ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान् ने स्वप्न-दर्शन दिए और कहा – “ज्ञान मैंने तुम्हें अपना प्रतिनिधि बना कर संसार में भेजा है। उठो, संसार का पुनर्निर्माण करो ।”
ज्ञान जाग पड़ा । उसने देखा, संसार अन्धकार में पड़ा है और मानव-जाति उस अन्धकार में पथभ्रष्ट होकर विनाश की ओर बढ़ती चली जा रही है । वह ईश्वर का प्रतिनिधि है, तो उसे मानव जाति को पथ पर लाना होगा, अन्धकार से बाहर खींचन होगा, उसका नेता बन कर उसके शत्रु से युद्ध करना होगा ।
और वह जाकर चौराहे पर खड़ा हो गया और सबको सुनाकर कहने लगा--- “मैं मसीह हूं, पैगम्बर हूं । भगवान् का प्रतिनिधि हूं । मेरे पास तुम्हारे उद्धार के लिए एक सन्देश है ।"
लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। कुछ उसकी ओर देख कर हँस पड़ते; कुछ कहते पागल है; अधिकांश कहते, यह हमारे धर्म के विरुद्ध शिक्षा देता है, नास्तिक है, इसे मारो। और बच्चे उसे पत्थर मारा करते ।
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आखिर तंग आकर वह एक अंधेरी गली में छिप कर बैठ गया और सोचने लगा । उसने निश्चय किया कि मानव जाति का सबसे बड़ा शत्रु है धर्म, उसीसे लड़ना होगा ।
तभी पास कहीं से उसने करुण - क्रन्दन की आवाज़ सुनी। उसने देखा, एक स्त्री भूमि पर लेटी है, उसके पास एक बहुत छोटा-सा बच्चा पड़ा है, जो या तो बेहोश है या मर चुका है, क्योंकि उसके शरीर में किसी प्रकार की गति नहीं है । ज्ञान ने पूछा – “बहन क्यों रोती हो ?”
उस स्त्री ने कहा- "मैंने एक विद्यार्थी से ब्याह किया था। जब लोगों को इसका पता चला, तब उन्होंने उसे मार डाला और मुझे निकाल दिया । मेरा बच्चा भी भूखसे मर रहा है । "
ज्ञान का निश्चय और दृढ़ हो गया। उसने कहा - "तुम मेरे साथ आओ, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा ।" और उसे अपने साथ ले गया ।
ज्ञान ने धर्म के विरुद्ध प्रचार करना शुरू किया । उसने कहा – “धर्म झूठा बन्धन है । परमात्मा एक है, अबाध है और धर्म से परे है। धर्म हमें सीमा में रखता है, रोकता है, परमात्मा से अलग रखता है, अतः हमारा है ।"
लेकिन किसी ने कहा- " जो व्यक्ति पराई और बहिष्कृता औरत को अपने साथ रखता है, उसकी बात हम क्यों सुनें ? वह समाज से पतित है, नीच है ।" तब लोगों ने उसे समाजच्युत करके बाहर निकाल दिया ।
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ज्ञान ने देखा कि धर्म से लड़ने के पहले समाज से लड़ना है। जब तक समाज पर विजय नहीं मिलती, तब तक धर्म का खंडन नहीं हो सकता ।
तब वह इसी प्रकार प्रचार करने लगा वह कहने लगा- "ये धर्म ध्वजी, ये पुंगी - पुरोहित, मुल्ला ये कौन है ? इन्हें क्या अधिकार है हमारे जीवन को बांध रखने का ? आओ, हम इन्हें दूर कर दें, एक स्वतन्त्र समाज की रचना करें, ताकि हम उन्नति के पथ पर बढ़ सकें ।”
तब एक दिन विदेशी सरकार के दो सिपाही आ कर उसे पकड़ ले गए, क्योंकि वह वर्गों में परस्पर विरोध जगा रहा था।
