जब सुबह का धुंधला प्रकाश आसपास के ऊंचे मकानों को पार करके अहाते में से होता हुआ उसकी अंधेरी कोठरी तक पहुंचा, तो बूढ़े खिलौने वाले ने आंखें खोली ।
प्रभात के भिनसारे में उसके इर्द-गिर्द बिखरे हुए खिलौनों के ढेर, समुद्रतल से धीरे-धीरे उठती हुई चट्टानों की भांति दीख रहे थे । अपने डोलते से हाथ धरती पर टिकाकर वह उठ बैठा । वहीं बैठे-बैठे दुर्बलता के कारण हिलते डोलते उसने अपनी कमर के मैले-कुचैले अंगोछे को ठीक किया, जिसमें कई पैबन्द लगे हुए थे और जिसका रंग मैल के कारण उसके शरीर तथा उस कोठरी की कालिमा ही का अंग बन गया था । फिर अपनी प्रायः ज्योतिहीन आंखों से टटोलकर उसने पास पड़ी लठिया उठाई और उसके सहारे उठ खड़ा हुआ ।
कोठरी की चौखट में क्षण-भर को रुककर उसने अपनी मटमैली, प्रायः धूमिल आंखों से अहाते का निरीक्षण किया—यहां कोठरी से भी अधिक वीरानी छाई हुई थी । पर कोने में भट्टी खड़ी थी – बेरौनक और उदास -- सन्तान के बाहुल्य से रुग्ण, पीतवर्ण मां की भांति ! इस एक महीने के अन्दर न जाने उसने किते झोल उतारे थे ? पास ही पके लाल, किन्तु टूटे-फूटे खिलौनों का ढेर लगा था । बाईं ओर चिकनी मिट्टी का तगार था जिसका तल सूखकर चटक गया था। शेष अहाते में वे सब खिलौने अस्त-व्यस्त बिखरे पड़े थे, जिन्हें उसका बेटा रूप और उसकी बहू कमला दिन-रात के कठोर परिश्रम पर भी तैयार न कर पाये थे। कर भी कैसे पाते ? रूप तो मेले से कई दिन पहले दुकानों की नीलामी पर भाइयों से लड़-लड़ाकर, हाथ-पैर तुड़वाकर घर आ बैठा था । कितना समझाया था उसने कि बेटा छोटा है, तुझे छोटा बनकर रहना चाहिए। वे बुरे सही पर तू क्यों बुरा बनता है ? किन्तु उसकी कौन सुनता था ? उसे तो सब मूर्ख, नाकारा और अपाहित समझते थे I
वहीं चौखट पर खड़े-खड़े उसने देखा — सैनिकों की एक लम्बी-पंक्ति रंगी हुई खड़ी है, किन्तु इन पर रोगन नहीं हो सका। एक ओर घोंसले बने रखे हैं, चिड़ियों का भी ढेर लगा है, किन्तु उन्हें घोंसलों में बैठाया नहीं जा सका । बन्दर और वे तने जिनपर उन्हें कलाबाज़ी लगानी थी, दोनों अव्यवस्थित पड़े हैं। फिर आमों, संतरों, नाशपातियों लोकाटों, सेबों, अंगूरों, मक्की के भुट्टों और बाजरे के सिट्टों के ढेर पड़े हैं— उसके अन्तर की गहराई से एक दीर्घ निश्वास निकल गया । और फिर लठिया के सहारे वह कांपता- डोलता बाहर की ओर चल पड़ा।
