देव भूमि कहा जाने वाला उत्तराखण्ड जहां अपने तीर्थ स्थलों के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध है वहीं यहां की संस्कृति में जितनी विविधता दिखाई देती है शायद ही कहीं और दिखाई देती है| उत्तराखण्ड को देश में सबसे ज्यादा लोक पर्वो वाला राज्य भी कहा जाता है और इन्हीं में से एक है हरेला पर्व |
उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुयें होती हैं- शीत, ग्रीष्म, और वर्षा।
यह त्यौहार हिन्दी सौर पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं|
खास बात है कि कोई भी त्योहार साल में जहां एक बार आता है वहीं हरेला के साथ ऐसा नहीं है | देवभूमि से जुड़े लोगों के यहां ये पर्व चैत्र , श्रावण और आषाढ़ के शुरू होने पर यानी वर्ष में तीन बार मनाया जाता है|
इनमें सबसे अधिक महत्व श्रावण के पहले दिन पड़ने वाले हरेले पर्व का होता है क्योंकि ये सावन की हरियाली से सराबोर होता है और चारो और हरियाली ही हरियाली होती है |
यह त्यौहार हिन्दी सौर पंचांग की तिथियों के अनुसार मनाये जाते हैं, शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है तो आश्विन मास की दशमी को हरेला मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है इसलिए चैत्र मास की नवमी को हरेला मनाया जाता है। इसी प्रकार से वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है इसलिये एक गते श्रावण को हरेला मनाया जाता है। इस बार हरेला का पर्व 16-21 जुलाई तक मनाया जायेगा |
उत्तराखंड में मनाए जाने वाले लोक-त्यौहारों में एक प्रमुख त्यौहार है हरेला। हर साल यह लोकपर्व ‘कर्क संक्रांति’ को मनाया जाता है। अंग्रेजी केलिन्डर के अनुसार यह त्यौहार हर साल सोलह जुलाई को होता है। लेकिन कभी-कभी इसमें एक दिन का अंतर हो जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार जब सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश करता है, तो उसे कर्क संक्रांति कहते हैं। तिथि-क्षय या तिथि वृद्धि के कारण ही यह पर्व एक दिन आगे-पीछे हो जाता है। हरेला के पर्व से नई ऋतु के शुरु होने की सूचना प्राप्त होती है | ऐसा माना जाता है की उत्तराखंड में किसी भी ऋतु की सूचना को सुगम बनाने और कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण ऋतुओं का स्वागत करने की परम्परा बनी होगी।
उत्तराखण्ड में देवाधिदेव महादेव शिव की विशेष कृपा भी है और इस क्षेत्र में ससुराल (हरिद्वार तथा हिमालय) और वास होने के कारण यहां के लोगों में उनके प्रति विशेष श्रद्धा होती है। इसलिये श्रावण मास के हरेले पर्व का इतना महत्व इस क्षेत्र में होता है। श्रावण मास के हरेले के दिन शिव-परिवार की मूर्तियो की स्थापना भी की जाती हैं|
हरेला शब्द हरियाली से सम्बंधित है पहले में उत्तराखंड का मुख्य कार्य कृषि होने के कारण इस पर्व का महत्व यहां के लोगो के लिए विशेष रहा है। हरेले के पर्व से नौ दिन पहले घर के भीतर स्थित मन्दिर में या गांव के मन्दिर के भीतर सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, मक्का, गहत ,सरसों, उड़द और भट्ट) को रिंगाल की टोकरी में बोया जाता है। इसके लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है पहले रिंगाल की टोकरी में एक परत मिट्टी की डाली जाती है फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। उसके बाद फिर से मिट्टी डाली जाती है फिर से बीज डाले जाते हैं और यह प्रक्रिया 5 से 6 बार करी जाती है। इसे सूर्य की सीधी धूप में नहीं रखा जाता है और प्रतिदिन सुबह पानी डाला जाता है। 