रूप की धारा के उस पार
कभी धंसने भी दोगे मुझे ?
विश्व की शयामल स्नेहसंवार
हंसी हंसने भी दोगे मुझे ?
निखिल के कान बसे जो गान
टूटते हैं जिस ध्वनि से ध्यान,
देह की वीणा का वह मान
कभी कसने भी दोगे मुझे ?
शत्रुता से विश्वव है उदास;
करों के दल की छांह, सुवास
कली का मधु जैसा निस्त्रास
कभी फंसने भी दोगे मुझे ?
वैर यह ! बाधाओं से अंध !
प्रगति में दुर्गती का प्रतिबंध !
मधुर, उर से उर, जैसे गंध
कभी बसने भी दोगे मुझे ?