अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार
Indirect description a figure of speech
अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार :-
जहाँ अप्रस्तुत के वर्णन में प्रस्तुत की प्रतीति हो, वहाँ 'अप्रस्तुतप्रशंसा' अलंकार होता है ।
अप्रस्तुतात् प्रस्तुत-प्रतीति: अप्रस्तुतप्रशंसो।
अप्रस्तुत प्रशंसा का अर्थ है- अप्रस्तुत कथन।
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत, सरल हो।
यहाँ अपस्तुत सर्प के विशेष वर्णन से सामान्य अर्थ की प्रतीति होती है कि शक्तिशाली पुरुष को ही क्षमादान शोभता है। यहाँ ' अप्रस्तुतप्रशंसा' है।
यह अप्रस्तुत प्रशंसा 5 प्रकार से होती है--
1.कारण निबन्धना
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा।
सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं।
तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥
2.कार्य निबंधना
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।
3.विशेष निबन्धना
बार बार अस कहइ कृपाला।
नहिं गजारि जसु बधें सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे।
सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥
4.सामान्य निबन्धना
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी।
बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ।
कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।
5.सारूप्य निबन्धना(अन्योक्ति)
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली।
जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥
नव रसाल बन बिहरनसीला।
सोह कि कोकिल बिपिन करीला ॥
मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है।नवीन आम के वन में विहार करने वाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पाती है।
यहाँ सारूप्य निबन्धना के माध्यम से सीता का चित्रण किया गया है।
।। धन्यवाद ।।