किवाड़ के साथ नुमाइशी खिलौने थे। रूप इनमें से कुछेक ही समाप्त करके साथ ले जा पाया था । शेष सब अपूर्ण पड़े थे । वृक्ष के तने का एक भाग था, जिसकी खोह के मुंह पर एक तोता बैठा था और दूसरा प्रवेश कर रहा था । हिरणों की एक सुन्दर जोड़ी थी—कान उठाए, गर्दन न्योहड़ाये, चौकन्नी और चुस्त ! एक परी थी— पंख पसारे अनजाने आकाशों में उड़ जाने को प्रस्तुत ! — अपनी धुंधली पथराई - सी आंखों से बूढ़े ने उन सब खिलौनों को देखा । यद्यपि ये खिलौने उसीके बनाए हुए सांचों पर उतारे गए थे, किन्तु वह हस्तलाघव और रंग तथा रोगन की वह सुदक्षता कहा ! इनमें से हरएक वह दस-दस बीस-बीस रुपये को बेचा आया करता था, किन्तु अब ये कौड़ियों के मोल बिकते थे। उसके ये बेटे उन्हें भी वह अपने खिलौने ही समझा करता था, पर अब तो उन सबने उसे खिलौना समझ रखा था - निष्प्राण और निर्जीव-सा खिलौना ! माथे को ठीक कर उसने किवाड़ बन्द किए और ताला लगा दिया ।
पड़ोसी बनिए की हवेली के सामने बाजा बज रहा था, शायद बनिया अपने पहलीठी के बच्चे को लेकर बाबा सोडल की मन्नत पूरी करने जा रहा था। सोडल बाबा हैं जो दूध-पूत के दाता ! जब उसके घर कोई सन्तान न हुई थी तो उसने भी सोडल बाबा की मन्नत मानी थी कि जब उसके घर बच्चा होगा तो वह उसे लेकर बाजे-गाजे के साथ सोडल बाबा की सेवा में उपस्थित होगा। और जब उसके घर जग्गू हुआ तो मेले के ग्यारह दिन पहले उसने स्वयं चार प्यालों में गेहूं बोये थे, प्रति-दिन सुबह-शाम उन्हें शुद्ध पवित्र जल से सींचा था और यह देखकर उल्लास उसके अंगों में समान पाता था कि पड़ोसियों के प्यालों के पीले-ज़र्द अंकुरों की अपेक्षा उसके प्यालों के पौधे गहरे हरे रंग के हैं और दो-दो बालिश्त ऊंचे हैं। इन सबका अर्थ यह था कि सोडल बाबा उसपर खूब प्रसन्न हैं।
बाबा की पूजा क निमित्त मठरियां बनाने के लिए वह अत्युत्तम गेहूं लाया था, मोटे-मोटे शर्बती रंग के, सूप में फटककर और पानी में भिगोकर उसने उन्हें बिलकुल साफ़ किया था। फिर ग्यारह दिन उन्हें धूप में सुखाया था । इस बीच में वह स्वयं उनकी रखवाली करता रहा था, ताकि देवता के चरणों में चढ़ने से पहले कोई चिड़िया उन्हें झूठा न कर जाय । मेले की पहली रात को उसने स्वयं अपनी पत्नी के साथ बैठकर मठरियां, शकरपारे और पापड़ियां बनाई थी और जब मेले के दिन प्रातः दोनों हाथों में पूजा की थाली और गेहूं के प्याले थामे बाजे के पीछे-पीछे अपनी पत्नी और बच्चे के साथ वह सोडल की पूजा के हेतु चला था तो दूध और पूत देनेवाले सोडल के प्रति उसका मन श्रद्धा-भक्ति से ओत-प्रोत हो उठा था ।
उस दिन की याद आते ही एक काले -कलूटे रोगी से युवक का चित्र उसकी आंखों के सामने घूम गया, पतले-पतले हाथ-पांवों और तिली के कारण बढ़ा हुआ पेट । यह जग्गू था, उसका पहलौठी का लड़का, जिसके जन्म पर बाजे-गाजे के साथ वह सोडल के मेले पर गया था, जिसके जन्म के साथ ही उसके मन में सुन्दर सपनों ने जन्म लिया था । किन्तु समय के साथ उसके सपने भी जग्गू ही की भांति पीले, बीमार और बेढंगे हो गए थे ।
