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अध्याय 16: जाति और पेशा

15 अगस्त 2023

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अब्दुल ने चिन्ता से सिर हिलाया । नहीं, यह पट्टी उसीकी है। वह रामदास को उसपर कभी भी कब्जा नहीं करने देगा । श्याम जब मरा था तब वह मुझसे कह गया था । रामदास तो उस वक्त नहीं था । उसका क्या हक है ? आया बड़ा हिन्दू बनकर । उस वक्त कहां चला गया था ? अब देखो तो हाथ में लठ उठा उठा कर दिखाता है । मैं कचहरी में ले जाऊँगा इसको ।

उसके शरीर पर एक मैली-सी मिरजई और कटि के नीचे घुटनों तक ऊँची धोती । वह बैठा-बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। इधर जो नाज महँगा बिकता है, उसके पास कुछ रुपया जमा हो गया है । वह अब किसी से क्यों दबे ? और उसने भौं सिकोड़कर गम्भीरता से एक बार ज़ोर का कश लगाया और फिर अपने कैंची से कटे बालों पर हाथ फेरा । जब मुँह से धुआं छोड़ा तो उसका हाथ दाढ़ी को सहला रहा था ।

उसके बच्चे बाहर धूल में खेल रहे थे । उन्हें किसीकी भी क्या फिक्र । साथ में ही रामदास के बच्चे भी थे। एक बच्चा धूल में पैर देकर ऊपर से मिट्टी थोपकर घर बनाने की कोशिश कर रहा था। जब चिलम बुझ गयी वह उठा । पत्नी को आवाज़ दी और कह दिया कि वह सम्भवतः देर में लौटेगा । पत्नी कुछ नहीं समझ सकी । अपने इन्हीं विचारों में मग्न वह शहर चल दिया ।

दो मील चलकर वह वकील साहब के यहां पहुंचा तो उसने देखा वकील साहब को एक मिनट की भी फुर्सत नहीं; किन्तु जब वह पास जाकर सलाम करके बैठ गया तो उसे पता चला कि वह सिर्फ गवाहों की भीड़ थी जिन्हें वकील साहब कल का बयान रटा रहे थे । वह चुपचाप प्रतीक्षा करता रहा। जब बयान खत्म हो गया, उन्होंने एक गवाह से उसे सुना । उसकी गलतियों को ठीक किया और फिर सन्तुष्ट होकर कहा--"ठाकुरों को उस गांव में कोई नहीं हरा सकता । अब जाओ ।" 

वकील साहब की आंखों में एक तीक्ष्णता थी जिससे उन्होंने शीघ्र ही अब्दुल भांप लिया । उनका काम ही यह था । उन्होंने उससे कहा - "अरे बहुत दिन बाद । दिखाई दिये । इधर तो आना ही छोड़ दिया था।" फिर हँसकर कहा - " वकील और डाक्टर दूर ही रहें, यही अच्छा है । "

वे धार्मिक आदमी थे । सुबह अंधेरे ही उठकर भजन-पूजन समाप्त कर लेते और फिर सांसारिक कामों में लग जाते । छुआछूत का पूरा खयाल रखते । जब बच्चे सुबह पढ़ने लगते वे अपने मुवक्किलों से बातें करते हुए उनपर भी नजर रखते कि कोई बेकार ही पेन्सिल छील - छीलकर तो समय नष्ट नहीं कर रहा है । पड़ोस के खां साहब से उनके पिता के समय में बहुत मेल-जोल था । किन्तु अब आना-जाना तो है नहीं, बच्चे अलबत्ता साथ खेलते हैं। पड़ोस के खां साहब से उनके पिता के समय में बहुत मेल-जोल था । किन्तु अब आना-जाना तो है नहीं, बच्चे अलबत्ता साथ खेलते हैं । उनका सिर्फ सलाम दुआ का रिश्ता है और कुछ नहीं। वे मुसलमान, ये हिन्दू | अब पड़ोस से सब व्यवहार बन्द हो चुका था । वकील साहब की सदा यही कोशिश रहती कि कैसे भी हो खां साहब यहां से उखड़ें तो मैं मध्यस्थ बनकर वह मकान किसी शरणार्थी को दिला दूँ और बीच में जो अपना हो उसे प्राप्त करूँ ।

