कमरे को साफ कर झाड़ू पर कूड़ा रखे जब बिन्दू कमरे से बाहर निकला तो बराण्डे में बैठी मालती का ध्यान उसकी ओर अनायास ही चला गया । उसने देखा कि एक हाथ में झाड़ू है; पर दूसरे हाथ की मुट्ठी बंधी है और कुछ पीछे की ओर जान-बूझ कर आड़ में कर ली गई है। मालती को लगा कि हो न हो, कमरे में से बिन्दू कुछ लाया है । उसने कहा – “बिन्दू !”
दो कदम पर बिन्दू, पर मानों उसने मालती की आवाज़ सुनी ही न हो ! वह चलता ही गया; बल्कि मालती ने देखा कि उसकी पुकार पर बिन्दू की चाल में कुछ तेज़ी आ गई है। गुस्से में भरकर उसने कहा – “बिन्दू ! ओ बिन्दू ! ठहर, कहां जाता है ?”
इतना कहना था कि बिन्दू तो दौड़ने लगा और वह गया, वह गया । मालती के सन्देह की पुष्टि के लिए यह सब काफी था । उसने तेज़ी के साथ कहा- “सुनते हो जी, देखो, बिन्दू कुछ लिये जा रहा है। जल्दी आओ ।"
नंदन पास के कमरे में बैठा अपने पत्र के लिए कुछ लिख रहा था। मालती का यों चिल्लाना उसे अच्छा नहीं लगा और उसने चाहा कि टाल दे; पर मालती माने तब न ! एक सपाटे में वह कमरे में आ गई और बोली – “झटपट उठो । देखो, बिन्दू मुट्ठी में दबाये कुछ ले गया है ।"
नंदन ने कलम एक ओर रख दी और जैसे किसी ने जबर्दस्ती पकड़ कर उठा लिया हो, वह उठा । कमरे से बाहर आया तो देखता क्या है कि बिन्दू लौटकर आ रहा है। एक हाथ में झाडू है, दूसरा रीता है और नीचे लटका है । उसे देखते ही मालती उबल पड़ी—“क्यों रे बिन्दू के बच्चे, मैं गला फाड़ती रही और तू रुका तक नहीं ! बोल, हाथ में क्या ले गया था ?"
बिन्दू का चेहरा फक । बोला — “कुछ नहीं, बीबीजी !”
"झूठा कहीं का ! क्यों रे, तेरे हाथ में कुछ नहीं था तो मेरे पुकारने पर फिर तू रुका क्यों नहीं ?” मालती ने रोषपूर्ण स्वर में पूछा ।
बिन्दू से बोला नहीं जा रहा था। कहे तो क्या कहे !
तब नंदन आगे बढ़ा । बोला – “बिन्दू, घबराओ नहीं। सच सच बताओ कि क्या ले गये थे ।"
"सच बाबूजी, मेरे हाथ में झाडू थी और कूड़ा था ।"
" फिर वही झूठ !” मालती ने चिढ़ कर कहा । "इसे पुलिस में दे दो । लातों के देव कहीं बातों से मानते हैं ! इस बेईमान के ऊपर घर छोड़ रखा है तो इसीलिए कि चीजें उठा उठा कर ले जाय और ऊपर से झूठ बोले !"
नंदन ने मालती को शांत किया। कहा कि असली बात जानने का यह तरीका नहीं है । फिर बिन्दू को उसने प्यार से समझाया और कहा कि मैं तुमसे कुछ कहूँगा नहीं । ठीक-ठीक बताओ कि क्या ले गए थे ! लेकिन बिन्दू घबराया-सा, खोया-सा, धरती की ओर देखता रहा और नंदन का बहुत आग्रह हुआ तो उसने बस इतना ही कहा कि मैंने कुछ नहीं लिया हैI
नंदन फिर भी खीझा नहीं । बोला – “अच्छा चल, देखूं, तू कूड़ा कहां फेंक आय है।"
बिन्दू पहले तो कुछ ठिठका, अनन्तर मुड़कर चुपचाप आगे हो लिया । उसके पैर मशीन की तरह चल रहे थे और कभी-कभी लगता था कि वह लड़खड़ा कर गिर पड़ेगा। आखिर तीनों जने मकान के पिछवाड़े पहुंचे और बिन्दू ने एक स्थान की ओर संकेत करके बताया कि कूड़ा वहां फेंका है । नंदन और मालती ने वह जगह देखीं, उसके इर्द-गिर्द निगाह फेंकी; पर कुछ दीखा नहीं । बिन्दू हर दिन वहां कूड़ा डालता था, चारों ओर कूड़ा-ही-कूड़ा बिखरा पड़ा था। नंदन ने कहा - "बिन्दू, यों हैरान करने से क्या होगा ? बता क्यों नहीं देता कि क्या लाया था ?"
