स्वर के सुमेरु हे झरझरकर
आये हैं शब्दों के शीकर ।
कर फैलाए थी डाल-डाल
मञ्जरित्त हो गयी लता-माल,
वन-जीवन में फैला सुकाल,
बढ़ता जाता है तरु-मर्मर ।
कानो में बतलाई चम्पा,
कमलों से खिली हुई पम्पा,
तट पर कामिनी कनक-कम्पा
भरती है रंगी हुई गागर ।
कलरव के गीत सरल शतशत
बहते हैं जिस नद में अविरत,
नाद की उसी वीणा से हत
होकर झंकृत हो जीवन-वर ।