"अलंकार"अलंकरोति इति अलंकारः अर्थात् जो विभूषित करता हो वह अलंकार है।
अलं क्रियते अनेन इति अलंकारः अर्थात् जिसके द्वारा किसी की शोभा होती है वह अलंकार है।
आचार्य जयदेव ने ‘‘चन्द्रालोक’’ में अलंकार को काव्य का नित्यधर्म माना है।
"अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती।।"अर्थात् जो व्यक्ति काव्य को अलंकार से रहित स्वीकार करता है, वह अग्नि को उष्णता रहित क्यों नहीं कहता। तात्पर्य यह कि अलंकार काव्य का आधारभूत गुण है।
आचार्य दंडी ने ‘‘काव्यादर्श’’ में अलंकार को काव्यकी शोभा को बढ़ाने वाला धर्म माना है।"काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।"
अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं।
आचार्य भामह के अनुसार -“न कान्तम् अपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्”। अर्थात् आभूषणों के बिना जिस प्रकार नारी की शोभा नहीं होती उसी प्रकार बिना अलंकार के काव्य सुशोभित नहीं होता।
इन्हीं बातों को आचार्य केशव ने भी इस प्रकार कहाहै:
'जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरल सुवृत्त।
भूषण बिनु न विराजई, कविता वनिता मित्त ।'
अर्थात् श्रेष्ठ गुणी होने पर भी कविता और बनिता(स्त्री) आभूषणों(अलंकारों) के बिना शोभा नहीं देते हैं।
आचार्य चिन्तामणि के अनुसार:
"सगुण अलंकार न सहित, दोष-रहित जो होई।
शब्द अर्थ बारौ कवित, बिवुध कहत सब कोई॥"
प्रसिद्ध समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है-
“भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप-गुण क्रिया का अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कराने में सहायक उक्ति को अलंकार कहते हैं।"
इस प्रकार हम पाते हैं कि अलंकार काव्य की शोभा में चार चाँद लगाने वाले कारक होते हैं। इसके
मुख्यत: तीन भेद माने जाते हैं--
शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार।
1. शब्दालंकार-
शब्द के दो रूप होते हैं- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टि होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मक्ता होती है अर्थ का चमत्कार नहीं। इसीलिए जब शब्दालंकार में किसी शब्द को हटाकर उसके स्थान पर उसका समानार्थी अथवा पर्यायवाची शब्द रख दिया जाय तो अर्थ में अन्तर न होने पर भी उसका आलंकारिक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है।शब्दालंकार कुछ वर्णगत होते हैं कुछ शब्दगत और कुछ वाक्यगत होते हैं।अर्थात्
"जहाँ शब्द के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ शब्दालंकार होता है ।"शब्दालंकार के निम्न भेद माने गए हैं:-
अनुप्रास अलंकार, यमक अलंकार, पुनरुक्तिअलंकार, वक्रोक्ति अलंकार, श्लेष अलंकार, विप्सा अलंकारआदि।
2. अर्थालंकार-
अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करने वाले अलंकार अर्थालंकार कहलाते हैं। यहाँ जिस शब्द से जो अलंकार सिद्ध होता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्यायवाची शब्द रख देने पर भी वही अलंकार सिद्ध होताा है क्योंकि अर्थालंकारों का संबंध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। अर्थात्
"जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार होता हो वहाँ अर्थालंकार होता है ।"
अर्थालंकार पाँच प्रकार के होते हैं –
- सादृश्यमूलक अर्थालंकार
- विरोधमूलक अर्थालंकार
- शृंखलामूलक अर्थालंकार
- न्यायमूलक अर्थालंकार
- गूढार्थमूलक अर्थालंकार
इन पांचों के आधार अर्थालंकार के निम्नभेद हैं:-
उपमा अलंकार, रूपक अलंकार ,उत्प्रेक्षा अलंकार ,दृष्टांत अलंकार, संदेह अलंकार ,अतिश्योक्ति अलंकार, उपमेयोपमा अलंकार, प्रतीप अलंकार, अनन्वय अलंकार, भ्रांतिमान अलंकार, दीपक अलंकार ,अपह्नुति अलंकार ,व्यतिरेक अलंकार, विभावना अलंकार ,विशेषोक्ति अलंकार ,अर्थान्तरन्यास अलंकार ,उल्लेख अलंकार ,विरोधाभास अलंकार, असंगति अलंकार ,मानवीकरण अलंकार, अन्योक्ति अलंकार ,काव्यलिंग अलंकार, स्वभावोक्ति अलंकार आदि।
3.उभयालंकर:-
जहाँ चमत्कार शब्द तथा अर्थ दोनों में स्थित रहता है वहाँ उभयालंकार माना जाता है।
उभयालंकार के निम्न भेद माने गए हैं:-
संकर अलंकार और संसृष्टि अलंकार।
तीनों अलंकारों के विभिन्न भेदों को हम आगे विस्तार से पढ़ेंगे।
।। इति ।।