न जाने क्यों बूढ़े मास्टर रामरतन को कुछ अजीब तरह की थकान - सी अनुभव हुई और सन्ध्या-प्रार्थना समाप्तकर वे खेतों के बीचोंबीच बने उस छोटे-से चबूतरे पर बिछी एक चटाई पर ही लेट रहे । सन् १६४७ के अगस्त मास की एक चांदनी रात अभी-अभी शुरू हुई थी । मास्टर साहब ने जब सन्ध्या - प्रार्थना शुरू की थी, तो आकाश पर छितराए बादलों में अभी गहरी लाली विद्यमान थी; परन्तु सन्ध्या समाप्त कर जब उन्होंने अपनी आंखे खोलीं, तो सब तरफ चांदनी व्याप्त हो चुकी थी और आकाश के एक भाग में छाए हल्के-हल्के बादल रुई के बंडलों की तरह सफेद दिखाई देने लगे थे । पिछले दिनों बहुत गरमी रही थी— मौसम की भी और दिमाग़ की भी । मास्टर साहब का यह कस्बा जैसे दुनिया के एक किनारे पर है। नज़दीक - से-नज़दीक का रेलवे स्टेशन वहां से ३० मील की दूरी पर है। फिर भी पिछले कितने ही दिनों से कितनी अमंगल पूर्ण खबरें दिन-रात सुनने में आ रही हैं। सुना जाता है, मुसलमान हिन्दुओं और सिक्खों के खून के प्यासे बन गए हैं। दुनिया तबाह हो रही है। घर- बार लूटे जा रहे हैं। सब तरफ मार-काट जारी है। मास्टर साहब के गांव में अभी तक अमन-चैन है, फिर भी वहां के वातावरण में एक गहरा आस स्पष्ट रूप से छाया हुआ है ।
चाँदनी रात की ठण्डी हवा और चारों तरफ गहरा सन्नाटा। मास्टर साहब को जैसे राहत -सी मिली । थके हुए दिमाग़ का बोझ उतर- सा गया। ऊँह, ये सब झूठी अफवाहें हैं ! कभी ऐसा भी हो सकता है ! भला, जब मैंने किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा तो किसीको कुत्ते ने काटा है कि वह मेरे खून तक का प्यासा बन जाय ! अपनी ज़िन्दगी के ६५ बरस मैंने यहां बिताए हैं। मेरे शागिदों की संख्या हज़ारों में है । हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान सभी को मैंने एक समान दिलचस्पी से पढ़ाया है । कोई एकाएक मेरा दुश्मन क्यों बन जायगा ? मगर यह पाकिस्तान ! मास्टर साहब की दिमाग़ी राहत को जैसे एकाएक ठोकर लग गई ! हूं, यह पाकिस्तान तो अब सिर पर ही आने वाला है ! मास्टर साहब के शरीर-भर में एक कंपकंपी-सी छूट गई ।
यह दूर पर क्या दिखाई दे रहा है ? मास्टर रामरतन सहसा चौंक पड़े। जिस तरफ उनका गांव है, उधर ही सुदूर क्षितिज पर बहुत बड़े पैमाने पर यह काला - काला क्या दिखाई दे रहा है ! ये बादल हर्गिज़ नहीं हैं; क्योंकि बादल नीचे से ऊपर को नहीं जाया करते ! मास्टर साहब की चाल और भी तेज़ हो गई। अब उन्हें सुदूर क्षितिज पर लाली भी दिखाई देने लगी। सुबह - सुबह पश्चिम में दिखाई देने वाली यह लाली स्पष्टतः किसी बहुत बड़े अमंगल की सूचक थी। बूढ़ा मास्टर अपने परमात्मा से प्रार्थना करने लगा; और चाहे जो कुछ हो, यह अग्निकांड उसके गांव में न हुआ हो । मगर यह तो स्पष्ट ही है कि उनका गांव जल रहा है। बूढ़े मास्टर ने अपनी ाकिस्तान बनेगा, तो यह सब कुछ बदल थोड़े ही जायगा । आखिर कोई बाहर के लोग तो आकर पाकिस्तान को नहीं बसायेंगे। पाकिस्तान एक दिन बनना ही था । चलो, वह हमारी ज़िन्दगी में ही बन गया ।
