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अध्याय 5: निंदिया लागी

13 अगस्त 2023

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कालेज से लौटते समय मैं अक्सर अपने नये बंगले को देखता हुआ घर आया करता । उन दिनों वह तैयार हो रहा था । एक ओवरसियर साहब रोजाना, सुबह-शाम, देख-रेख के लिए आ जाते थे । वे मझले भैया के सहपाठी मित्रों में से थे । लम्बा कद, गौर वर्ण, लम्बी नाक – खूबसूरत और मुख पर उल्लास का अभिनव आलोक । गम्भीर भी होते, तो प्रायः मालूम यही होता कि मुस्करा रहे हैं ।

नाम उनका बेनीमाधव था। और अवस्था उनकी अब पैंतालीस वर्ष से ऊपर जान पड़ती थी । मिस्त्री और मज़दूर, सब मिलकर, कोई पच्चीस-तीस व्यक्ति काम कर रहे थे । मज़दूरों में कुछ स्त्रियां भी थीं ।

एक दिन मैंने देखा छत कूटी जा रही है। कूटने वालों में स्त्रियां ही हैं, अधिकांश रूप से। दो पुरुष भी हैं, लेकिन वे ज़रा हटकर, एक कोने में हैं। स्त्रियां छत कूटती हुई एक गाना गा रही हैं। यों उनका गायन कुछ विशेष मधुर नहीं है, किन्तु अनेक सम्मिलित स्वरों के बीच में एक अत्यन्त कोमल स्वर भी है। तभी मैं उनके पास जाने को तत्पर हो गया । मुझे देखना था कि वह जो गाना गा रही है और जिसका कंठ इतना मधुर है, उसका रूप भी कुछ है या नहीं । मैं मानता हूं कि यह मेरी दुर्बलता थी, किन्तु उन दिनों मेरी समझ में यह बात कैसे आती ?

एकाएक पहले तो ओवरसियर साहब सामने आ गये। बोले – “आ गये छोटे भैया ।"

मैंने उनकी ओर देखकर जरा-सा मुस्करा दिया और कहा - " जान तो मुझे भी ऐसा ही पड़ता है ।"

हंसते हुए उन्होंने तब कहा – “लेकिन दरअसल आप आये नहीं। आप समझते हैं कि दुनिया की नजरों में जो आप यहां मौजूद हैं, इतने से ही मैं यह मान लूं कि आप पूरे सोलह आने भर आ गये हैं ? और जो कहीं आप अपना 'कुछ' छोड़ आये हो, तो  ?"

वे तब इतना कहते-कहते मेरे निकट — बिलकुल निकट आ गये। बोले – “जब मैं अपने इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ता था, तब मैं कैसा था, शान्ति जानिये, आपको देखकर जब मुझे उसकी याद आती है, तो जी मसोसने लगता है । तबीयत चाहती है कि अपने को क्या कर डालूं, जिससे कुछ शान्ति मिले । लेकिन फिर यही सोचकर सन्तोष कर लेता हूं कि मनुष्य की तृष्णा का अन्त नहीं है । न आकाश में, न महासागर के अतल में, न गिरि-गह्वर में – संसार में कहीं भी, कोई ऐसा स्थान नहीं मिल सकता, जहां पहुंचकर मनुष्य कामना से मुक्त हो सके ।”

बेनी बाबू के मुख पर अगमनीय गम्भीरता की छाप थी, यद्यपि अपने विमल हास में वे उसे छिपाना चाहते थे। मैंने कहा - " आप मेरे अध्ययन की चीज़ हैं, यह मुझे आज मालूम हुआ ।"

एक ओर चलते हुए वे बोले – “अभी आपको कुछ भी नहीं मालूम हुआ है।" किन्तु बेनी बाबू को इतनी सी बात से मेरे मन का कुतूहल अभी शांत नहीं हो पाया था, इसलिये मैं उनके पीछे चल दिया ।

