वक्रोक्ति अलंकार
वक्रोक्ति शब्द वक्र+उक्ति के योग से बना है, जिसका अर्थ है टेढ़ा कथन अर्थात् जब वक्ता के कथन का श्रोता अन्य अर्थ ग्रहण कर,ग्रहण किये गये अर्थ के अनुसार व्यहार या कथन करे तब वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति के एक अर्थ में कहे गये शब्द या वाक्य का दूसरा व्यक्ति जानबूझकर दूसरा अर्थ कल्पित करे तब वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।इस अलंकार का प्रयोग विशेषकर हास परिहास और व्यंग्यात्मक वार्तालाप में होता है ।
आचार्य भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों में ‘वक्रोक्ति होने के कारण ‘श्लेष’ की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में माना जाय या अर्थालंकार में।
आचार्य जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है।
इस अलंकार में श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना होती है। ‘काकु’ और ‘श्लेष’ शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को आचार्य मम्मट सहित अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही स्थान दिया है।
वक्रोक्ति में चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।
उदाहरण :-
एक कह्यौ ‘वर देत भव, भाव चाहिए चित्त’।
सुनि कह कोउ ‘भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त’ ।
किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव अर्थात शंकरजी को रिझाने के लिए ‘भाव चाहिये’ ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए ‘भाव’ की भी आवश्यकता नहीं है वे तो बिना भाव के ही प्रसन्न हो जाते हैं और वरदान दे देते हैं।
आचार्य रुद्रट ने इसके दो भेद किये है-
(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
(2) काकु वक्रोक्ति अलंकार
(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार(चिपका अर्थ)
श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
(ii) अभंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण –
अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?
निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?
यहाँ नायिका को नायक ने ‘गौरवशालिनी’ कहकर मनाना चाहा है।नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस ‘गौरवशालिनी’ सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का ‘गौरव’ देने के बजाय ‘गौ’ (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो तब पुचकारकर मतलब गाँठ लो), ‘अवशा’ (लाचार), ‘अलिनी’ (यों ही मँडरानेवाली मधुपी अर्थात भ्रमरी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ”हाँ, तुम मुझे ‘गौः+अवशा+अलिनी समझते हो।
इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद ‘गौरवशालिनी’ में दो अर्थ (एक ‘हे गौरवशालिनी’ और दूसरा ‘गौः, अवशा, अलिनी’) श्लिष्ट होने के कारण यहाँ श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस ‘गौरवशालिनी’ पद को ‘गौः+अवशा+अलिनी’ में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, ‘अपर’ कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।
यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर अर्थात दूसरा कहाँ है ? इस बात पर नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा:- अपर अर्थात बिना पंख का कैसा?वह तो इसी कबूतर की तरह सपर अर्थात पंख सहित था, सो वह उड़ गया।यहाँ ‘अपर’ शब्द को बिना तोड़े ही ‘दूसरा’ और ‘बेपरवाला’ दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष वक्रोक्ति अलंकार है।
1-राधा-कृष्ण का कुछ हास-परिहास देखते हैं-
कौन द्वार पर, राधे मैं हरि।
क्या कहा यहाँ ? जाओ वन में।
कौन तुम ? मैं घनश्याम।
तो बरसो कित जाय।।
2-माँ लक्ष्मी-पार्वती का विनोद तो देखें ही-
'भिक्षुक गो कितको गिरिजे ? '
' सो तो मांगन को बलि द्वार गयो री|'
यहाँ लक्ष्मीजी विनोद में पार्वतीजी से पूछती है कि हे गिरिजा तुम्हारा भिक्षुक अर्थात शिव कहाँ गए हैं ।पार्वतीजी भी परिहास में उत्तर देती हैं कि है लक्ष्मीजी भिक्षुक अर्थात विष्णु तो बलि के द्वार मांगने गये है |
(2) काकु वक्रोक्ति अलंकार (ध्वनि-विकार/आवाज में परिवर्तन)
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
अर्थात जहाँ पर उच्चारण के कारण श्रोता वक्ता की बात का दूसरा अर्थ अपने हिसाब निकाल लेता है, वहाँ काकु वक्रोक्ति अलंकार होता है।काकु वक्रोक्ति में कंठ ध्वनि अर्थात् बोलने वाले के लहजे में भेद होने के कारण दूसरा अर्थ कल्पित किया जाता है।
उदाहरण-
1-कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।।
2-जब रावण ने अंगद से अपनी भुजाओं की शक्ति की डिंग मारी तब अंगदजी कहते हैं-
सो भुज बल राख्यो उर घाली। जीतेउ सहसबाहु बलि बाली।
3-माता सीता यह कथन भी काकु वक्रोक्ति का शानदार उदाहराण है-
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू।
तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू।।
4-यह दोहा काकु वक्रोक्ति का अप्रतीम उदाहरण है-
काह न पावक जारि सक, का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल, केहि जग कालु न खाइ॥
5-आइए अब दैनिक जीवन के अपने बात-चीत में हास-परिहास करते हुवे इस अलंकार का प्रयोग हम कैसे करते हैं इन उदाहरणों में देखें-
अ-’’उसने कहा जाओ मत, बैठो यहाँ।
मैंने सुना जाओ, मत बैठो यहाँ।’’
आ-आप जाइए तो। -(आप जाइए)
आप जाइए तो?-(आप नहीं जाइए)
इसी तरह,
इ-जाओ मत, बैठो।
जाओ, मत बैठो ।
ई-घोड़ा पकड़ो,मत जाने दो।
घोड़ा पकड़ो मत,जाने दो।
इस प्रकार यह अलंकार बहुत ही उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है।
।।धन्यवाद।।