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अध्याय 4: आत्म-शिक्षण

13 अगस्त 2023

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महाशय रामरत्न को इधर रामचरण के समझने में कठिनाई हो रही है। वह पढ़ता है और अपने में रहता है। कुछ कहते हैं तो दो-एक बार तो सुनता ही नहीं । सुनता है तो जैसे चौंक पड़ता है। ऐसे समय, मानो विघ्न पड़ा हो इस भाव से वह झुंझला भी उठता है। लेकिन तभी झुंझलाने पर वह अपने से अप्रसन्न भी दीखता है और फिर बिन बात, बिन अवसर वह बेहद विनम्र हो जाता है ।

यह तेरह वर्ष की अवस्था ही ऐसी है। तब कुछ बालक में उग रहा होता है। इससे न वह ठीक बालक होता है, न कुछ और। उसे प्यार नहीं कर सकते, न उससे परामर्श कर सकते हैं । तब वह किस क्षण बालक है और किस पल बुजुर्ग, यह नहीं जाना जा सकता। उसका आत्म-सम्मान कब कहां रगड़ खा जायगा, कहना कठिन है । उससे कुछ डरकर चलना पड़ता है रामरत्न की बात तो भी दूसरी है। 

घर में अधिक काल उन्हें नहीं रहना होता । सवेरे नौ बजे दफ्तर की तैयारी हो जाती है और सांझ अंधेरे वापस आते हैं। बाद में खाने के समय के अलावा कोई घण्टाभर घर में रहने पाते होंगे। रात नींद की होती ही है । पर दिनमणि की परेशानी की न पूछो। वह रामचरण को लेकर हैरान है । अकेले में बैठकर सोचती है, दो जनियों से पूछकर वह विचारती है। पर ठीक कुछ समझ नहीं आता कि रामचरण से कैसे निबटे ? जानती है कि लड़का यह सुशील है, खोटी आदत कोई नहीं है। किताबें सदा अच्छी और धर्म की पढ़ता है पर उसकी तबियत की थाह जो नहीं मिलती। वह गुम सुम रहता है। चार दफे बात कहते हैं तब जाकर कहीं जवाब देता है। इस कारण आये दिन कलह बनी रहती है । इसमें दिनमणि को अपनी जुबान खराब करनी पड़ती है और रामचरण अटल रहता है, वह दस तरह झीकती है— फटकारती है। डपटती है और कहती है मैं क्या भौंकने के लिये हूं ? पर रामचरण को जो करना होता है करता है और जो नहीं हूं करना होता वह नहीं करता। सारांश, दिनमणि कह सुनकर अपने आप में ही फुंक रहती है

दिनमणि ने अब अपने भीतर से सीख लेकर रामचरण से कहना-सुनना लगभग छोड़ दिया है । कुछ होता है तो पुत्र के पिता पर जा डालती है । सवेरे का स्कूल है और आठ बज गये हैं पर रामचरण अभी खाट पर पड़ा है। पड़ोस के सब बालक स्कूल गये, खुद घर की छोटी बिन्नी नाश्ता करके स्कूल जा चुकी है। आंगन में धूप चढ़ आई है। लेकिन रामचरण है कि खाट पर पड़ा है I

दिनमणि ने पति से कहा— “सुनते हो जी, लड़का सो रहा है और वक्त इतना हो गया । उसे क्या स्कूल नहीं जाना है ? जगा क्यों नहीं देते ? "

रामरत्न अखबार पढ़ रहे थे, युद्ध में अनी का समय आया ही चाहता है, बोले- "क्या रामचरण ! तो ?"

"तो क्या " - पत्नी कपार पर हाथ रखकर बोली - "सूरज सिर पर आ जायगा तब वह उठेगा ? एक तो कमजोर है और तुमने आँख फेर रखी है। कहती हूं, स्कूल नहीं भेजोगे ? या ऐसे ही उसे नवाब बनाने का इरादा है ? तुमने ही उसे सिर पर चढ़ा रखा है।"

रामरत्न ने कहा- "क्या बात है ? बात क्या है ?"