घूमते, काम देखते हुए, एक मिस्त्री के पास जाकर वे खड़े हो गये। वह आर्च बनाने जा रहा था । बोले— “देखो जी मिस्त्री, पत्तियां और फूल बनाना ही काफी नहीं है । टहनी और उसमें उभड़े हुए कांटे भी दिखाने होते हैं। माना कि नकल नकल है, असल चीज़ वह कभी हो नहीं सकती, किन्तु असल चीज़ की जो असलियत है, गुण के साथ दुर्गुण भी, नकल में यदि उसको स्पष्ट न किया जा सका, तो वह नकल भी नकल नहीं हो सकती । बनाने में तुमको अगर दिक्कत हो, तो मैं नमूना दे जा सकता हूं, लेकिन मेरी तबीयत की चीज़ अगर तुम न बना सके, तो मैं कह नहीं सकता कि आगे चलकर तुम्हें उसका क्या फल भोगना पड़ेगा ।"

मिस्त्री वृद्ध था । उसके बाल पक गये थे। उसकी आंखों पर पुरानी चाल का चश्मा चढ़ा हुआ था । बड़े गौर से वह बेनी बाबू की ओर देखने लगा; लेकिन उसने कुछ कहा नहीं । तब बेनी बाबू वहां और अधिक ठहर न सके ।

अब वे आंगन में एक टब के पास खड़े थे। नल का पानी टब में गिर रहा था। मैं थोड़ा पीछे था। जब उनके निकट पहुंचा, तो वे बोले - " अपने इस मिस्त्री की आंखों को देखा ? वह कुछ कह नहीं सका था, लेकिन उसकी आंखों ने जो बात कह दी, मैं उसे सहन नहीं कर सका। वह समझता है, मैंने फल भोगने की बात कहके उसको चोट पहुंचाने, उसका अपमान करने की चेष्टा की है, किन्तु वह नहीं जानता, जान भी नहीं सकता, कि मेरी बात का कोई उत्तर न देकर उसने मुझपर कैसा भयंकर आघात किया है ? 

एक वह नहीं मालूम नहीं, कितने आदमी आपको ऐसे मिल सकते हैं, जो मुझे गलत समझते हैं। आज पन्द्रह वर्षों से, बल्कि और भी अधिक काल से, मुझे जहां कहीं भी मकान बनवाने का काम पड़ा है, मैंने उस मिस्त्री को अवश्य बुलाया है । मैंने काम के सम्बन्ध में कभी-कभी तो उसे इतना डांटा है कि वह रो दिया है, तो भी कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि उसने मुझे तीखा उत्तर दिया हो । उसका वही पुराना चश्मा है, वैसी ही भीतर तक प्रविष्ट हो जानेवाली आंखें । उसने कभी मज़दूरी मुझसे तय नहीं की। और कभी ऐसा अवसर नहीं आया, जब काम समाप्त हो जाने पर, मज़दूरी के अतिरिक्त, उसने दस-पन्द्रह रुपये पुरस्कार न प्राप्त किये हों; किन्तु इन सब बातों को अच्छी तरह समझते हुए भी डांटना तो पड़ता ही है, क्योंकि उससे कलाकार की सुप्त कल्पना को जागरण मिलता है ।

अब बेनी बाबू घूमते-फिरते वहीं जा पहुंचे, जहां स्त्रियां छत कूट रही थीं, उन्होंने एकाएक जो हैटधारी हम लोगों को देखा, तो उनका गाना बन्द हो गया । तब मेरे मन में आया कि इससे तो यही अच्छा था कि हम लोग यहां न आते । और कुछ नहीं, तो संगीत का वह मृदुल स्वर तो कानों में पड़ता । और वह संगीत भी कैसा ? एकदम असाधारण उसकी टेक तो कभी भूल ही नहीं सकती। जैसे नन्हीं वैसी ही भोली ।

" निंदिया लागी — मैं सोइ गई गुइयां ।"

बेनी बाबू ने खड़े-खड़े इधर-उधर देखा और कहा – “देखो इधर, इस तरह नहीं पीटना होता कि चोटों की आवाज़ का सिलसिला बिगड़ जाय। मुगरी की आवाज़ सारी की सारी एक बारगी एक साथ होनी चाहिए और देखो, आज इस छत की पिटाई का काम खतम हो जाना चाहिए ।"

रामलखन बोला – “सरकार, आज कैसे पूरा होगा ? दिन ही कितना रह गया है ?"