बिन्दू के होठ खुले, जैसे कुछ कहना चाहता हो; पर फिर बन्द हो गये ।
“मैं कहती थी न”, मालती बोल उठी, “कि यह कुछ-न-कुछ ले जरूर गया
"बाबूजी.... "शाबास, कहो - कहो ।”
बिन्दू फिर चुप ।
"बाबू....जी, थोड़ी-सी मेवा नीचे पड़ी थी। मैं उठा लाया ।”
बिन्दू कह तो गया; पर जैसे वह अनुभव कर रहा हो कि दुनिया का जाने कितना गहरा पाप उसने कर डाला है ।
“मैं कहती थी न”, मालती बोल उठी, “कि यह कुछ-न-कुछ ले जरूर गया है । देखा, मेरी बात सच निकली न ?" "मेवा का तुमने क्या किया, बिन्दू ?" " खा ली ।"
“इतनी जल्दी ? बिन्दू, झूठ मत बोलो ! सच बता दो ।" "उधर फेंक दी ।"
नंदन और मालती ने देखा कि उसकी बताई जगह पर थोड़े से काजू और कुछ किशमिशें पड़ी हैं । नंदन ने बिन्दू के कंधे पर हाथ रखा और कहा – “मेरे साथ आओ ।"
बिन्दू चुपचाप मालिक के साथ चल दिया । नंदन उसे लेकर कमरे की ओर गया । मालती ने कहा- " आज इसने मेवा ली है, कल को और कुछ उठा ले जायगा । एक बार नीयत बिगड़ी तो क्या फिर हाथ रुकता है ?"
नंदन ने पत्नी की बात सुनी-अनसुनी कर दी। बिन्दू को साथ लेकर कमरे में गया और कनस्तर खोलकर उसमें से एक मुट्ठी मेवा उसके हाथ में देते हुए बोला- "बिन्दू, लो खाओ ।"
पति के इस नरमी के व्यवहार से मालती आग-बबूला हो गई। बोली- “ऐसे ही तो नौकर बिगड़ते हैं । उसे कुछ कहना तो दूर, उल्टे उसकी खुशामद कर रहे हैं !"
नंदन मुस्कराया । बोला- "मालती, चोर बिन्दू नहीं है, हम हैं। हम क्यों ऐसी चीजें खायं जो सबको नहीं मिलती ?" इसीसे तो चोरी की भावना को जन्म मिलता है। हम लोग रोज मेवा खाते हैं। एक दिन इस बिचारे का मन चल आया और थोड़ी-सी लेली तो क्या हो गया ?"
“मैं कब कहती हूं कि कुछ हो गया । बात मेवा की नहीं है, नीयत की है । इसका जी चला था तो मांग लेता। मैं न देती तब कहता। घर में पचास चीजें रहती हैं। यों तो जिस पर मन आयेगा, उठाकर ले जायगा । और एक दिन यही होना है । वह न करेगा तो तुम करवाओगे ।"
" मालती, यह बात नाराज़ होने की नहीं, सोचने की है। जबतक सब चीजें सबको नहीं मिलतीं, चोरी बन्द हो नहीं सकती। चोरी अच्छी नहीं है, पर आज की स्थिति बड़ी लाचारी की हो गई है ।" नंदन ने समझाते हुए कहा ।
" देख लेना, एक दिन यही बिन्दू घर में से ट्रंक उठाकर न ले जाय तो मेरा नाम मालती नहीं ।"
इतना कहकर मालती रसोई में चली गई और नंदन पुनः अपनी कुर्सी पर आ बैठा । पर मन उसका दूसरी ही दिशा में चल रहा था। थोड़ी देर वह सोचता रहा । फिर उसने विचारों को समेटा और लेख पूरा करने में लग गया ।
लेख पूरा हुआ तो काफी देर हो चुकी थी । वह उठा और सीधा रसोई में पहुँचा । देखता क्या है कि मालती सिल पर चटनी पीस रही है। नंदन ने कहा- "बिन्दू कहां है ?"