श्यामा की भूमि पर अब्दुल का यह हक जमाना कतई नापसन्द रहा पर उनको क्या ? उन्हें तो पैसा मिलना चाहिए ।

उन्होंने कागज पर बहुत कुछ लिखा और कहा - "केस पेचीदा है । जबानी किसी ने कुछ कह दिया, उसे साबित करना कठिन काम है । और कोई लिखा-पढ़ी है ?” " होती तो क्या बात थी" उन्होंने स्वयं कहा; क्योंकि अब्दुल खाली आँखों से देख रहा था । उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा--" और तुम्हारी अड़ पड़ गई है ।"

अब्दुल ने सिर हिला कर स्वीकार किया— हाँ, अड़ पड़ गई है। जमीन तो ऐसी कोई बहुत नहीं है, पर रामदास जीत गया तो अब्दुल सदा के लिए दबकर रहेगा । वकील साहब समझ गये। वे समझदार आदमी थे ।

"कौन से डिपटी की कोरट में जायेगा” अब्दुल ने पूछा "ऐसी जगह पहुँचाओ जहां काम हो जाय ।"

वकील हंसे । “कहा—तकवी के यहां ले जाता, पर वैसे सुन्दरभान ठीक रहेगा। क्यों ? आदमी तो वह ठीक है ?"

अब्दुल ने कहा- " आप जानें ।”

क्कील साहब ने कहा—“ अरे भाई, तुम्हारी भी तो राय लेनी चाहिए । मैं और वकीलों की तरह नहीं हूँ ।

उन्होंने उसे कुछ और समझाया। रुपये गिन लिये। आश्वासन दिया । वह प्रसन्न-सा लौट आया । वकील साहब खुश हुए । सुन्दरभान से उनकी अदावत थी । वहां यह मुसलमान कभी नहीं जीतेगा । हिन्दू की जमीन हिन्दू को ही मिलेगी । एक पन्थ दो काज सिद्ध होंगे। तकवी दोस्त तो है, लेकिन क्या ठीक ? किन्तु अब्दुल कुछ और ही सोच रहा था। वकील को रुपये देते ही बोझ उतर गया । जिस समय वह गांव पहुंचा उसे लगा उसने रामदास को हटा दिया था । मामूली नहीं है यह वकील । कितने गवाहों को साथ पढ़ा रहा था। जब उस झूठे मामले को वह यों ही सुलझा गया तो फिर उसका तो एक सहारा भी है। वह जरूर जीत कर रहेगा ।

तभी किसीने कहा—“कहो अब्दुल, अच्छे तो हो ? बहुत दिन बाद दिखाई दिये ।"

गरगलाती आवाज में एक भारीपन था जिसमें अधिकार, स्नेह और चातुर्म्य की भावना थी । अब्दुल ने देखा मौलवी साहब थे । वह खुशी से अपना किस्सा सुना गया ।

उसकी बात सुनकर वे उसे ऐसे देखते रहे जैसे किसी बेवकूफ को आज जिन्दा पकड़ लिया था । अत्यन्त गम्भीर मुद्रा बनाकर उन्होंने कहा - " अब्दुल, तू सचमुच बच्चा है ।"

अब्दुल चौंक उठा । उसने पूछा – “क्यों ? क्या बात है ?"

लम्बा चोगा पहननेवाले मौलवी साहब की उंगलियाँ उनकी खिचड़ी दाढ़ी में उलझ गयीं । वे चुप खड़े रहे । उनके उस मौन को देखकर अब्दुल को भय होने लगा । वह हल और जमीन का मोटा काम करनेवाला किसान अल्लाह के सूक्ष्म तत्त्वों की समझनेवाले मौलवी साहब को इस तरह खामोश देखकर सिहर उठा ।

उन्होंने मुसकराकर कहा - " अभी वह शायद तुमने सुना नहीं । हिन्दू अब मुसलमानों पर खार खाये बैठे हैं। यह वह बोदा हिन्दू नहीं है जो हमारा गुलाम बनकर रहता था, अब वह हमें गुलाम बनाकर रखना चाहता है । "

अब्दुल कांप उठा । मौलवी साहब अपनी भारी आवाज़ में कहते रहे — 'सूबेदार तलवार लगाकर घूमता है । वह कहता है इन्हें सूई की नोक बराबर ज़मीन पर भी नहीं रहने दी जायेगी । कोई रोकनेवाला है उसे ? कोई नहीं । क्योंकि सुन्दरभान सबसे बड़ा अफसर है । उसके सामने कौन बोल सकता है ?