“बको मत रामलखन । काम नहीं पूरा होगा, तो पैसा भी पूरा न होगा। समझते हो न ? काम का ही दूसरा नाम पैसा है।"

रामलखन चुप रह गया ।

बेनी बाबू भी चल दिये । लेकिन चलने के साथ ही पिटाई की आवाज़, उसकी धमक, उसकी गति और चूड़ियों की खनक और 'निंदिया लागी' का स्वर अतिशय गम्भीर हो गया । 

मैंने बेनी बाबू से कहा - " आप काम लेना खूब जानते हैं।" वे हँसते-हँसते बोले—“मैं जानता बहुत कुछ हूं—भैया, लेकिन जानना ही काफी नहीं होता । ज्ञान से भी बढ़कर जो वस्तु है, उसको भी तो जानना होता है। और उसे मैं अभी तक जान नहीं सका ।"

मैंने पूछ लिया — "वह क्या ?"

वे बोले – 'सत्य का ग्रहण । "

मैंने कहा – “सिर्फ पहेली न कहिये, उसे समझाते भी चलिये । "

वे तब एक पेड़ के नीचे, सड़क पर ही एक ओर, कुर्सियां डलवाकर बैठ गये और बोले— “ये स्त्रियां, जो यहां मज़दूरी करने आई हैं, कितने सवेरे घर से चली हैं और कब पहुंचेंगीं । कोई अपने घर में बच्चों को छोड़ आई है, किसी का पति खेत में काम करने गया होगा। किसी के कोई होगा ही नहीं। और काम करते करते अगर इनको उनकी सुधि आ जाती है और काम की गति में क्षणिक मन्दता उत्पन्न हो ही उठती है, तो वह भी आज की हमारी इस सामाजिक व्यवस्था को सहन नहीं है। और तारीफ यह है कि हम समझ लेते हैं कि हम बड़े ज्ञानी हैं। हम यही देखकर सन्तोष कर लेते हैं कि जो स्त्री यहां पर मज़दूरी कर रही है, हमको सिर्फ उसी से मतलब है, उसी की मजदूरी हम दे रहे हैं, किन्तु हम यह सोचने की ज़रूरत ही नहीं समझते कि वह स्त्री अपने जगत को लेकर क्या है ? जो बच्चा उसने उत्पन्न किया है ? वह भी तो अपने पालन-पोषण का भार अपनी मां पर रखता है, पर हम लोग यहां तक सोचना ही नहीं चाहते। हमारे स्वार्थों ने सत्य को कितनी निरंकुशता के साथ दबा रखा है । "

बेनी बाबू चुप हो गये । एक ओर खुले अम्बर में, विहंगावलियां अपने पंखों को फैलाये नितान्त निर्बन्ध, हंसी-खुशी के साथ, उड़ी चली जा रही थीं। एक साथ हम दोनों उधर देखने लगे । किन्तु बराबर उधर देखने के बदले मैंने एक बार फिर बेनी बाबू को ही देखा । उनके मस्तक के ऊपर चंदोवा खुल आया था। उसमें नन्हें-नन्हें एक- आप बाल ही अवशिष्ट थे। वे अब सांध्य आलोक में चमक रहे थे। उनकी खुली आंखें यद्यपि चश्मे के भीतर थीं, तो भी मुझे प्रतीत हुआ, जैसे वे और भी फैल गई हैं। इसी क्षण वे बोले – “अब यह काम आगे न करूंगा। लेकिन.....।” उनको यह वाक्य अधूरा रह गया। जान पड़ा, वे कोई निश्चय कर रहे हैं और रुक-रुक जाते हैं। रुक इसलिये नहीं जाते कि रुकना चाहते हैं। रुक इसलिये जाते हैं कि रुकना नहीं चाहते ।