“मैं क्या जानूं ?”
" और कौन जाने ?”
"तुम जानो और तुम्हारा लाड़ला बिन्दू जाने ।”
"उसे निकाल दिया ?"
"निकालने वाली मैं कौन होती हूँ ?"
"कब से नहीं है ?"
" तभी चला गया था ।"
"पानी भरने तो नहीं गया ?"
"नहीं ।"
"फिर ?"
“मैं क्या जानूं !”
नंदन थोड़ा हैरानी में पड़ा । मालती ने उसे देखा तो बोली - "तुम यहाँ के नौकरों को जानते नहीं । अपने घर में होता है तब भी उनका हाथ रुकता नहीं । कुन्दन के यहां कितना अनाज भरा है, फिर भी उस दिन आंख बच गई तो काका के यहां से गेहूँ ले ही गया ।”
नंदन जानता है कि बहस का अन्त नहीं । उसने बात आगे नहीं बढ़ाई और तौलिया उठाकर स्नान करने चला गया । स्नान करने के बाद उसने भोजन किया । थोड़ी देर पहले की बात का असर नंदन और मालती दोनों के मन पर था । भोजन करते समय पति-पत्नी दोनों चुप रहे और खा-पीकर अपने-अपने काम में लग गये ।
दोपहरी बीती और शाम होने को आई; फिर भी जब बिन्दू न लौटा तो मालती के मन को अच्छा नहीं लगा। चौके में अब भी बिन्दू का खाना पड़ा था । "झूठ बोला तो क्या आखिर बालक ही तो है ।
” उसने सोचा, “भूखा जाने कहाँ भटक रहा होगा !” कई बार कमरे से बाहर आ आकर मालती ने बिन्दू को देखा, फिर बगीचे का एक चक्कर लगाया कि कहीं किसी पेड़ के नीचे पड़ा सो न रहा हो। पर बिन्दू वहां कहां था जो मिलता ! मालती आकर पलंग पर पड़ गई और अपने को कोसने लगी कि ज़रा-सी बात को इतना तूल क्यों दिया ! थोड़ी-सी मेवा ले गया था तो क्या गजब हो गया था ?
सोचते-सोचते देर हो गई तो वह उठी और सहन में टहलने लगी । इतने में * कुन्दन उधर से निकला तो मालती ने उत्सुकता से पूछा – “कुन्दन, तूने बिन्दू को देखा है क्या ?"
"बिन्दू !” कुन्दन बोला, "अरे, वह तो नदीवाली कोठरी में पड़ा है ।" मालती तत्काल पैरों में चप्पल डालकर बाहर हो गई ।
लौटी तो बिन्दू उसके साथ था । बाँह पकड़कर नंदन के कमरे में ले गई और
बोली - "देखी तुमने इसकी बात ! यहां से गया है तब से वहां कोठरी में पड़ा है !" नंदन ने कहा - "क्यों रे, वहां क्या कर रहा था ?"
बिन्दू चुप ।
"मैं पूछता हूँ, वहां क्या कर रहा था ?"
फिर चुप ।
“अरे, बोलता क्यों नहीं ? मुंह में जबान नहीं है ?” बिन्दू की आँखें डबडबा आई ।
मालती ने कहा- "इसका पागलपन देखो । सबेरे से कुछ नहीं खाया और भूखा-प्यासा वहाँ पड़ा है ! चल, खाना खा ।”
नंदन के कुछ कहने से पहले ही वह उसे चौके में ले गई और स्वयं परोसकर उसे खिलाने लगी । बोली - "भर पेट खा लेना । भूखा मत रहना ।”
नंदन ने पत्नी की बात सुनी और एक प्रसन्नता भरी मुस्कराहट उसके चेहरे पर दौड़ गई ।