उन्होंने हाथ फैलाकर समझाते हुए कहा – आज हल्के में सब मुसलमान हैं अपना दारोगा है, अपना तहसीलदार, मगर सुन्दरभान अकेला हिन्दू डिप्टी है । मुसलमानों को दबाकर रखना चाहता है । तकवी है - अपनी बातें सुनता है, तरफदारी करता है, ठीक है, मगर डरता है। जहां हिन्दू-मुसलमान का सवाल आया फौरन अपने आपको ईमानदार साबित करने के लिए हिन्दू की तरफ हो जायगा । अगर ऐसे लोग न होते तो क्या मुसलमान इतना दबकर रहता ?

अब्दुल संकट की-सी हालत में पड़ गया । अब वह क्या करे । कुछ भी हो आखिर जब वह दीन भाई है तो क्या कुछ भी खयाल नहीं करेगा ? तकवी ही ठीक रहेगा ।

अब्दुल दूसरे दिन जब वकील साहब के यहां पहुँचा, वकील साहब अकेले बैठे थे । उनकी स्त्री पर्दे के पीछे खड़ी उनसे कुछ बातें कर रही थी । अब्दुल को देखकर वह भीतर चली गयी ।

"आओ, आओ अब्दुल” वकील साहब ने आरामकुर्सी पर लेटते से बैठते हुए कहा । अब्दुल जाकर बगल में जमीन पर बैठ गया । काफी तकलीफ के साथ उसने अपनी बात को छिपाकर उनसे कह दिया ।

वकील साहब ने अधमुंदी आंखों से देखा । तकवी के यहां मामला पहुंचाना उनके बस की बात है लेकिन उसमें वही खतरा है। मुसलमान कैसा भी दोस्त हो, आखिर मुसलमान है । वह जब देखेगा कि जमीन का मामला है, फौरन मुसलमान की तरफ हो जाएगा, दोस्ती धरी रह जाएगी। केस तो शायद वे जिता दें, पर हिन्दुओं का इसमें नुकसान होगा । मुसलमान को जमीन दिलाने का मतलब है इनके यहां पट्टा कर देना । उन्होंने अब्दुल की बात पर हर पहलू से विचार किया ।

वे समझ गए। इससे किसी ने कहा है कि तकवी मेरा दोस्त है। वहां काम जल्दी होगा । और फिर मुसलमान मुसलमान की तरफ झुकता है । इस विचार से उन्हें कोफ्त होने लगी । उन्होंने सोचा वे खुद की केस कमजोर कर देंगे। पर इसमें उनकी बदनामी होगी । फिर वे मुस्करा उठे । क्या बदनामी होगी ? ऐसा कमजोर रखेंगे कि तकवी उल्टा फैसला देगा। उनपर क्या चोट आएगी। वह तो मुसलमान है ।

उन्होंने कहा—अब तो खर्चा बढ़ेगा अब्दुल । समझे ? मैं जितना गहरा जाता हूँ उतना ही मामला पेचीदा होता जाता है। तकवी से कुछ नहीं कहूँगा । सुन्दरभान से कह देता । केस मैं तकवी की कोर्ट में करवा दूंगा ।

वे यह झूठ बोलते तनिक भी न हिचके । सुन्दरभान उन्हें दूर रखते थे ।

परिणामस्वरूप कुछ रुपये अंटी में से फिर झड़ गये । हृदय फिर हलका हुआ । अब्दुल जब लौटा तो फिर उसके पांव जमीन पर पड़ने से इन्कार कर रहे थे, जैसे वह उड़ रहा था अब क्या है ? अगर तकवी भी उसकी मदद नही कर सकता, तो फिर खुदा भी नहीं कर सकता । मौलवी साहब कुछ भी हों, उन्हें मुकदमा करने का हक थोड़े ही है । रास्ते में देखा । सब बच्चे खेल में इधर-उधर भाग गये थे । एक घुटनों पर चलने वाला रह गया था । उसने रामदास के बच्चे को गोद में उठा लिया। धूल में सना हुआ बच्चा रो रहा था। उसने उसे पुचकार कर चुप किया और उससे बात करने लगा। उसका मन प्रसन्न हो रहा था । कैसा मजे का है । बड़ी-बड़ी आंखों से घूर रहा है ।

