प्रस्तुत है इराश्रेष्ठ आचार्य श्री ओम शंकर जी द्वारा शंसित का अध्यात्मापगाप्लावित औपनिषदिक ज्ञान से संश्लिष्ट संशुद्धाभिधान अध्यात्म जगत् में प्रवेश करने का हमारा उद्देश्य है कि संसार में रहते हुए हमारा मानस जाग्रत रहे हमारी बुद्धि संयत और विवेक से प्रभावित रहे और हम मनुष्य बनकर संसार में रहें l मनुष्यत्व कर्म और भक्ति का सामंजस्य है, भक्ति अर्थात् विश्वास कठोपनिषद् प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली के क्रमशः 24 वें और 25 वें मन्त्र
ना विरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः। मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥
की आचार्य जी ने व्याख्या की l संसार के सहयोगी भाव के कारण PARALYMPICS GAMES जैसे आयोजन होते हैं l आचार्य जी ने एक कविता सुनाई (09:56) असंयम ही समस्या का जगत् में मूल होता है.... आपाधापी जीवन की गम्भीर
समस्या है l उपासना का अर्थ है समर्पित भाव से ईश्वर के पास में बैठना l प्रसंग : जब आचार्य जी संभवतः 10 वीं कक्षा में
अध्ययनरत थे उस समय का एक प्रसंग सुनाया |