9 वें दिन इनकी पाती (एक स्थानीय वृक्ष) की टहनी से गुड़ाई की की जाती है और दसवें यानि कि हरेले के दिन इसे काटा जाता है। काटने के बाद घर के स्वामी द्वारा इसे तिलक-चन्दन-अक्षत से अभिमंत्रित (“रोग,शोक निवारणार्थ, प्राण रक्षक वनस्पते,इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते” मन्त्र द्वारा) किया जाता है जिसे हरेला पतीसना कहा जाता है। उसके बाद इसे भगवान को अर्पित किया जाता है और उसके बाद घर की बुजुर्ग महिला सभी सदस्यों को हरेला लगाती हैं। लगाने की भी एक विशेष प्रक्रिया होती है जैसे हरेला सबसे पहले पैरो, फिर घुटने, फिर कन्धे और आखिरी में सिर पर रखा जाता है और आशीर्वाद के रूप में यह पंक्तियां कहीं जाती हैं।
जी रये,जागि रयेधरती जस आगव,आकाश जस चाकव है जये सूर्ज जस तराण,स्यावे जसि बुद्धि होदूब जस फलिये,सिल पिसि भात खाये,जांठि टेकि झाड़ जाये |
इन पंक्तियों का अर्थ है -हरियाला तुझे मिले,जीते रहो,जागरूक रहो,पृथ्वी के समान धैर्यवान,आकाश के समान प्रशस्त (उदार) बनो,सूर्य के समान त्राण,सियार के समान बुद्धि हो, दूर्वा के तृणों के समान पनपो, इतने दीर्घायु हो कि (दंतहीन) तुम्हें भात भी पीस कर खाना पड़े और शौच जाने के लिए भी लाठी का उपयोग करना पड़े।
इस पूजन के बाद परिवार के सभी लोग साथ में बैठकर खाना खाते हैं| इस दिन विशेष रुप से उड़द दाल के बड़े, पुये और खीर आदि बनाये जाने की परम्परा है।
नये जीवन और विकास से जुड़ा है यह त्यौहार |
सभी सातों प्रकार के बीजों से अंकुरित हरे-पीले रंग के तिनकों को देवी - देवताओ को अर्पित करने के बाद घर के सभी लोगों के सर पर या कान के ऊपर रखा जाता है। घर के दरवाजों के दोनों ओर या ऊपर भी गोबर से इन तिनकों को सजाया जाता है। इस लोक-त्यौहार और परम्परा का संबंध उर्वरता, खुशहाली, नव-जीवन और विकास से जुड़ा है। कुछ लोग मानते हैं कि सात तरह के बीज सात जन्मों के प्रतीक के रूप में उपयोग किये जाते हैं।
चैत्र मास के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है। श्रावण मास लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ मास में बोया जाता है और 10 दिन बाद काटा जाता है और आश्विन मास में नवरात्र में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे के दिन काटा जाता है। हरेला घर मे सुख, समृद्धि एवं शान्ति के लिए बोया और काटा जाता है। हरेला अच्छी कृषि की सूचना भी देता है, हरेला इस मनोकामना के साथ बोया जाता है कि इस साल फसलो को नुकसान ना हो। हरेले के साथ जुड़ी ऐसी मान्यता भी है कि जिसका हरेला जितना बडा होगा उसको कृषि मे उतना ही फायदा होगा।
वैसे तो लोग अपने घर में हरेला को बोते है लेकिन किसी-किसी जगह गांव में हरेला पर्व को सामूहिक रुप से में भी मनाये जाने की परम्परा है इसका मतलब है की अपने स्थानीय ग्राम देवता को साथ में पूजते है| मन्दिर में हरेला बोया जाता है और पुजारी द्वारा सभी को आशीर्वाद के रूप में हरेले के तिनके दिए जाते हैं।
यदि हम गहराई से देखें तो हरेला पर्व सीधे तौर पर लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है। हरेला बोने और नौ-दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है। इससे यह पता लग जाता है की अगली फसल कैसी होगी।
एकजुट रहने का संदेश देता है हरेला:
परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाया जाने वाला यह लोक पर्व एकता का भी प्रतीक है क्योंकि संयुक्त परिवार चाहे कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह और तो और कहीं-कहीं पूरे गाँव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गाँव के मन्दिर में भी बोया जाता है। पहले हरेले पर कई स्थानों पर मेले भी लगते थे परन्तु आज वर्तमान में छखाता पट्टी के भीमताल व काली कुमाऊँ के बालेश्वर व सुई-बिसुंग में ही मेले आयोजित होते हैं।