दिनमणि का भाग्य ही वाम है। वैसा पुत्र और ऐसा पति ! बोली--" बात क्या - तब से कह तो रही हूं कि अपने लाड़ले को चलकर उठाओ। पता है, नौ • बजेंगे !"

रामरत्न ने अन्दर जाकर जोर से कहा - " रामचरण । उठोगे नहीं। क्या तुम्हें पढ़ने का खयाल नहीं है ?

करवट लेकर रामचरण ने पिता की ओर देखा ।

उन आंखों में निर्दोष आलस्य था और आज्ञा-पालन की शीघ्रता नहीं थी । पिता ने कहा – “चलो,उठो  सुना नहीं ।"

मालूम हुआ कि रामचरण ने सचमुच नहीं सुना है। वह झटपट उठकर बैठ नहीं गया । पिता ने हाथ से पकड़कर उसे खींचते हुए कहा- "चलो, उठते हो कि नहीं ? दिन चढ़ आया है और दुनिया स्कूल गई । नवाबसाहब सोते पड़े हैं ?"

रामचरण पहले झटके में ही उठकर सीधा हो गया। अब वह आंखें मल रहा था। पिता ने कहा – “चलो, जल्दी निबटो, और स्कूल जाओ। क्या तमाशा बना रखा है, अपने स्कूल का तुम्हें खयाल नहीं है ?"

रामचरण बिस्तर से उठकर चल दिया । दिनमणि उसी कमरे में एक ओर खड़ी यह देख रही थी । उसके जाने पर बोली – “मिज़ाज तो देखे इस शरीर के । इतना भौंकवाया तब कहीं जाकर उठा है। और अब भी देखो तो मुंह चढ़ा हुआ है ।"

अख़बार रामरत्न के हाथ में ही था, बोले- "उसके नाश्ते - वाश्ते को निकाल रखो कि जल्दी स्कूल चला जाय। देर न हो। बच्चा है, एक रोज़ आंख नहीं खुली तो क्या बात है ?"

दिनमणि इसका उपयुक्त उत्तर देने को ही थी कि रामरत्न चलकर अपनी बैठक में आ गए और रूस-जर्मन मोर्चे का नया नकशा अपने मन में बैठाने लगे। पर नकशा ठीक तरह वहां जम न सका क्योंकि जहां रोस्टोव चाहते हैं वहां रामचरण आ बैठता था । तब रामचरण पर उन्हें करुणा होने लगी। मानो वह अनाथ हो। माता है, पिता है पर जैसे उस बालक का फिर भी संगी कोई नहीं है। उन्हें अपने पर और अपनी नौकरी पर क्षोभ होने लगा कि देखो वह लड़के के लिए कुछ भी समय नहीं दे पाते। घर में रहकर बालक पराया हुआ जा रहा है

इसी समय सुनते क्या हैं कि अन्दर कुछ गड़बड़ मच उठी है । जाकर मालूम हुआ कि रामचरण (दिनमणि ने साहब बहादुर कहा था ।) नहाया नहीं है, न ठीक तरह मंजन किया है और मैं कहती हूं तो बदलकर नया निकर भी नहीं पहनता है I

मैंने कहा — "निकर बदल न लो, रामचरण ?"

उसने कहा- "देर हो जायगी ।"

मैंने कहा - "आधी मिनट में क्या फर्क होता है, इतने के लिए मां का कहना नहीं टाला करते भाई ।"

रामचरण ने इस पर जाकर निकर बदल लिया और बस्ता लेकर चलने को तैयार हो गया ।

स्कूल जाते समय वह एक आना पैसा ले जाता है। देते समय पिता उससे तर्क करते हैं कि ऐसी-वैसी चीज़ बाज़ार की लेकर नहीं खानी चाहिए, समझे । पर वह बात ऊपरी होती है और पिता अपना टैक्स देना नहीं भूलते। उसको जाते देख पिता ने कहा - "क्यों आज चार पैसे नहीं ले जाओगे ?"