उसने बाबा सोडल की सब मन्नतें मानी थीं और प्रति वर्ष बड़ी श्रद्धा से उनकी पूजा करता रहा था, और सोडल बाबा ने भी दूध और पूत से खूब ही उसकी गोद भरी थी । जग्गू के बाद उसके तीन लड़के हुए थे — सुन्दरी, हरी और रूप । बाबा सोडल हैं भी तो दूध पूत के दाता — किन्तु उनका काम दूध-पूत देना भर है, शेष जीवन से उन्हें कोई सरोकार नहीं, बाद को दूध चाहे फट जाय और पूत चाहे कपूत हो जाय ।
दूध फट गया था और पूत कपूत हो गये थे । और वह अपने भाग्य को कोसता, भय और चिन्ता से चूर, भीड़ से बचता - बचाता, दुर्बलता के कारण कांपता- हांफता लठिया के सहारे चला जा रहा था। उसके सामने एक तूफान उठ रहा था और उसे अनुभव होता था जैसे यह तूफान उसके नीड़ के अन्तिम तृण तक बिखेर कर रख देगा, और वह चाहता था कि उड़कर वहां पहुंच जाय और पंख फैलाकर सीना ताने तूफान के सामने खड़ा हो जाय । अपने घोंसलों को बचा ले, अपने बच्चों को बचा ले, किन्तु उसकी दशा उस पक्षी की-सी थी जिसके पंखों में इतनी भी शक्ति न रही हो कि वे पूरी तरह फैल सकें ।
चारों भाइयों की दुकानें ज़मीन के एक ही टुकड़े पर साथ-साथ लगी हुई थीं । पहले इस टुकड़े पर केवल एक दुकान लगती थी, फिर दो लगने लगीं, फिर तीन हो गईं और अब थीं चार ! प्रकट वहां अब भी एक ही दुकान लगी प्रतीत होती थी, किन्तु वास्तव में रूप और उसके भाइयों की दुकानों में एक अदृश्य दीवार आ खड़ी हुई थी ।
प्रातः इधर श्रद्धालु नगर निवासी बाबा सोडल के दर्शनार्थ आने लगे । उधर चारों भाइयों में होड़ लग गई। सोडल के भक्त बड़े दरवाजे से आते, तालाब के पास बैठे हुए पुजारी के सामने पूजा के निमित्त लाई हुई मठरियां ढेरी करके, प्यालों को तालाब की सीढ़ियों पर फेंक, स्नान करते; फिर अपने पूर्वजों को पानी चढ़ाते और एक-एक पुरखे का नाम लेकर ग्यारह - ग्यारह बार तालाब की मिट्टी निकालते; तत्पश्चात् सपरिवार सोडल बाबा के मन्दिर की परिक्रमा करते और फिर खौंचेवालों की असंख्य दुकानों से खाते और बच्चों को खिलाते हुए खिलौनों की इन चारों दुकानों के सामने से गुज़रते, क्योंकि लौटने का दरवाज़ा इन दुकानों के पार्श्व ही में था ।
रूप की दुकान सबसे आगे थी, उसके बाद हरि की, फिर सुन्दरी की और आखिर में 'जग्गू की । रूप की चोटें अभी तक ठीक न हुईं थीं। वह दुर्बल भी था, इसलिए चुपचाप गद्दी पर बैठा था । उसके मुहल्ले के दो एक लड़के ( मात्र विनोद के लिए) और कुच्छेक युवक (महज आंख सेंकने के हेतु) उसके काम में हाथ बंटा रहे थे । महीनों घर की कारा में बंधी तरुणियां अवसर पाकर मेले में स्वच्छन्द मृगियों की भांति विचर रही थीं । और इस उन्मुक्त सौन्दर्य का दर्शन करने के लिए खिलौनों की इन दुकानों से अच्छा कोई स्थान न था । मेले से लौटते हुए लोग इन्हीं दुकानों के आगे से होकर गुज़रते । उनमें से अधिकांश खिलौने भी खरीदते । तब खिलौने देते समय किसी युवती की आंखों में आंखें डाल देना अथवा रजत हाथों या मृदुल अंगुलियों के स्पर्श का आनन्द ले लेना कोई कठिन बात न थी । और वे सब युवक बड़े उत्साह से खिलौने बेच रहे थे