तभी वे फिर बोले— “तुम उस बात को अभी समझ नहीं सकोगे; लेकिन ऐसी बात नहीं है कि उस बात के समझने की तुम्हारी क्षमता कुन्द है । देखता हूं, तुम विचारशील हो और तभी मैं कहना भी चाहता हूं कि आदमी तो अपने विश्वासों को लेकर खड़ा है, लेकिन जो आदमी अपने विश्वासों को लेकर भी नहीं खड़ा होता, वह भी क्या आदमी है ? वह आदमी नहीं है, वह पशु है— पशु । लेकिन वैसे कहूं कि पशु भी अपने विश्वासों के विरुद्ध खड़ा हो सकने वाला प्राणी है। वह तो ... वह तो, बल्कि अपनी प्रवृत्तियों का ही स्वरूप होता है। और यह मनुष्य छिः, इससे भी अधम क्या कोई स्थिति है ?"

मैंने देखा, यह वातावरण तो अब अतिशय गम्भीर हो गया है। और उन दिनों इस तरह की निरी गम्भीरता मुझे ज़रा कम पसन्द आती थी, बल्कि साथी लोग जब ऐसे व्यक्तियों का मज़ाक उड़ाते, तो उस दल में मैं भी सम्मिलित हो जाया करता था । बात यह थी कि उस समय एक दूसरा दृष्टिकोण हम लोगों के सामने रहता था । हम सब यही मानते थे कि जीवन तो हँसी-खेल की चीज़ है सर्वथा अनिश्चित् और चरम अकल्पित जीवन के थोड़े से दिनों को रोना रोने या सोच-विचार में निपीड़ित - निर्जीव कर डालने में कौन सी महत्ता है ?

इसीलिये मैंने कह दिया- "इन लोगों के गानों में बीच का यह — हां, यह स्वर मुझे बड़ा कोमल लगता है । "

निमेषमात्र में, सम्यक बदल कर—

'जाओ नज़दीक से जाकर सुन आओ। हैट यहीं रख जाओ। फिर भी अगर वे गाना बन्द करे दें, तो कहना काम में हर्ज नहीं होना चाहिये, क्योंकि गाने के साथ छत कूटने का काम अधिक अच्छा होता है, ऐसा मैं सुनता आया हूं।' –बेनी बाबू मुस्कराते हुए कहा ।

मैं चला गया । चुपचाप बहुत धीरे-धीरे, पैर सम्हाल- सम्हाल कर । तो भी उनको मालूम हो ही गया। काम की गति में कुछ तीव्रता ज़रूर जान पड़ी, किन्तु गाना बन्द हो गया ।

मैंने कहा, "तुम लोगों ने गाना क्यों बन्द किया ?"

खिलखिल के कुछ मंदिर कलहास । कभी इधर- कभी उधर ।

किसीने अपनी सखी से कहा, उसे ज़रा सा धक्का देकर - "गा री पत्ती, चुप

क्यों हो गई ?"

" तू ही क्यों नहीं गाती ? छोटे भैया के सामने....."