उसके आने पर कहा - "नाश्ता तो करते जाओ और पैसे भी ले जाना ।"

उसने सुन लिया । उसका मुंह गिरा हुआ था और वह बोला नहीं ।

रामरत्न ने सोचा कि स्कूल में शायद देर हो जाने का उसे डर है । थपथपाते हुए वह उसे मेज़ पर ले गए और खुद मंगाकर नाश्ते की तश्तरी उसके सामने रख दी । कहा कि मैं हेडमास्टर को चिट्ठी लिख दूंगा, देर के लिए वह कुछ नहीं कहेंगे । अब तुम खाओ । तभी उन्होंने घड़ी देखी साढ़े आठ हो गए थे और उनका सब नित्यकर्म शेष था ।

“खाओ बेटा, खाओ ।” कहते हुए वह वहां से चल दिये ।

स्नान समाप्त कर पाये थे कि बाहर से दिनमणि ने सुनाकर कहा-

"देखो जी, तुम्हारे साहबज़ादे बिना खाये - पिये जा रहे हैं। फिर जो पीछे तुम मुझे कहो ।"

रामरत्न शीघ्रता से केवल धोती पहने और अंगोछा कन्धे पर रखकर बाहर आए, रामचरण से बोले – “ नाश्ता करते जाते बेटे ।" दिया ।

रामचरण का मुंह सूखा था और गिरा हुआ था । उसने कुछ जवाब नहीं

"क्यों तबियत तो ख़राब नहीं ?”

रामचरण ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से पिता को देखा और अब भी कुछ बोला नहीं । पिता को ऐसा लगा कि उन आंखों में पानी तिर आना चाहता है। उन्हें कुछ समझ न आया । हठात् बोले - " मां से नाराज़ नहीं होना चाहिए । भई वह जो कहती है तुम्हारे भले के लिए ही कहती है। आओ चलो कुछ नाश्ता कर लो ।”

रामचरण फिर एक बार मूंगी आंखों से देखकर मुंह लटकाये वहीं का वहीं खड़ा रह गया ।

पिता ने इसपर पुत्र को किंचित् उपदेश दिया और फिर भी उसे वहीं अचल देखकर किंचित रोष में उसे छोड़कर चल दिये। वहीं से पुकारकर पत्नी से उन्होंने कहा—“नहीं खाता है तो जाने दो।" और रामचरण के प्रति कहते गए - "हमारे बक्स में पर्स होगा, उसमें से अपनी इकन्नी लेते जाना समझे ? भूलना नहीं ।"

रामरत्न संध्या बीते घर लौटे तो देखा कि रामचरण खाट पर लेटा हुआ है । और रोज़ अबतक वह खेल से मुश्किल से लौट पाता था । यह भी मालूम हुआ कि उसने खाना नहीं खाया है और उसकी मां ने काफी उसे कहा-सुना है ।

रामरत्न विचार-शील हैं, पर उन्हें अति अच्छी नहीं लगती । सब सुनकर उन्होंने ज़ोर से कहा - " रामचरण, क्या बात है जी ?"

दफ्तर से वह इसी उधेड़-बुन में चले आ रहे थे। डर रहे थे कि घर में कहीं बात बढ़ी न हो। उनके मन में पुत्र के लिये करुणा का भाव था। उन्हें अपना बचपन याद आता था कि किस तरह बचपन में उन्हें भी गलत समझा गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इन्ट्रेन्स में पढ़ी 'होमकमिंग' कहानी का वह लड़का याद आता था जिसका नाम चाह कर भी वह स्मरण न कर पाते थे। उसकी बात सोचकर उनके रोंगटे खड़े हो जाते थे । विचार करते थे कि लड़कों की अपनी स्वप्न की दुनिया अलग होती है। हम बड़ों का प्रवेश वहां निषिद्ध है । अपने सपनों पर चोट वह नहीं सह सकते। हम बड़ों को इसका खयाल रखना चाहिये ।