ज्यों-ज्यों रूप के खिलौने अधिक बिकते, हरि और सुन्दरी के मन में धुआं उठता ईर्ष्या-द्वेष का धुआं ! रहा जग्गू, तो वह ईर्ष्या और द्वेष से परे था । अपने फूले हुए पेट, कंकाल मात्र शरीर, लकड़ियों से सूखे हाथ-पांव लिए वह भीगी मिट्टी की तरह पड़ा था । सहसा हरि एक स्टूल पर खड़ा हो गया और आवाज़ें देकर खिलौने बेचने लगा । उसकी देखा-देखी सुन्दरी भी उठा, किन्तु रूप की दुकान पर एक के बदले दो लड़के खड़े हो गए ।
रूप के ओठों पर विजय की एक हल्की मुस्कान फैल गई । उसके तप्त हृदय को निमिष भर के लिए सान्त्वना मिली। इस दुकान के लिए उसने भाइयों से छः रुपए अधिक दिए थे; हाथ-पांव तुड़वाये थे; सात दिन तक निर्जीव-सा पड़ा रहा था। अपनी इस सफलता को देख कर उसको जैसे अपने समस्त कष्टों का फल मिल गया । काश, वह सारे खिलौने समाप्त कर पाता ।
वास्तव में जग्गू और सुन्दरी की अपेक्षा उसे हरि पर क्रोध था । यद्यपि जग्गू सबसे पहले अलग हुआ था, किन्तु उसकी पृथकता से भाइयों में किसी प्रकार की होड़ का सूत्र- पात न हुआ था और जब एक दिन सुन्दरी भी अपनी पत्नी को लेकर पृथक् हो गया, तो भी परिवार परस्पर मिलते-जुलते थे और दुकानें एक ही टुकड़े पर लगती थीं । किन्तु हरि ने अलग होकर उनके मध्य एक अगम्य खाड़ी बना दी थी । वह इतना चतुर और स्वार्थी था कि रूप उससे तंग आ गया था। दोनों बड़े भाइयों के अलग हो जाने के बाद रूप और हरि मिलकर काम करते थे। दोनों ने अपने विवाह पर कुछ ऋण ले रखा था। हरि ने रूप से कहा था कि हम दोनों मिलकर यह ऋण चुका देंगे। पहले तुम मेरा ऋण चुकाने में मुझे सहायता दो, फिर मैं तुम्हारे साथ मिलकर तुम्हारा ऋण चुका दूंगा । और जब दिन-रात के परिश्रम से, दूसरे भाइयों की अपेक्षा दुगने-तिगुने खिलौने बनाकर, रूप और कमला ने हरि का ऋण चुका दिया था और जब रूप का ऋण चुकाने की बारी आई थी, तो वह अलग हो गया था । इतना ही नहीं, उसने रूप के विरुद्ध दूसरे भाइयों को भड़काया भी था और फिर तीनों ने मिलकर उसके विरुद्ध एक मोर्चा लगा लिया था ।
रूप के मन में बगूला-सा उठा और उसने क्रोध भरी दृष्टि से हरि की ओर देखा — उसने खिलौनों का मोल घटा दिया था। कड़ककर रूप ने अपनी आदमियों से कहा - "इकनी वाली चीज़ के दो-दो पैसे कर दो !" और लड़कों ने बड़े ज़ोर से आवाज़ लगाई "इकन्नी वाले खिलौने दो-दो पैसे में”, “इकन्नी वाले खिलौने दो - दो पैसे में !"
