मित्रयु आचार्य श्री ओम शंकर जी द्वारा प्रोक्त परमात्मा की योजना अप्रतिम,अवर्णनीय और अनुभवातीत है l परमात्माश्रित विचार शक्तिसंपन्न होता है और कार्यरूप में उसकी परिणिति प्रभावकारी होती है आचार्य जी ने प्रश्नोपनिषद् के अन्तिम भाग में प्रवेश कराया थ हैनं सुकेशा भारद्वाजः पप्रच्छ - - - भगवन् हिरण्यनाभः कौसल्यो राजपुत्रो मामुपेत्यैतं प्रश्नमपृच्छत
- - षोडशकलं भारद्वाज पुरुषं वेत्थ। तमहं कुमारम्ब्रुवं नाहमिमं वेद यध्यहमिममवेदिषं कथं ते नावक्ष्यमिति। समूलो वा एष परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति। तस्मान्नार्हम्यनृतं वक्तुम्। स तूष्णीं रथमारुह्य प्रवव्राज। तं त्वा पृच्छामि क्वासौ पुरुष इति ॥
भारद्वाज सुकेशा ने ऋषि पिप्पलाद से कहा ,'हे भगवन्, कोशल का राजकुमार हिरण्यनाभ मेरे पास आया और उसने मुझसे पूछा-'हे भारद्वाज, क्या आप 'पुरुष' एवं 'उसकी' षोडश कलाओं के विषय में जानते हैं? और मैनें उसे उत्तर दिया-'मैं' नहीं जानता, यदि मै उसे जानता होता तो निश्चित रूप से बताता, किन्तु मैं तुमसे असत्य नहीं बोल सकता जो असत्य बोलता है वह समूल नष्ट हो जाता है और 'वह' चुपचाप रथ पर चढ़कर मेरे पास से चला गया। मैं आपसे 'उसके' विषय में पूछ रहा हूँ, कौन है यह 'पुरुष'?''...
उत्तर : तस्मै सः ह उवाच सौम्य सः पुरुषः इह अन्तःशरीरे वर्त्तते यस्मिन् एताः षोडशकलाः प्रभवन्ति ॥
ऋषि पिप्पलाद ने उत्तर दिया, वत्स! यहीं प्रत्येक प्राणी के अन्दर वह 'पुरुष' है और इसी कारण 'उसके' अन्दर ही षोडश कलाओं का जन्म होता है। आचार्य जी ने निम्नांकित श्लोकों की व्याख्या की स ईक्षांचक्रे। कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो
भविष्यामि कस्मिन् वा प्रतिष्ठिते प्रतिष्टस्यामीति l स प्राणमसृजत। प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं नोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्मलोका लोकेषु च नाम च ॥ आज युग भारती का वार्षिक अधिवेशन है आचार्य जी
ने कहा इस सम्मेलन के माध्यम से हम लोग शक्तिसम्पन्न होकर समाज- हित में, राष्ट्र -हित में रत हो जाएं इसके अतिरिक्त हिरण्यगर्भ के बारे में आचार्य जी से विद्यालय में किसने प्रश्न किया था? जानने के लिए सुनें |