प्रस्तुत है वृत्तिस्थ आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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परमात्मा की कृपा है कि सामान्य जीवन निर्वाह की सुविधाओं में बिना डूबे हुए हम लोग सदाचार के प्रति आग्रही रहते हैं हमारे वास्तविक इतिहास को विकृत करके नई पीढ़ी को जो आवेशित किया गया है उसमें दुर्जनों को सफलता भी मिली है हमारा खानपान, विचार व्यवहार, तौर तरीके, सामाजिक विधि व्यवस्था आदि में मूल रूप विलुप्त होता गया और उस पर मुलम्मा चढ़ता गया | इसके बाद भी कभी कभी आत्मबोध के लिये हम आग्रही हो जाते हैं यह परमात्मा की कृपा है निर्लिप्त होने का भाव परम आनन्द देता है आचार्य जी का प्रयास रहता है कि हमारा यह भाव और अधिक बढ़े हमारा सम्मान, प्रतिष्ठा,यश,गौरव, विचार, सिद्धान्त अवश्य ही अनुकरणीय होंगे यदि हम सदाचार के साथ जीवन का संपर्क स्थापित रखते हैं जन -जन को कल्याण मार्ग पर अग्रसर करने हेतु प्रतिबद्ध गीता प्रेस ने भीष्म पर्व और उद्योग पर्व एक पुस्तक में छापा है भीष्म पर्व के अन्तर्गत भूमि पर्व के ग्यारहवें और बारहवें अध्याय में इस भूमि के द्वीपों समुद्रों का वर्णन है पाठ्यक्रम निर्माण करने वालों की अज्ञानता की चर्चा करते हुए आचार्य जी ने कहा कि ज्ञान अनन्त है जो अनन्त ज्ञानी हैं वो अक्रिय हैं और एकान्त की तलाश करते हैं और इसी अक्रियता के चलते सामान्य जनों का बहुत नुकसान होता है वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः ( यजुर्वेद के नौवें अध्याय की 23वीं कंडिका से ) आदि सूत्र हमें समाज सेवा के लिये प्रेरित करते हैं परिवार और विद्यालय से मिले संस्कारों के कारण हमारी जिज्ञासा राष्ट्रोन्मुखी हुई है | आसपास रुदन क्रन्दन अत्याचार अन्याय हो तो हम आनन्द में रह नहीं सकते तो पहले हम चाहेंगे परिवेश शान्त हो परस्थ होकर क्या क्या कर सकते हैं इसका आत्मस्थ होकर चिन्तन करें | सदाचार का मूल आशय यही है कि हम विकृति की ओर न जायें सात्विक खानपान की ओर ध्यान दें सात्विकता जितनी जाग्रतहोगी पराक्रम भी उतना ही उद्भूत होगा सात्विकता से पौरुष पराक्रम समाप्त नहीं हो |