अनूचान आचार्य श्री ओम शंकर जी ने को सदाचार संप्रेषण में प्रश्नोपनिषद् और गीता के 11 वें अध्याय का संस्पर्श किया है| प्रश्नोपनिषद् में आध्यात्मिक नियमावली है परिणाम की चिन्ता न करते हुए परिणामकारक कार्य करना अद्भुत रहस्यात्मक जीवन है| स यथेमा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिद्येते तासां नामरूपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते । एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिद्येते चासां नामरूपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते स
एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकः ॥ ५ ॥ प्रश्नोपनिषद् ''अतः जिस प्रकार बहती नदियाँ समुद्र की ओर अग्रसर होती हैं, किन्तु वहां पहुँचकर उसी में विलीन हो जाती हैं और उनके नाम रूप समाप्त हो जाते हैं और सब कुछ केवल समुद्र ही कहलाता है, इसी प्रकार इस द्रष्टारूप 'चैतन्य' की षोडश कलाएँ 'पुरुष' की ओर अग्रसर होती हैं और जब वे उस 'पुरुष' को प्राप्त कर लेती हैं तो 'उसी' में विलीन हो जाती हैं तथा उनके अपने नाम-रूप समाप्त हो जाते हैं और इस समस्त को एकमात्र 'पुरुष' कहा जाता है; 'वह' कला रहित एवं अमृत-रूप हो जाता है। जिसके बारे में यह श्लोक है।
अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्ठिताः । तं वेद्यं पुरुषं वेद यथ मा वो मृत्युः परिव्यथा इति ॥ ६ ॥
इसके बाद आचार्य जी गीता के उस भाग में, जहां द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह के कारण मोहग्रस्त हुए अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण अपना विराट् रूप दिखा रहे हैं, चले गए दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.25।।
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथाऽसौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः।।11.26।।
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।।11.27।।
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखाः द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।11.28।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने जब वे BA में अध्ययनरत थे तो उस समय उनके शिक्षक रहे श्री माता प्रसाद जी से
संबन्धित एक प्रसंग बताया|