त्तासुर दैत्य के आतंक का सामना करने हेतु देशहित में दधीचि ऋषि द्वारा दान की गई हड्डियों से तीन धनुष गाण्डीव पिनाक सारङ्ग बने प्रस्तुत है स्यन्दनारोह आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण
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यह संसार संयोग -वियोग, रुचि -अरुचि, राग- विराग, सुख -दुःख आदि विपरीत भावों का एक सामञ्जस्य है उसी से उद्भूत विचारों का संघर्ष है और उसी का सहारा पाकर क्रियाओं का एक रणक्षेत्र बना हुआ है हम लोग कभी प्रसन्न कभी उदास कभी चिन्तित आदि भावों के साथ चलते रहते हैं सारा संसार क्रिया व्यापार का एक स्वरूप है और यह क्रिया व्यापार अध्यात्म की दृष्टि से परमात्मा की लीला है भारतवर्ष का अध्यात्म घर घर में रचा बसा है बाह्य रूप से घण्टी बजाना ही पूजा नहीं है वहां कुछ देर भाव भी लगना चाहिए हम लोग देखते हैं कि जब हमारा मन पूजा में रमता है तो मूर्ति में भाव बदलते दिखते हैं अपने भाव उसमें प्रविष्ट हुए दिखते हैं यह भावमय जगत् मनुष्य जीवन का एक ओर तो वरदान है दूसरी ओर समस्याओं का उद्वेलन भी है सामान्य भक्तों के लिए मूर्तियां दिखाई जाती हैं उनमें प्राण प्रतिष्ठा होती है फिर भक्त उसमें रमते हैं जब मूर्ति के रूप का भाव वास्तव में हमारे भीतर प्रवेश कर जाता है और हम अध्यात्म में मस्त रहने लगते हैं तो यह परावस्था कहलाती है लेकिन परावस्था के लिए व्याकुल न हों अपितु समर्पित हों यही अध्यात्म जब भावों में सक्रिय होकर कर्तव्योन्मुख हो जाता है तो गीता -ज्ञान खुल जाता है द्वैत से अद्वैत तक की यात्रा अपने भारतवर्ष के ऋषियों की उपलब्धि है उन्होंने हमें यह सौंप दिया है हमें अपने को सौभाग्यशाली समझना चाहिए मानस और गीता में रमने का प्रयास करें धनुष भंग के प्रसंग को आचार्य जी ने बहुत भावमय होकर बताया सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥ चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥ अन्त में आचार्य जी ने कहा संयम की जहां आवश्यकता है वहां संयम जहां संघर्ष वहां संघर्ष के लिए उत्साह इस तरह दिशा दृष्टि को हम लोग सुव्यवस्थित करें इसके अतिरिक्त आज हमारी पूजा है आज इनकी झाड़ू है ये प्रसंग कहां आये आदि जानने के लिए सुनें |