लेकिन जब घर में पैर रखते ही दिनमणि ने रामचरण की उद्दण्डता और अपने धैर्य की बात सुनाई तो उन्हें मालूम हुआ कि सचमुच लड़के में जिद बढ़ने देनी नहीं चाहिये । यह बात सच थी कि दिनमणि ने स्कूल से लौटने पर पुत्र से खाने के लिये आध घन्टे तक अनुरोध किया था। उस सारे काल रामचरण मुंह फेर खाट पर पड़ा रहा था । उकताकर अन्त में उत्तर में उसने तीन बार यही कहा था- "मैं नहीं खाऊंगा, नहीं खाऊंगा, नहीं खाऊंगा।" यह उत्तर सुनकर दिनमणि खाट से उठ खड़ी हुई थी और उसने कुछ तथ्य की बातें बिना लाग-लपेट के रामचरण को वहीं की वहीं सुना दी थीं । रामचरण सब को पीता चला गया ।

यथार्थ स्थिति का परिचय पाकर रामरत्न दफ्तर के कपड़ों में ही अन्दर जाकर उसे डपटकर बोले -- " रामचरण, क्या बात है जी ?"

रामचरण ने पिता के स्वर पर चौंककर ऐसे देखा, जैसे कहीं किसी खास बात के होने का उसे पता न हो, और वह जानना चाहता हो ।

रामचरण की आंखों में फैली इस शिशुवत अबोधता पर पिता को और तैश हो आया । बोले – “खाना तुमने क्यों नहीं खाया जी ? तुम्हारी मंशा क्या है ? क्या चाहते हो ?” क्या घर में किसी को चैन लेने देना नहीं चाहते ? सब तुम्हारी खुशामद करें, तब तुम खाओगे ? आखिर तुम क्या चाहते हो ? रोज़-रोज़ ये तमाशा किस लिए ?"

इसी तरह दो-तीन मिनट तक रामरत्न क्रोध में अपनी बात कहते चले गये । रामचरण खाट पर पड़ा आंख फाड़े उन्हें देख रहा था। जैसे वह कुछ न समझ रहा हो ।

पिता ने वहीं से पत्नी से हुक्म देकर कहा - "लाना तो खाने को, देखें कैसे नहीं  खाता है ?"

दिनमणि खाना लेने गई और पिता ने पुत्र को कहा - " अब और तमाशा न कीजिए। हम समझते थे कि आप समझते हैं। लेकिन दीखता है कि आप इसी तरह बाज आइयेगा ।”

रामचरण तत्क्षण न उठता दिखाई दिया तो कड़ककर बोले - "सुना नहीं आपने, या अब चपत लगे ?"

रामचरण सुनकर एक साथ उठकर बैठ गया । उसके मुख पर भय नहीं, विस्मय था और वह पिता को आंख फाड़कर चकित बना - सा देख रहा था ।

खाने की थाली आई और सामने उसकी खाट पर रख दी गई। पर उसकी ओर रामचरण ने हाथ बढ़ाने में शीघ्रता नहीं की ।

पिता ने कहा – “अब खाते क्यों नहीं हो ? देखते तो हो कि मैंने दफ्तर के कपड़े भी नहीं उतारे, क्या मैं तुम्हारे लिये कयामत तक यहीं खड़ा रहूंगा ? चलो, शुरू करो ।”

रामचरण फिर कुछ देर पिता को देखता रहा, अन्त में बोला --- "मुझे भूख नहीं है । " 

"कैसे भूख नहीं है ?” पिता ने कहा – “सवेरे से कुछ नहीं खाया । जितनी भूख हो उतना खाओ ।”

रामचरण ने उन्हीं फटी आंखों से पिता को देखते हुए कहा - " भूख बिलकुल नहीं है ।"

पिता अब तक जब्त से काम ले रहे थे । लेकिन यह सुनकर उनका धैर्य छूट गया और उन्होंने एक चांटा कनपटी पर दिया, कहा- "मक्कारी न करो, सीधी तरह खाने लग जाओ ।"

