भाव यदि शक्तिसंपन्न होता है तो विचारों में ऊष्मा होती है l हमारा हिन्दू जीवन दर्शन अत्यन्त दिव्य है l
आज आचार्य जी ने श्रीमद्भगवद्गीता में 17 वें अध्याय के निम्नलिखित श्लोकों की व्याख्या की
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै: । अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्विकं परिचक्षते ।।17।।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्। क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।17.18।।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मानस का एक प्रसंग बताया सैनिक भाव श्रीराम के जीवन से सीखें l शरीर साधन है तो अच्छा है और यदि समस्या बन जाता है तो हम शिथिल हो जाते हैं ससार का आकर्षण ही कुछ ऐसा है कि हम भी
इससे अछूते नहीं रहे हैं और हमारे विचारों में अंधेरा प्रवेश कर गया है l यदि हम आत्मस्थ हों तो प्रातःकाल का यह स्वर्णिमकाल जो हमें आनन्दानुभूति देता है व्यर्थ नहीं जाएगा l इन्हीं भावों के साथ ज्ञान -पट खोलने के लिए उत्सुक द्वार्ग श्रोताओं के सम्मुख प्रस्तुत है |