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ज्ञान जब जेल काट कर बाहर निकला, तब उसकी छाती में इन विदेशियों के प्रतिविद्रोह धधक रहा था। यही तो हमारी क्षुद्रताओं को स्थायी बनाए रखते हैं, और उससे लाभ उठाते हैं । पहले अपने को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करना होगा, तब.. ...... और वह गुप्त रूप से विदेशियों के विरुद्ध लड़ाई का आयोजन करने लगा ।
एक दिन उसके पास एक विदेशी आदमी आया । वह मैले-कुचैले, फटे-पुराने ख़ाकी कपड़े पहने हुए था। मुख पर झुर्रियां पड़ी थीं, आंखों में एक तीखा दर्द था । उसने ज्ञान से कहा- "आप मुझे कुछ काम दें, ताकि मैं अपनी रोज़ी कमा सकूं । मैं विदेशी हूं । आपके देश में भूखा मर रहा हूं । कोई भी काम मुझे दें, मैं करूंगा । आप परीक्षा लें। मेरे पास रोटी का टुकड़ा भी नहीं है । " ज्ञान ने खिन्न होकर कहा – “मेरी दशा तुमसे कुछ अच्छी नहीं है, मैं भी भूखा हूं।"
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वह विदेशी एकाएक पिघल-सा गया । बोला – “अच्छा मैं आपके दुःख से बहुत दुःखी हूं। मुझे अपना भाई समझें। यदि आपस में सहानुभूति हो, तो भूखे मरना मामूली बात है । परमात्मा आपकी रक्षा करे। मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूं।”
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ज्ञान ने देखा देशी-विदेशी का प्रश्न तब उठता है, जब पेट भरा हो। सबसे पहले शत्रु तो यह भूख ही है, पहले भूख को जीतना होगा, तभी आगे कुछ सोचा जा सकेगा.
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और उसने भूख के लड़ाकों का एक दल बनाना शुरू किया, जिसका उद्देश्य था अमीरों से धन छीन कर सबमें समान रूप से वितरण करना, भूखों को रोटी देना इत्यादि; लेकिन जब धनिकों को इस बात का पता चला तो उन्होंने एक दिन चुपचाप अपने चरों द्वारा उसे पकड़वा मंगाया और एक पहाड़ी किले में कैद कर दिया। वहां एकान्त में वे उसे सताने के लिए नित्य एक मुट्ठी चबैना और एक लोटा पानी दे देते,
बस ।
धीरे-धीरे ज्ञान का हृदय ग्लानि से भरने लगा । जीवन उसे बोझ सा जान पड़ने लगा । निरन्तर यह भाव उसके भीतर जगा करता कि मैं, ज्ञान, परमात्मा का प्रतिनिधि इतना विवश हूं कि पेट भर रोटी का प्रबन्ध मेरे लिए असम्भव है ? यदि ऐसा है, तो कितना व्यर्थ है यह जीवन, कितना हूँछा, कितना बेमानी !
एक दिन वह किले की दीवार पर चढ़ गया । बाहर खाई में भरा हुआ पानी देखते-देखते उसे एक दम से विचार आया, और उसने निश्चय कर लिया कि वह उसमें कूद कर प्राण खो देगा । परमात्मा के पास लौट कर प्रार्थना करेगा कि मुझे इस भार से मुक्त करो; मैं तुम्हारा प्रतिनिधि तो हूँ; लेकिन ऐसे संसार में मेरा स्थान नहीं है।
वह स्थिर-मुग्ध दृष्टि से खाई के पानी में देखने लगा । वह कूदने को ही था कि एकाएक उसने देखा, पानी में उसका प्रतिबिम्ब झलक रहा है और मानो कह रहा है — "बस, अपने आपसे लड़ चुके ?"
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ज्ञान सहमकर रुक गया; फिर धीरे-धीरे दीवार पर से नीचे उतर आया और किले में चक्कर काटने लगा ।
और उसने जान लिया कि जीवन की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हम निरन्तर आसानी की ओर आकृष्ट होते हैं ।