इसपर रामचरण बिलकुल नहीं रोया, न शिकायत का भाव उस पर दिखाई दिया । वह शान्त भाव से थाली की तरफ हाथ बढ़ाकर टुकड़ा तोड़ने लगा । माता और पिता दोनों पास खड़े हुए देख रहे थे । रामचरण का मुंह सूखा था और ऐसा लगता था कि कौर उससे चबाया नहीं जा रहा है। इस बात पर उसके पिता को तीव्र क्रोध आया पर जाने किस विधि वह अपने क्रोध को रोके रह गए ।

पांच-सात कौर खाने के बाद रामचरण सहसा वहां से उठा, जल्दी-जल्दी चलकर बाहर आया, नाली पर पहुंचकर सब कै कर बैठा ।

पिता यह सब देख रहे थे। मुंह साफ करके रामचरण लौटा तो पिता ने कठिनाई से अपने को वश में करके कहा, “अच्छा हुआ। कै तो अच्छी चीज़ है । अब स्वस्थ हो गये होंगे, लो अब खाओ ।"

रामचरण ने आंखों में पानी लाकर कहा, 'मुझे भूख बिलकुल नहीं है । "

“लेकिन तुमने सवेरे से खाया ही क्या है ?" पिता ने कहा, "देखो रामचरण, यह सब आदत तुम्हारी नहीं चलेगी। ज़िद की हद होती है। या तो सीधी तरह खाना खा लो, नहीं तो अब से हमसे तुम्हारा वास्ता नहीं— बोलो, खाते हो ?”

रामचरण ने कहा, “मुझे भूख नहीं है ।"

इसपर पिता ज़ोर से बोले, ख़बरदार जो तुमने कुछ कहा

कहना सुनना क्या ?"

"लो जी, ये उठा ले जाओ थाली । अब इनसे

हम तो इनके लिये कुछ हैं ही नहीं । फिर

थाली वहां से उठ गई और रामचरण बिना कुछ बोले हक्का-बक्का - सा पिता को देखता रह गया । पिता वहां से जाते-जाते पुत्र से बोले, “सुनिये, अब आपका राज है, जो चाहे कीजिये, जो चाहे न कीजिये। हमने आपको इसी रोज़ के लिये पाला था ।” कहते-कहते उनकी वाणी गद्गद् हो आई । बोले, “ठीक है, जैसी आपकी मर्जी । बुढ़ापे में हमें यही दिन दिखाइएगा ।"

कहते हुए पिता वहां से चले गये । रामचरण की आंखों में आंसू आ गए I पर पिता के जाने पर अपना सिर हाथों में लेकर वह वहीं खाट पर पड़ गया ।

-

रात होती जाने लगी। पर पिता के मन का उद्वेग शान्त होने में न आता। उनको रोष था और अपने से खीज थी। वह विचारवान् व्यक्ति थे। सोचते थे लड़के में दोष हमसे ही आ सकता है। त्रुटि कहीं हममें ही होगी। लेकिन ख्याल होता था- -जिद अच्छी नहीं है । दिनमणि का कहना है कि लड़के को शुरू में काबू में नहीं रखा, इससे वह सिर चढ़ गया है । क्या यह ग़लती है ? क्या डांटना बुरा है? लाड़ से बच्चे बेशक संभल नहीं सकते। लेकिन मैंने कब उसकी तरफ ध्यान दिया है। उसने कभी कुछ पूछा है तो मैंने टाल दिया है। न उसकी मां ही समय दे पाती है। मैं समझता हूं कि लापरवाही है जिससे उसमें यह आदत आई है ।

सोचते-सोचते उन्होंने पत्नी को बुलाया और पूछा और जिरह की । वह कहीं-न-कहीं से बच्चे से बाहर दोष को पा लेना चाहते थे। पर जिरह से कुछ फल नहीं निकला। उन्हें मालूम हुआ कि वह स्कूल से घर रोज़ से कुछ जल्दी ही आया था।

" पूछा नहीं, जल्दी क्यों आया है ?"