तभी रामदास ने पुकार कर कहा - "इसे तो रहने दो । दोस्ती करने को मैं काफी नहीं हूँ ?" वह सामने से आ रहा था। अब्दुल ने बच्चे को उतार दिया । बात लग गई थी ।

अब घरों के बीच की भीत और ठोस हो गई, अभेद्य हो गई। रामदास ने बच्चे की हिफाजत के लिये कुछ टोटका किया था। अब्दुल ने सुना तो उसका हृदय कसक उठा । मुझे इतना कमीना समझता है ? और प्रतिशोध के शोले भीतर-ही-भीतर भड़क उठे । बीबी से उसने दृढ़ता से कहा – “आज से रामदास हमारा बैरी है । समझती हो ?" स्त्री ने देखा । वह कुछ नहीं समझ सकी ।

कई दिन बीत गये ।

अब्दुल हार गया था । तकवी ने उसके खिलाफ फैसला सुनाया था । उसके सब-डिवीजन में कुछ हिन्दु-मुस्लिम तनातनी थी । सरकार ने उसपर कडी डांट लगाई थी । उसकी नौकरी का चक्कर था। वकील साहब दोस्त थे। उनके मुवक्किल होने में ही हानि थी और फिर मुसलमान होना तो गजब था। सब सुनकर मौलबी साहब -ने हंसकर कहा--"मैंने पहले कहा था कि वह हिन्दुओं से दबता है। वकील नरोत्तम बड़ा घाघ आदमी है । जब तुम कोरट बदलवाने गये, जरा न हिचका । वह जानता था कि तकवी पोच आदमी है। उससे हिन्दू का कभी नुकसान नहीं हो सकता ।” 

“लेकिन डिपटी तो अपना ही था ।" अब्दुल ने प्रतिवाद किया । "मुसलमान तो बेकार है, हिन्दू तो अलग है ही। फिर मैं करता भी क्या ? अपना तो कोई भी नहीं निकला ?"

मौलवी साहब सुनकर परास्त हुए । किन्तु हार कैसे जाते । कहा – “तू तो सीधा आदमी है अब्दुल । इस मामले में बड़े-बड़े चक्कर खा जाते हैं। अंग्रेजों के ये कानून तो ऐसे हैं कि अच्छा वकील हो, एक के चार मतलब निकाल ले । तू मेरी राय में एक काम कर । किसी मुसलमान वकील के पास जा। मुकदमे की जीत-हार की कुंजी डिप्टी नहीं, वकील है वकील । समझा ?

अब्दुल फिर विचार मग्न हो गया। मौलवी साहब का कहना ठीक है। पेशकार ने भी उससे अकेले में कहा था कि केस ही इतना कमजोर है तब तकवी क्या खाक कर लेगा ? और पेशकार से सुनी यह चार रुपये कीमत की बात उसके कानों में गूंज उठी ।

जब वह घर पहुँचा उसकी स्त्री चूल्हे पर खाना पका रही थी। वह बैठा-बैठा सोचता रहा । स्त्री घर की मालकिन थी। उसके क्षेत्र में अब्दुल को बोलने का कोई अधिकार नहीं था, इसीलिए वह उसके मामलों में अधिक दिलचस्पी नहीं लेती। अब्दुल की राय में औरत का दिमाग छोटा बनाया गया था। वह खा-पीकर लेट गया और अपनी चिन्ता में मग्न हो गया ।

दूसरे दिन वह फिर वकील साहब के यहाँ पहुँचा । उस समय उसके हृदय में एक विक्षोभ था । उसने तीखी दृष्टि से देखकर आँखें फिरा लीं जैसे उनसे उसे घृणा हो गई थी, जैसे वह किसी अद्भुत पशु के सामने खड़ा था जिसमें मनुष्यता के कोई भी लक्षण उसे दिखाई नहीं देते थे ।

वकील साहब मुकदमा हारे हुए की प्रवृत्ति को खूब जानते थे । अब्दुल को उन्होंने गमगीन देखा तो मुस्कराये । कहा- “क्यों ? मैंने कहा नहीं था ? सुन्दरभान के यहां मामला ठीक रहता, लेकिन तुम नहीं माने। मैं तभी समझ गया था कि किसी ने तुम्हें बहकाया ज़रूर है । वर्ना तुम मेरे पुराने मुवक्किल ठहरे। आजतक कभी मेरी बहस तुम हारे हो ? कभी नहीं । फिर अबकी क्या हुआ ?"