“हूँ, बड़ी लाजवन्ती बनी है। जैसे दुलहे का मुंह ही न देखा हो ।”

मैंने कहना चाहा – 'लड़ो मत। मैं चला जाता हूं ।' लेकिन मैं कुछ कह न सका । चुपचाप चला आया । चला तो आया, किन्तु उस खिल-खिल और अपने सामने गाने से लजानेवाली उस पत्ती को मैंने फिर देखने की चेष्ट नहीं की । कैसे उल्लास के साथ आया था, किन्तु कैसा भीषण द्वन्द्व लेकर चल दिया । बेनी बाबू ने बड़े प्यार से पूछा - "कह जाओ"

मैंने कहा—“क्या कह जाऊँ ? वही बात हुई । उन लोगों ने गाना बन्द कर दिया ।"

" फिर तुमने यह बात नहीं कही ।"

" उसे मैं कह नहीं सका ।"

" तो यह कहो कि तुम खुद ही लजा गये ।"

मैं चुप रहा । जिसने कभी चोरी नहीं की, जो यह भी नहीं जानता कि चोरी कैसे की जाती है, वह चीज़ क्या है, यदि वह कभी उसके दलदल में पड़ जायगा, तो उससे सफाई के साथ निकल ही कैसे सकेगा ? वह तो निश्चयपूर्वक फंस जायगा । वही गति मेरी हुई। क्या मैं जानता था कि बेनी बाबू मुझे ऐसी जगह ले जायंगे, जहां पहुंचकर फिर मुक्ति का कोई मार्ग ही दृष्टिगत न होगा ?

बेनी बाबू बोले---“अच्छा, एक काम कर आओ। रामलखन से कहना कि अगर आज यह काम किसी तरह पूरा होता न दीख पड़े, तो कल ही पूरा कर डालना होगा । बेनी बाबू से मैंने कह दिया है कि मज़दूरों से उतना ही काम लिया जाय, जितना वे कर सकें ।"

मैं उनकी ओर देखता रह गया। मेरे मन में आया— यह आदमी है कि देवता ?

मुझे अवाक् देखकर उन्होंने पूछा – “सोचते क्या हो ?”

मैंने कहा – “कुछ नहीं । इतने दिन से आपका परिचय प्राप्त है, किन्तु कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि आपको इतने निकट से देख पाता । "

वे बोले – “यह सब कोई चीज़ नहीं है, छोटे भैया । न्याय और सत्य से हम कितनी दूर रहते हैं, शायद हम खुद नहीं जानते । अच्छा जाओ जो काम तुम्हें दिया गया है उसे पूरा कर आओ।

मैं फिर उसी छत पर जा पहुंचा, पर अब की बार मैंने देखा, गाना चल रहा है । लेकिन एक ही गाना तो दिन-भर चल नहीं सकता। तो भी मुझे उसी गाने के सुनने की इच्छा हो आई । साथ ही मैंने यह भी सोच लिया कि अभी कुछ समय पहले बेनी बाबू ने कहा था, मनुष्य की कामनाओं का अन्त नहीं है ।

मैंने जो रामलखन को बुलवाया, तो वह सिटपिटा गया। बोला- “छोटे सरकार क्या हुक्म है ?”

मैंने कहा- "बेनी बाबू क्या तुम लोगों से कुछ ज्यादा सख्ती से काम लेते हैं ?"

वह चुप ही बना रहा, सत्यकृष्ण कुछ भी नहीं कह सका । तब मैंने समझ लिया, डर के कारण वह उनके विरुद्ध कुछ कहना नहीं चाहता, इसीलिये चुप है, लेकिन जब मैंने कहा—“मैं उनसे कुछ कहूंगा नहीं। मैं तो सिर्फ असल बात जानना चाहता हूं। बिलकुल निडर होकर बतलाओ ।"

तब उसने कहा- "काम सख्ती से लेते हैं, तो मज़दूरी भी तो दो पैसा ज़्यादा और वक्त पर देते हैं। ऐसे मालिक मिलें तो मैं जिन्दगी भर उनकी गुलामी करूँ ।"

मैंने कहा – “तुम ठीक कहते हो । उन्होंने मुझसे कहला भेजा है कि अगर काम आज नहीं पूरा होता है, तो कल ही पूरा कर डालना । ज़्यादा तकलीफ उठाने की ज़रूरत नहीं है । "