"नहीं, मैं तो उससे कुछ पूछती नहीं, मुंह लटकाये आया और चादर लेकर खाट पर लेट गया । कुछ बोला न चाला ।” तब पिता ने ज़ोर से आवाज़ देकर पुकारा, " रामचरण !" सुनकर रामचरण वहां आ गया ।

पूछा, "तुम आज स्कूल पूरा करके नहीं आये ?"

"नहीं ।"

" पहले आ गये ?"

"हां ।"

"क्यों ?"

इसका उत्तर लड़के ने नहीं दिया । झुककर पास की कुर्सी का सहारा ले वह पिता को देखने लगा ।

पिता ने कहा, “सहारा छोड़ो, सीधे खड़े हो । तुम बीमार नहीं हो । और सुनो, तुम सवेरे बिना खाये गये और किसी की बात नहीं सुनी। स्कूल बीच में छोड़कर चले आये । आये तो रूठकर पड़े रहे। और इतना कहा तो भी अब तक खाना नहीं खाया। बताओ, ऐसे कैसे चलेगा ?"

लड़का चुप रहा ।

पिता ज़ोर से बोले, “तुम्हारे मुंह में जुबान नहीं है ? कहते क्यों नहीं, ऐसे कैसे चलेगा ? बताओ, इस ज़िद की तुम्हें क्या सजा दी जाय ? देखते नहीं, घर भर में तुम्हारी वजह से क्लेश मचा रहता है । "

लड़का अब भी चुप ही था ।

अत्यंत संयम पूर्वक पिता ने कहा, "देखो, मेरी मानो तो अब भी खाना खा लो और सवेरे समय पर स्कूल चले जाना । आइन्दा ऐसा न हो । समझे ? सुनते हो ?"

लड़के की आंखें नीची थीं । कुछ मद्धम पड़कर पिता ने कहा, “भूख नहीं तो जाने दो । लेकिन कल सवेरे नाश्ता करके ठीक वक्त से स्कूल चले जाना । देखो इस उम्र में मेहनत से पढ़ लोगे और मां-बाप का कहना मानोगे तो तुम्हीं सुख पाओगे। नहीं तो पीछे तुम्हें ही पछताना होगा। लो जाओ, कैसे अच्छे बेटे हो । बोलो, खाओगे ?"

जाते-जाते रामचरण ने कहा, "मुझे भूख नहीं है ।"

पिता का जी यह सुनकर फिर खराब हो आया। लेकिन उन्होंने विचार से काम लिया और अपने को संयत रखा ।

अगले दिन देखा गया कि वह फिर समय पर नहीं उठ सका है । जैसे-जैसे उठाया गया है तो अनमने मन से काम कर रहा है। नाश्ते को कहा गया तो फिर नाश्ता नहीं ले रहा है ।

पिता ने बहुत धैर्य से काम लिया। लेकिन कई बार अनुरोध करने पर भी जब रामचरण ने यही कहा कि भूख नहीं है तो उनका धीरज टूट गया । तब उन्होंने उसे अच्छी तरह पीटा और अपने सामने नाश्ता कराके छोड़ा। उसके स्कूल चले जाने पर उनमें आत्मालोचना और कर्तव्य - भावना जागृत हुई। उन्होंने सोचा कि सायंकाल का समय वह मित्र - मण्डली से बचाकर पुत्र को दिया करेंगे। उसे अच्छी-अच्छी बात बताएंगे और पढ़ाई की कमज़ोरी दूर करेंगे। पत्नी से कहकर रामचरण की आलमारी में से उन्होंने उसकी किताब और कापियां मंगाई । वह कुछ समय लगाकर रामचरण की पढ़ाई-लिखाई के बारे में परिचय पा लेना चाहते थे । पहले उन्होंने पुस्तकें देखीं फिर कापियां देखीं । कापियों से अन्दाज़ा हुआ कि उसका कम्पोजीशन बहुत खराब है और भाषा का ज्ञान काफी नहीं है । किन्तु अन्तिम कापी जो सबसे साफ़ और बढ़िया थी, जिसपर किसी विषय का उल्लेख नहीं था, उसको खोला तो वह देखते-के-देखते रह गये । सुन्दर - सुन्दर अक्षरों में पुस्तकों में से चुने हुए नीति-वाक्य बालक ने उस कापी में अंकित किये हुए थे। जगह-जगह नीचे लाल स्याही से महत्त्वपूर्ण अंशों पर रेखा खिंची हुई थी। उसमें पहले ही सफे पर पिता ने पढ़ा -- "बड़ों की आज्ञा सदा सुननी चाहिये और कभी उनको उत्तर नहीं देना चाहिये ।"