अब्दुल सिर झुकाये बैठा रहा ।

वकील साहब ने फिर कहा - "भाई, यह मामला तो उलझ गया है। अब तो तुम कब्जा ले लो। मैं दूसरा केस लडूंगा। समझ गये । कहो कि ज़मीन मेरी है। 

कई साल से मैं जोत रहा हूँ। अब किसी का हक कैसे चल सकता है। मुकदमा किया था, उसपर अपील चल सकती है। पहले जाकर दारोगा से मिलो | कुछ रुपया ज़रूर खर्च करना पड़ेगा। कब्जा सच्चा झगड़ा झूठ ।”

वह उठा । सीधे दारोगाजी के पास गया। थाने में उस वक्त भीड़ थी। कई आदमी पकड़े गये थे । कोई चोरी का मामला था । वह बैठकर इन्तजार करने लगा । वह मन-ही-मन प्रसन्न हुआ। दूसरों को फँसा देखकर उसे खुशी हुई, क्योंकि उससे उसका नुकसान नहीं था। कुछ देर बाद उसने देखा कि दारोगाजी अन्दर चले गये और वे आदमी भी एक-एक करके उनके पास बुलवा लिये गये ।

बाहर बैठा-बैठा वह ऊँध गया। गांव के थानेदार बादशाह आदमी थे । उनके सामने सिर उठाना कोई साधारण बात नहीं थी । अब शाम हो गई थी। कुछ देर बाद उसने देखा कि गाँव के लोग राम-राम करके चले गये । सब छूट गये थे । उसे दारोगा के खुले दिल पर विश्वास हुआ, एकान्त में अपनी कहानी सुनाई। दीन का महत्त्व समझाया पर काम मुफ्त नहीं हुआ । और वह भी सिर्फ कोशिश करेंगे

खाली होकर जब वह घर लौटा तो खटोले पर बैठकर पाँव फैला दिये । उसने एक लम्बी सांस छोड़ी और सिर से पगड़ी उतार कर धर दी। फिर अपनी कैंची फिरी खोपड़ी पर हाथ फेरा। और फिर उठकर खाट पर लेट गया, जिसपर से उसके पांव बाहर निकल रहे थे ।

बीबी सामने आ गयी । उसने मुस्करा कर कहा - "आज बड़ी देर कर दी । कहाँ गये थे ?"

स्त्री ने उसे घूर कर देखा । अब्दुल सहम उठा । तब स्त्री ने अपने दोनों हाथ सका पति हार गया था। अब वह इसीकी झेंप में बैठा है । अपना अधिकार दिखाने को जो उसने प्रश्न पूछा वह ठीक निशान पर बैठा । अब्दुल का  सिर झुक गया ।

उसकी पहले तो हिम्मत ही न पड़ी, किन्तु उसके बार-बार पूछने पर उसे लाचार होकर सब सुनाना पड़ा । वह चुपचाप उसकी ओर देखती रही । उसके चुप होते ही स्त्री का चातुर्य्य अब खुल पड़ा - " मैं कहती थी न कि पहले मेरी बात सुन लो अब हो गया ?"

उसका व्यंग सुनकर अब्दुल ने कहा - " तो मैं करता भी क्या ?"

स्त्री ने उसे घूर कर देखा । अब्दुल सहम उठा । तब स्त्री ने अपने दोनों हाथ चलाकर कहा - " वह सब बड़े लोगों के खेल हैं। वकील से कहो, डिपटी के यहाँ जा, चपरासी से कहो । वह डिपटी का भी बाप है । सीधे मुँह बोल नहीं कढ़ता । एक हैं थानेदार, वाह... वाह...” उसने मुँह बनाया, जिसको देखकर अब्दुल हँस दिया । उस स्त्री के मुँह पर दो झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। वह बकबक करती रही। ये लोग सब ऐसे ही हैं । अपना तो यही रामदास है । उसकी बहू से मैं कह देती । घर का मामला घर ही में सुधर जाता था। पर तुम क्यों मानने लगे। दो पैसे मिले बस चले कचहरी । कुछ और भी खयाल रहता है ? चले आये बड़े अकलमन्द । वकील को दे आया हूं जमाना कहेगा, इसके बड़े-बड़े साले हैं...." वह हंस दी ।