रामलखन बोला- “पर छोटे भय्या, उन्होंने पहले ही बहुत सोच-समझकर हुकुम दिया था । काम अगर आज पूरा न होता तो कूटने के लिये चूना कल हम लोगों को इस हालत में न मिलता । वह सूख जाता । तब उसपर कुटाई ठीक तरह से कैसे होती ? इसके सिवा कल गुड़ियों का त्योहार है—छुट्टी का दिन है। मैंने पीछे जो सोचा, तो मुझे इन सब बातों का ख्याल आ गया । काम पूरा हो जायगा । बहुत कुछ तो हो भी गया है । थोड़ा सा ही बाकी रह गया है। वह भी शाम होते-होते पूरा हो जायगा । तकलीफ तो थोड़ी हुई किसी-किसी के हाथों में छाले पड़ गये, लेकिन यह बात उनसे जाकर न कहें सरकार, इतनी बात मेरी भी रख लें ।

रामलखन की बात मानकर सचमुच मैंने बेनी बाबू से यह नहीं कहा कि स्त्रियों के हाथों में छाले पड़ गये हैं ।

किन्तु उसी दिन, सायंकाल एक ओर जीने की दीवार गिर गई । छुट्टी हो गई । मज़दूर लोग इधर-उधर से आ-आकर जाने लगे थे कि अररर घम् का भीषण स्वर और एक क्षीण 'आह' ।

लोग दौड़ पड़े। लोग गिने भी गये। सब मिलाकर उन्नतीस आदमी आज काम पर थे, लेकिन हैं केवल सत्ताईस ।

" तो दो आदमी दब गये क्या ?"

"हां, यह हलका स्वर जो आ रहा है यह ! यह !

ईंटें उठाई जाने लगीं, तो एक स्त्री ने कहा— हाय हाय पत्ती है—पत्ती । तभी मैं सोच रही थी— वह दीख नहीं पड़ती, शायद आगे निकल गई। हाय यह तो चल बसी ।"

उससे कौन कहता कि हां, वह आगे निकल गईं ।

लेकिन एक क्षीण स्वर तब भी ध्वनित होता रहा ।

" अरे और उठाओ ईटों को। हां, इस खंजड़ को । अभी एक आदमी और भी तो है।"

एक साथ कई आदमियों ने मिलकर एक दीवार के टुकड़े को उठाया । वह ईंटों के ऊपर गिरा था और बीच में थोड़ी जगह शेष रह गई थी। उसी में मुड़ा हुआ अचेत मिला गिरधर ।

कुछ दिनों में गिरधर अच्छा हो गया । उसकी एक रीढ़ टूट गई थी; लेकिन उसका जीवन उसकी रीढ़ से अधिक बलिष्ठ था ।

उस बंगले को, फिर आगे, बेनी बाबू नहीं बनवा सके। कुछ दिनों तक काम बन्द रहा और फिर वे बीमार पड़ गये ।

मनुष्य का यह जीवन क्या इतना अस्थिर है ? क्या वह फूल के बल से भी अधिक मृदुल है ? क्या वह छुई-मुई है ? उन दिनों मैं यही सोचता रहा था। वे बीमार " थे, और उनकी बीमारी बढ़ती जाती थी । मैं देख रहा था, शायद बेनी बाबू तैयारी कर रहे हैं । लेकिन एक दिन मैंने उन्हें दूसरे रूप में देखा । मैंने देखा कि मृत्यु को उन्होंने मसल डाला है, पीस डाला है। वह छटपटा रही है। वह भाग जाना चाहती है वे एक पलंग पर लेटे हुए थे, बहुत धीरे-धीरे बातें कर रहे थे । उनके पास एक नौजवान बैठा हुआ था । वह मौन था, और बेनी बाबू उससे कुछ पूछ रहे थे। उसी क्षण मैं पहुंच गया। वे उठने को हुए, तो नौकर ने उन्हें उठा दिया और उनके पीछे तकिये लगा दिये । पहले आंखों पर चश्मा नहीं था, अब उन्होंने चश्मा चढ़ा लिया ।