काश वह सारे के सारे खिलौने समाप्त कर पाता ! दीवाली, दशहरा, ठंडड़ी, बाजड़े आदि सब मेलों में उसके भाइयों ने उसके मुकाविले में दुकान लगाई थी, किन्तु कुछ अपने परिश्रम और कुछ पड़ोसियों की सहानुभूति तथा सहायता के कारण वह अपने भाइयों से बाजी ले गया था। एक मेले के समाप्त होते ही वह और कमला दूसरे की तैयारी आरम्भ कर देते । वसन्त पंचमी के मेले में उसके भाइयों ने खिलौनों का मोल कम कर दिया था । इसलिए वह सोडल के लिए इतने खिलौने बना लेना चाहता था कि इकन्नी वाले खिलौने पैसे पैसे को भी बेंचने पड़े तो वह उन सबसे बाजी ले जाय ।
और दिन-रात के परिश्रम तथा उद्योग से उन्होंने अगणित खिलौने तैयार भी कर लिए थे । वसन्त पंचमी के बाद ही वह और कमला एक प्रबल, अंधे हठ के अधीन सोडल के मेले की तैयारी करने लगे थे। रात के पिछले पहर उठकर, लैम्प के धीमे प्रकाश में, वे मिट्टी और सांचे ले बैठते और सुध-बुध खोकर सारा - सारा दिन खिलौने बनाने में निमग्न रहते । जब भूख लगती तो कुछ रूखी-सूखी खाकर फिर काम में जुट जाते । वैठे-बैठे थक जाते, तो रूप उठकर नये खिलौनों के लिए मिट्टी का तगार बनाने लगता और कमला धूप में सूखे हुए खिलौनों को भट्टी के पास ला रखती । वह मिट्टी बना लेता तो वह कमाने लगती । इस प्रकार थके हुए अंग कुछ खुल जाते तो फिर दोनों सांचे ले बैठते, शाम का भोजन भुने हुए चनों से हो जाता । साथ-साथ काम होता, साथ-साथ पेट को ईंधन दिया जाता । दिन चढ़ता, ढलता, और अस्त हो जाता; किन्तु उनके उत्साह में कमी न आती । उसी निष्ठा से वे काम में लगे रहते । रात का एक-एक बज जाता, किन्तु उनकी स्फूर्ति थकने का नाम न लेती । उनके हाथ उसी वेग से चलते । खिलौनों से फालतू मिट्टी उसी गति से उतारी जाती । सूखे हुए खिलौनों पर सफाई के लिए पानी का हाथ उसी तेज़ी से फेरा जाता और इन्होंने इतने खिलौने बना लिए थे कि यदि वे सब पूरे हो जाते, उनपर रंग-रोगन हो जाता, तो रूप अपने भाइयों को ऐसा पदाता ऐसा पदाता .....चाहे फिर वे इकन्नी का खिलौना अधेले - अधेले में ही बेचते, किन्तु उसके ये क्रूर भाई -- टुकड़ों की नीलामी पर उन्होंने उसे बुरी तरह पीटा था और वे सब खिलौने अधूरे ही पड़े रह गए थे ।
उसने एक दीर्घ निःश्वास लिया । वह इतना रास्ता, जो कमी वह खिलौनों का वहीं अब उसी एक टुकड़े को चार भागों में विभक्त किया गया था। रूप के भाई चाहते थे कि अन्तिम टुकड़ा रूप को दिया जाय क्योंकि वह सबसे छोटा है, किन्तु सबसे अन्त में स्थान पाने का अर्थ यह था कि उसका एक खिलौना भी न बिके । उसके ये 'दयावान भाई कब किसी ग्राहक को उस तक पहुंचने देते । इसलिए वह अड़ गया था कि लेगा तो पहला टुकड़ा ही लेगा। इसपर उन चारों टुकड़ों में से पहला नीलाम हुआ था और पहले जहां सारे का सारा टुकड़ा आठ रुपये को बिकता था, वहां उसका चौथा भाग आठ को बिका। रूप ने उसे ले लिया । यद्यपि शेष टुकड़ों की बोली न हुईं थी और उसके भाइयों को तीनों टुकड़े छः रुपये में मिल गये थे, किन्तु पहले टुकड़े के चले जाने का दुःख उनके मन में बना रहा। रास्ते में उन्होंने रूप को गालियां दीं और जब उसके मुंह से भी कुछ ऐसे-वैसे शब्द निकल गए तो पूजा करके सबसे बड़ा टोकरा सिर पर उठाए एक डेढ़ घण्टे में तय