अब्दुल अधीर-सा देखता रहा । इसकी समझ में कुछ भी नहीं आया । औरत की अक्ल ही कितनी । यह क्या बक रही है ? वे सब और हैं। स्त्री ने फिर कहा- " उन्हें नहीं है हिन्दू-मुसलमान की जात। वे तो बेईमान हैं, बेईमान ।" अब्दुल चौंक उठा; लेकिन वह खुद तो मुसलमान है । उसने कहा —– वाह ! यहां शहर गांव, गांव-शहर का चक्कर लगाते टांगें टूट गईं और तू है कि अपनी रट लगाये जाती है । अरे आखिर इतने लोग हैं। वे कुछ भी नहीं समझते ? एक तू ही दुनिया में अकलमन्द बाकी है ।

स्त्री इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। उसने कहा – “ रहने दे । उसका काम कभी ठीक नहीं चलता ।”

अब्दुल ने हाथ उठाकर कहा – “ रहने दे । कल मैं किसी बिरादरी के वकील से राय लूंगा, फिर देखो क्या होता है....."

स्त्री ने चेतकर सिर झुका लिया ।

दूसरे दिन वह हामिद खां वकील के पास गया । हामिद खां अब पेशकारों की 'जयहिन्द' सुनकर मुवक्किलों से रिश्वत दिलवानेवाले आदमियों में थे। पहले मुस्लिम लीग थे, अब राज-भक्तों में थे, कांग्रेस वालों के पीछे-पीछे लगे डोलते थे । स्वयं उन्हें अपने ऊपर कभी-कभी आश्चर्य होने लगता था। इस समय वे पान चबाते हुए आराम कुर्सी पर बगल में रखा हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। कभी-कभी बढ़े हुए पेट पर हाथ फेर लेते ।

अब्दुल ने इधर-उधर की बातों के बाद अपनी बात कहना शुरू किया । हामिद खां ने चौंक कर पूछा – “क्या कहा ? सुन्दरभान की कोर्ट से मामला तुमने हटवाकर तकवी की कोर्ट में करवा दिया ?" 

अब्दुल ने कहा - " जी हां, बदलवा लिया। नरोत्तम वकील ने यही कहा था ।" उन्होंने काटकर कहा--"बड़े अजीब आदमी हो, तुमने निहायत गलती की । तुम्हें उसके सिवा कोई वकील नहीं मिला। मुसलमानों में से कोई नहीं ठीक जंचा तुम्हें ? वह बड़ा तास्सुबी हिन्दू है । उसीकी गड़बड़ी से सब कुछ बिगड़ गया । और तकवी से उसकी दांत काटी रोटी है। तकवी उनके जरिये खूब खाता है । डिप्टी सुन्दरभान ठीक थे । मुझसे क्यों न कहा ? मैं उनसे जो चाहे करा सकता हूं...." अब्दुल ने शंका की — “वह तो हिन्दू है... "

"हो" हामिद खां ने कहा- "मेरा दोस्त है । इन मामलों में वह फर्क नहीं करता ।"

और चार रुपये देकर जब वह लौटा उसका मन ग्लानि से फट रहा था । बीबी की बात सच थी। वे लोग वास्तव में और थे। उसका अपना तो वही रामदास था, और कोई नहीं ।

खेत पर रामदास को देखकर, उसने पुकार कर कहा – “राम-राम भैया ।” रामदास ने गर्व से देखा और व्यंग से हंसा । खाली जेब वाले अब्दुल ने उस अपमान को पी लिया। आज उसे लग रहा था कि जो सत्य उसने पहचान लिया है । रामदास अभी उससे बहुत दूर है। लेकिन जब यह घर पहुंचा उसने पत्नी से कहा -- " कल मैं रामदास पर अपील दायर करूंगा... । " 

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डा० नागेश उस दिन बड़ी उलझन में पड़ गये। वह सिविल अस्पताल के प्रसिद्ध सर्जन थे । कहते हैं कि उनका हाथ लगने पर रोगी की चीख-पुकार उसी प्रकार शान्त हो जाती थी जिस प्रकार मा को देखते ही शिशु का क्रन्दन बन्

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