संकेत पाकर मैं उनके पास ही कुरसी डालकर बैठ गया था ।

-

वे बोले – “सुनते हो मुल्लू, मैं तुमको रोने नहीं दूंगा। रोने दूं, तो मैं अपने को खो दूंगा। लेकिन मैं इतना सस्ता नहीं हूं। मैं मरना नहीं चाहता, इसीलिये मैं तुमको प्रसन्न देखना चाहता हूं । बतलाओ तुम किस तरह से प्रसन्न हो सकते हो ? मैं और साफ कर दूं ? मैं तुमको कुछ देना चाहता हूं । बोलो तुम कितने रुपये पाकर खुश हो सकते हो ? लेकिन तुम यह सोचने की भूल न करना कि ये रुपये तुम्हारी स्त्री की कीमत है । एक स्त्री — एक नवयुवती, एक सुन्दरी — को क्या रुपयों से तोला जा सकता है ? छिः यह तो एक मूर्खता की बात है— जंगलीपन की । लेकिन मैंने अभी तुमको बतलाया न, मैं तुमको खुश करना चाहता हूं ।"

ओह "एक नवयुवती - एक सुन्दरी । "

"तो क्या पत्ती सुन्दर थी ?"

" तो उसका कण्ठ ही कोमल न था, वरन्..'

बेनी बाबू बोले—“मैं जानता हूं कि तुम कुछ कहोगे नहीं ।"

"अच्छा, तो मैं ही कह देता हूं—उसके बच्चे की परवरिश के लिए, दस रुपये हर महीने मुझसे बराबर ले जाया करना। समझे। यह... लो दस रुपये । आज पहली तारीख है । हर महीने की पहली तारीख को ले जाया करना । "

जेब से नोट निकालकर उन्होंने मुल्लू के आगे फैंक दिया । मुल्लू तब कितना खुश था, इसको मैंने जाना । किन्तु बेनी बाबू ने जितना कुछ जाना, उसको मैं न जान सका ।

मुल्लू जब छलकते आनन्दाश्रुओं के साथ चल दिया, तो बेनी बाबू बोले—“मेरा ख्याल है, अब यह खुश रहेगा। क्यों ? तुम क्या सोचते हो ?”

मैं चकित था, प्रतिहत था, अभिभूत भी था, तो भी मैंने कह दिया- "आपने यह क्या किया ?"

"ओह तुम मुझ से पूछते हो, छोटे भय्या। यह क्या किया ? यह मैंने अपने को भुलाने के लिये किया है, क्योंकि मनुष्य अपने को भुलावे में रखने का अभ्यासी है। मैंने देखा - मैं एक भूल कर रहा हूं। मैं मृत्यु को बुला रहा हूं। तब मैंने सोचा -- मैं ऐसी भूल नहीं करूंगा, जिसमें अपने आपको भी मैं भुला सकूं। जीवन में एक ऐसा क्षण भी आता है जब हमको अपने-आपको भुलाना पड़ता है । यह मेरा ऐसा ही क्षण है । लेकिन यह मेरी भूल नहीं है । यह तो मेरा नवजीवन है जागरण ।”

यह कथा यहीं समाप्त हो गई है । किन्तु इस कथा के प्राण में जो अन्तर्कथा है, उसी की बात कहता हूं । उपर्युक्त घटना के पीछे कुछ वत्सर और जुड़ गये हैं । यह बंगला अब मुझे रहने के लिये दिया गया है। मैं अब अकेला ही इसमें रहता हूं । कई सहस्त्र पुस्तकों के महत्-ज्ञान से आवृत मैं - लोग कहते हैं--प्रोफेसर हूं। जीवन और जगत् का तत्त्वदर्शी । लेकिन मैं अपनी समस्या किससे कहूं—अपना अन्तर किसको खोलकर दिखाऊं । बच्चे सुनें तो हंसें और बीबी सुने तो कहे -- पागल हो गये हो ।

कभी-कभी रात को घोर सन्नाटे में स्वप्नाविष्ट सा मैं कुछ अस्पष्ट ध्वनियां सुनने लगता हूं | कोई खिलखिल हंस रही है। कोई धक्का देकर कह रही है—गा री पत्ती और चूड़ियां खनक उठती है, छत कुटने लगती है और एक कोमल, अत्यन्त कोमल गायन - स्वर फूट पड़ता है। - 'निंदिया लागी...'