"दुःख सहना वीरों का काम है । अपने दुःख में सज्जन पुरुष किसी को कष्ट नहीं देते और उसे शान्ति से सहते हैं । "

" रोग मानने से बढ़ता है। रोग की सबसे अच्छी औषधि निराहार है ।" "घर ही उत्तम शिक्षालय है । सफल पुरुष पाठशाला में नहीं, जीवन-शाला में अध्ययन करते हैं ।"

"दृढ़ संकल्प में जीवन की सिद्धि है। जो बाधाओं से नहीं डिगता, वही कुछ करता है ।"

हले पृष्ठ के ये रेखांकित वाक्य पढ़कर कापी को ज्यों-का-त्यों खोले पिता सामने शून्य में देखते -के-देखते रह गये ।

दफ्तर में भी वह शान्ति न पा सके। शाम को लौटे तो मानो अपने को क्षमा न कर पाते थे । घर आने पर पत्नी ने कहा – “अरे उसे देखो तो, तब से ही कै हो रही है । "

रामरत्न ने आकर देखा । रामचरण शान्त भाव से लेटा हुआ था ।

पत्नी ने कहा – “स्कूल से आया तो निढाल हो रहा था । मुश्किल से दीवार पकड़ करके जीना चढ़ करके आया । और तब से दस बार के हो चुकी है। पूछती हूं तो कुछ कहता नहीं । देखो न क्या हो गया है ?"

पिता ने कहा – “रामचरण, क्या बात है ?"

रामचरण ने कहा – “कुछ नहीं, मतली है ।" "कल भी थी ?"

"हां ।"

पिता को और समझना शेष न रहा । वह यह भी न पूछ सके कि ऐसी हालत तुम दोनों रोज़ दो-दो मील पैदल गये और आये । बस, उनकी आंखें भर आईं और वह डाक्टर लाने की बात सोचने लगे ।

में रामचरण ने उनकी ओर देखकर कहा--"कुछ नहीं है बाबूजी, न खाने से सब ठीक हो जायगा ।"

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 कमरे को साफ कर झाड़ू पर कूड़ा रखे जब बिन्दू कमरे से बाहर निकला तो बराण्डे में बैठी मालती का ध्यान उसकी ओर अनायास ही चला गया । उसने देखा कि एक हाथ में झाड़ू है; पर दूसरे हाथ की मुट्ठी बंधी है और कुछ

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अध्याय 16: जाति और पेशा

15 अगस्त 2023
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अब्दुल ने चिन्ता से सिर हिलाया । नहीं, यह पट्टी उसीकी है। वह रामदास को उसपर कभी भी कब्जा नहीं करने देगा । श्याम जब मरा था तब वह मुझसे कह गया था । रामदास तो उस वक्त नहीं था । उसका क्या हक है ? आया बड़ा

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अध्याय 17: आपरेशन

15 अगस्त 2023
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डा० नागेश उस दिन बड़ी उलझन में पड़ गये। वह सिविल अस्पताल के प्रसिद्ध सर्जन थे । कहते हैं कि उनका हाथ लगने पर रोगी की चीख-पुकार उसी प्रकार शान्त हो जाती थी जिस प्रकार मा को देखते ही शिशु का क्रन्दन बन्

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