPATHY का महत्त्व बताया फ़ादर कामिल बुर्के, बरान्निकोह, भगिनी निवेदिता, मिरा अल्फासा को समझ में आ गया कि भारत ही उनकी भाव -भूमि है यद्यपि उनकी संख्या कम है क्योंकि उनको परिवेश ऐसा नहीं मिला हम लोग तो सौभाग्यशाली हैं हमारा प्राकृतिक परिवेश अत्यधिक तत्त्वमय भावमय शक्तिमय भक्तिमय विश्वासमय है हमें स्वयं यह देखना होगा कि स्वर्ण कहां है यद्यपि बहुत सारे रेत में यह होगा कम संसार को संसार की दृष्टि से देखें लेकिन अपने को अपनी दृष्टि से देखें साकेत में मैथिली शरण गुप्त ने लिखा है कि मैं इस धरती को ही स्वर्ग बनाने आया हूं इसमें कोई शक नहीं कि यह सदाचार वेला हमें लाभ पहुंचा रही है उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य न प्राप्त हो जाए स्वामी विवेकानंद |