और उसके हाथों में जो छाले पड़ गये हैं, वे वहां से उठकर मेरे हृदय से आकर चिपक गये हैं ।

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रचनाएँ
सप्तदशी
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सप्तदशी विष्णु प्रभाकर का एक उपन्यास है, जो 1947 में प्रकाशित हुआ था. यह उपन्यास भारत के विभाजन के दौरान एक परिवार के जीवन का वर्णन करता है. उपन्यास का मुख्य पात्र, जयदेव, एक युवा व्यक्ति है जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल है. जब भारत का विभाजन होता है, तो जयदेव का परिवार विभाजन के दो पक्षों में बंट जाता है| जयदेव अपने परिवार के साथ भारत में रहने का फैसला करता है, जबकि उसके भाई-बहन पाकिस्तान चले जाते हैं| उपन्यास जयदेव और उसके परिवार के जीवन में विभाजन के बाद आने वाले परिवर्तनों का वर्णन करता है| सप्तदशी एक महत्वपूर्ण उपन्यास है, क्योंकि यह भारत के विभाजन के दौरान एक परिवार के जीवन का यथार्थवादी चित्रण करता है| यह उपन्यास यह भी दिखाता है कि विभाजन ने भारतीय समाज को किस तरह से प्रभावित किया है|
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“यही हैं ?” आश्चर्य से इन्दु ने पूछा । "हां" उपेक्षा से गर्दन हिलाकर सुरेखा ने उत्तर दिया । " अरे !" इन्दु ने एक टुकड़ा समोसे का मुंह में रखते-रखते कहा – “अच्छा हुआ सुरेखा तुमने मुझे बता दिया, नही

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अध्याय 14: ज्योति

15 अगस्त 2023
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विधाता ने पदार्थ को बनाया, उसमें जड़ता की प्रतिष्ठा की और फिर विश्व में क्रीड़ा करने के लिए छोड़ दिया। पदार्थ ने पर्वत चिने और उखाड़ कर फेंक दिये, सरितायें गढ़ीं, उन्हें पानी से भरा और फूंक मार कर सुख

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अध्याय 15: चोरी !

15 अगस्त 2023
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 कमरे को साफ कर झाड़ू पर कूड़ा रखे जब बिन्दू कमरे से बाहर निकला तो बराण्डे में बैठी मालती का ध्यान उसकी ओर अनायास ही चला गया । उसने देखा कि एक हाथ में झाड़ू है; पर दूसरे हाथ की मुट्ठी बंधी है और कुछ

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अध्याय 16: जाति और पेशा

15 अगस्त 2023
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अब्दुल ने चिन्ता से सिर हिलाया । नहीं, यह पट्टी उसीकी है। वह रामदास को उसपर कभी भी कब्जा नहीं करने देगा । श्याम जब मरा था तब वह मुझसे कह गया था । रामदास तो उस वक्त नहीं था । उसका क्या हक है ? आया बड़ा

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अध्याय 17: आपरेशन

15 अगस्त 2023
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डा० नागेश उस दिन बड़ी उलझन में पड़ गये। वह सिविल अस्पताल के प्रसिद्ध सर्जन थे । कहते हैं कि उनका हाथ लगने पर रोगी की चीख-पुकार उसी प्रकार शान्त हो जाती थी जिस प्रकार मा को देखते ही शिशु का क्रन्दन बन्

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