*कोई भी मनुष्य किस बात को,*
*किस प्रकार से सोचता समझता है...!*
*ये उसकी मानसिकता तय करती है..!!*
*कोई दूसरों की थाली में से छीनकर*
*खाने में अपनी शान समझता है...!*
*तो कोई अपनी थाली में से भी*
*दूसरों को खिलाकर संतुष्ट होता है...!!*
*सारा का सारा खेल संस्कारों,*
*समझ और मानसिकता का ही है...!*
*लेकिन एक बात तय है कि छीनकर*
*खाने वालों के कभी पेट नहीं भरते...!*
*और जो बाँटकर खाने वाले होते हैं,*
*वो कभी भी भूखे नहीं रहते हैं...!!*