प्रस्तुत है शुचिव्रत आचार्य श्री ओम शंकर जी का सदाचार संप्रेषण बहुत दिनों से सदाचार संप्रेषण का क्रम इस कारण चल रहा है ताकि हम इस मानव चैतन्य जाग्रत शरीर से आनन्दमय कार्य और व्यवहार का प्रसार कर सकें |वाणी में व्यवहार करते समय यदि शब्द अनुभूतियुक्त है तो शब्द में बहुत गहराई है शब्द को ब्रह्म कहा गया है आचार्य जी ने कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय की दूसरी वल्ली के 20 वें मन्त्र अणोरणीयान्महतो महीया-
नात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् । तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ॥ २०॥
की व्याख्या की नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
की भी व्याख्या की आचार्य जी ने कहा आत्मस्थता की अनुभूति के लिए एकान्त का सेवन करना सीखें आनन्द एक अवर्णनीय अवस्था है| मनुष्य महान् है वो क्या नहीं कर सकता आचार्य जी ने यह कविता भी सुनाई _
''मनुज की जिंदगी क्या एक पूरे जगत जैसी है, कभी जंजाल में उलझी कभी वह भगत जैसी है ,
कि, अद्भुत पिंड की रचना सकल ब्रह्मांड की जैसी, कभी वह प्रगत जैसी, तो कभी जड़ जगत जैसी है।।
ओ. शं.12-7-21