पुण्यश्लोक आचार्यपुंगव श्री ओम शंकर जी के लटभ वाचस्पत्य द्वारा पुनरपि चिकीर्षु गोष्ठि को अध्यात्माब्धि में प्रवेश करा रहे हैं|
स्थान :उन्नाव
आचार्य जी ने ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ गीता 15/1 और इसी से मिलता जुलता ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः । तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते । तस्मिँल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदुनात्येति कश्चन । एतद्वै तत् ॥ कठोपनिषद् 2/3/1 और भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।
गीता 7/4 की व्याख्या की सूक्ष्म से स्थूल की ओर जाना अवतरण है| स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना उद्धरण है | इसी तरह का बहुत सारा रहस्यात्मक जीवन विज्ञान है | आचार्य जी जो हमें दिशा दृष्टि देते हैं उसका उद्देश्य है कि हम आत्मस्थ हों जाग्रत हों विवेकी हों संसार और असंसार में व्यवहार करने की पात्रता लाने के लिए समय पर ठीक प्रकार का व्यवहार कर सकें| हम यदि सेवा, साधना, संयम के अभ्यस्त हो जाते हैं तो दुनिया को बताने की आवश्यकता नहीं |
परामर्श :प्रश्नोत्तर हों तो इन संप्रेषणों का अधिक लाभ होगा |