आँखे वे देखी हैं जब से,
और नहीं देखा कुछ तब से ।
देखे हैं कितने तारादल
सलिल-पलक के चञ्चल-चञ्चल,
निविड़ निशा में वन-कुन्तल-तल
फूलों की गन्ध से बसे ।
उषाकाल सागर के कूल से
उगता रवि देखा है भूल से;
संध्या को गिरि के पदमूल से
देखा भी क्या दबके-दबके !
सभाएँ सहस्रों अब तक की;
वैसी आँखें न कहीं देखीं;
उपमाओं की उपमाएँ दीं,
एक सही न हो सकी सबसे !