कर लेता था, अब बड़ी कठिनाई से तीन चार घण्टे में पार कर पाया था। सहस्त्रों लोग सोडल की अपने कामों पर जाने लगे थे। वह शायद लौट जाता, शायद थककर रास्ते में बैठ जाता किन्तु एक अज्ञात प्रेरणा उसे बरबस आगे धकेल रही थी। उसकी आखों के सामने तूफान प्रतिक्षण अग्ररूप धारण कर रहा था । उसे लोगों की भीड़, खोंचेवाले, सबीलें, दुकानें, कुछ भी दिखाई न दे रहा था और यह अनुभव कर रहा था जैसे यह तूफान उसके नीड़ के तिनके - तिनके बखेर देगा । वह इस तूफान के सामने छाती फुलाकर डट जाना चाहता था ।
बड़ी कठिनाई से स्वयं सेवकों की मित्रत करके वह दुकानों के पीछे से दाखिल हुआ । किन्तु जब वह दुकानों के पास पहुंचा तूफान उसके घोंसले को अपनी लपेट में ले चुका था । लाठियों के प्रहारों से खिलौनों की दुकानें बिखर चुकी थीं और भाई-भाई एक दूसरे पर टूट चुके थे। बूढ़े का कम्पन सहसा बन्द हो गया । उसकी कमर न जाने कैसे सीधी हो गई ? उसकी थकान न जाने कहां उड़ गई ? क्षण-भर के लिए उसने अनुभव किया जैसे वह वही खिलौनेवाला है और वे उसके बनाए हुए खिलौने हैं, जो आपस में गड्मड् हो रहे हैं और उसे उनको फिर यथास्थान रख देना है । वह लठिया उठाए हुए उस तूफ़ान में घुस पड़ा ।
मेला समाप्त हो गया – रूप, हरि और सुन्दरी मेले के अस्पताल में पट्टियां बांधे पड़े थे । चारपाइयां, लकड़ी के तख्ते और टीन के खाली कनस्तर, जिनसे वे दुकानें खड़ी की गईं थीं और वे खिलौने, जो उन दुकानों में सजाये गए थे बिखरे पड़े थे । उन सब के मध्य एक औंधी चारपाई के नीचे बूढ़ा खिलौनेवाला मरा पड़ा था- संसार के उस आदि कलाकाल की भांति बेबस, जिसने खिलौने बनाकर उनपर अपना अधिकार खो दिया है, और स्वयं एक खिलौना बन गया है— निस्पन्द और निष्प्राण ! लाठियां अब भी उसके हाथ में उठी हुईं थी मानो वह अब भी उस तूफान का सामना करना चाहता था । किन्तु वह अज्ञात प्रेरणा कदाचित यहां आकर खत्म हो गयी थी और उसके मुंह पर मक्खियां भिनभिना रही थीं ।उन्होंने उसे खूब पीटा । जब वह घर आया तो बेतरह लोहु-लुहान था ।
रूप के दिल का बगूला आंधी बन चला। उस समय उसकी दुकान के लड़के आवाज़ लगा रहे थे, “इकन्नी का खिलौना दो पैसे में" ! "इकन्नी का खिलौना दो पैसे में !" तब हरि चिल्लया, "इकन्नी का खिलौना डेढ़ पैसे में !" रूप उठकर चीखा, "इकन्नी का खिलौना एक पैसे में !"
"तुम्हें अपने बाप की सौगन्ध तुम बैठे रहो !” कमला ने विनीत स्वर में कहा और हाथ खींचकर उसे बैठा दिया । रूप की दृष्टि कमला की ओर गई—ज्यों ही एक खिलौना बिक जाता, विद्युत् गति से वह दूसरा उन्हें देती । यदि कमला न होती तो वह कभी भी मेले में आने की सामर्थ्य न पाता - रात-रात भर वह उसे गर्म ईंट का सेंक देती रही थी। उसकी देखभाल करने के साथ-साथ न केवल वह उसके लिए औषधि आदि लाती और खाना पकाती, बल्कि वह खिलौने बनाती, पकाती और रंगती रहती थी । उसमें कुछ ऐसा गुण था कि मुहल्ले भर के छोटे-छोटे बच्चे उनके आंगन में इकट्ठे हो जाते और हंसी-खुशी उनका हाथ वंटाते । कोई बने हुए खिलौनों को उठा उठा कर धूप में रखता ; कोई सूखे हुए खिलौनों को पकाने के लिए इकट्ठा करता; कोई पके हुए खिलौनों को खड़िया मिट्टी में रंगता और बीसियों छोटे-छोटे काम पलक झपकते हो जाते। बीमारी के उन छः सात दिनों में रूप को अपना कष्ट तनिक भी महसूस न हुआ था । इस समय, जब दूसरे भाइयों की पत्नियां रंग-बिरंगी धोतियां पहने, मिस्सी से ओठ रंगे, सिर में सरसों का तेल, आंखों में काजल और माथे पर बिन्दी लगाए मेला देख रही थीं, कमला वहीं मटमैली धोती पहने उसका हाथ बंटा रही थी — और उसके मैके में किसीने कभी मिट्टी को हाथ तक न लगाया था ।
तभी रूप ने देखा कि हरि उसके दुकान के सामने खड़े ग्राहकों को आवाज़ें दे रहा है । क्रोध से वह उठा-उसके दिल की आंधी तूफान बन चली। उस समय हरि ने उसके एक ग्राहक को कन्धे से खींचा। रूप ने ललकार दी। हरि ने उत्तर में गाली । रूप का क्रोध उसकी आंखों में लाली बन गया। उसने लाठी उठा ली और फलांग कर दुकान के नीचे आ गया ।
बूढ़ा खिलौनेवाला भीड़ से बचता - बचाता, कांपता - डोलता चला जा रहा था—ये इतने असंख्य लोग——ये सब खिलौने ही तो हैं; किन्तु ये सब अपने बनाने वाले को भूले हुए हैं — ठीक उसी प्रकार, जैसे उसके खिलौने उसे भूल गए थे, किन्तु शायद वह महान् निर्माता भी उसकी भांति बुड्ढा हो चला है उसने एक दीर्घ निःश्वास लिया । वह इतना रास्ता, जो कमी वह खिलौनों का सबसे बड़ा टोकरा सिर पर उठाए एक डेढ़ घण्टे में तय कर लेता था, अब बड़ी कठिनाई से तीन चार घण्टे में पार कर पाया था। सहस्त्रों लोग सोडल की अपने कामों पर जाने लगे थे। वह शायद लौट जाता, शायद थककर रास्ते में बैठ जाता किन्तु एक अज्ञात प्रेरणा उसे बरबस आगे धकेल रही थी। उसकी आखों के सामने तूफान प्रतिक्षण अग्ररूप धारण कर रहा था । उसे लोगों की भीड़, खोंचेवाले, सबीलें, दुकानें, कुछ भी दिखाई न दे रहा था और यह अनुभव कर रहा था जैसे यह तूफान उसके नीड़ के तिनके - तिनके बखेर देगा । वह इस तूफान के सामने छाती फुलाकर डट जाना चाहता था ।
बड़ी कठिनाई से स्वयं सेवकों की मित्रत करके वह दुकानों के पीछे से दाखिल हुआ । किन्तु जब वह दुकानों के पास पहुंचा तूफान उसके घोंसले को अपनी लपेट में ले चुका था । लाठियों के प्रहारों से खिलौनों की दुकानें बिखर चुकी थीं और भाई-भाई एक दूसरे पर टूट चुके थे। बूढ़े का कम्पन सहसा बन्द हो गया । उसकी कमर न जाने कैसे सीधी हो गई ? उसकी थकान न जाने कहां उड़ गई ? क्षण-भर के लिए उसने अनुभव किया जैसे वह वही खिलौनेवाला है और वे उसके बनाए हुए खिलौने हैं, जो आपस में गड्मड् हो रहे हैं और उसे उनको फिर यथास्थान रख देना है । वह लठिया उठाए हुए उस तूफ़ान में घुस पड़ा ।
मेला समाप्त हो गया – रूप, हरि और सुन्दरी मेले के अस्पताल में पट्टियां बांधे पड़े थे । चारपाइयां, लकड़ी के तख्ते और टीन के खाली कनस्तर, जिनसे वे दुकानें खड़ी की गईं थीं और वे खिलौने, जो उन दुकानों में सजाये गए थे बिखरे पड़े थे । उन सब के मध्य एक औंधी चारपाई के नीचे बूढ़ा खिलौनेवाला मरा पड़ा था- संसार के उस आदि कलाकाल की भांति बेबस, जिसने खिलौने बनाकर उनपर अपना अधिकार खो दिया है, और स्वयं एक खिलौना बन गया है— निस्पन्द और निष्प्राण ! लाठियां अब भी उसके हाथ में उठी हुईं थी मानो वह अब भी उस तूफान का सामना करना चाहता था । किन्तु वह अज्ञात प्रेरणा कदाचित यहां आकर खत्म हो गयी थी और उसके मुंह पर मक्खियां भिनभिना रही थीं ।