रात का सन्नाटा और भी गहरा हो गया और अपनी इस छोटी सी ज़मीदारी के इस अत्यन्त सुरक्षित भाग पर लेटे-लेटे मास्टर साहब को नींद आ गई। प्रभात की लाली आसमान पर दिखाई देने लगी ही थी कि मास्टर साहब की नींद टूट गई । सहसा उन्होंने पाया कि वातावरण अभी तक एकदम नीरव है। यहां तक कि चिड़ियों की चहचहाहट भी उन्हें सुनाई नहीं दी । मास्टर साहब उठ खड़े हुए और तेज़ी से गांव की ओर चले पड़े ।
एक खास तरह की मनहूसियत जैसे उन्हें चारों ओर फैली हुई दिखाई दे रही थी। राह में कितने ही मुसलमान किसानों के कच्चे कोठे हैं। उन कोठों के आसपास कितने ही बच्चों और औरतों को उन्होंने देखा । उनमें से अधिकांश से वे परिचित थे, परन्तु आज सभी उन्हें कुछ बदले हुए-से प्रतीत हो रहे थे । एक गहरी चुप्पी जैसे पुकार - पुकार कर उन्हें चेतावनी दे रही थी कि महाकाल की बेला सिर पर है । राह के किसानों के चेहरे ज़रूर गम्भीर थे, परन्तु मास्टर साहब से किसीने कुछ भी नहीं कहा । वे तेज़ी से अपने गांव की ओर बढ़ते गए।
यह दूर पर क्या दिखाई दे रहा है ? मास्टर रामरतन सहसा चौंक पड़े। जिस तरफ उनका गांव है, उधर ही सुदूर क्षितिज पर बहुत बड़े पैमाने पर यह काला - काला क्या दिखाई दे रहा है ! ये बादल हर्गिज़ नहीं हैं; क्योंकि बादल नीचे से ऊपर को नहीं जाया करते ! मास्टर साहब की चाल और भी तेज़ हो गई। अब उन्हें सुदूर क्षितिज पर लाली भी दिखाई देने लगी। सुबह - सुबह पश्चिम में दिखाई देने वाली यह लाली स्पष्टतः किसी बहुत बड़े अमंगल की सूचक थी। बूढ़ा मास्टर अपने परमात्मा से प्रार्थना करने लगा; और चाहे जो कुछ हो, यह अग्निकांड उसके गांव में न हुआ हो । मगर यह तो स्पष्ट ही है कि उनका गांव जल रहा है। बूढ़े मास्टर ने अपनीप्रार्थना की मांग और भी कम कर दी : चाहे उनका सारा गांव जलकर भस्म हो जाय, उनके गांव के सभी निवासी सही-सलामत बच जांय ।
मास्टर साहब अब दौड़ने लगे। बहुत जल्द वे पसीना-पसीना हो गए, पर उनकी दौड़ जारी रही। कुछ दूर पहुंचकर एक अत्यन्त त्रासदायक महानाद-सा भी उन्हें सुनाई देने लगा, जैसे सैंकड़ों नर-नारी एक साथ हाहाकार कर रहे हों ।
बूढ़े मास्टर ने अपनी प्रार्थना की मांग और भी कम कर दी : चाहे कितने ही लोग कत्ल भी क्यों न हो जायं, उनके गांव की किसी लड़की का अपमान न होने पाए ।
और तभी सहसा चिन्ता के एक बड़े तूफान ने उनके हृदय को एक सिरे से दूसरे सिरे तक झकझोर कर रख दिया। ओह, उनके परिवार की सब स्त्रियां और बच्चे गांव में ही थे ! और उनकी लाड़ली पोती निर्मला, जिसकी पन्द्रहवीं वर्षगांठ अभी ५ ही दिन हुए बीती है !
मास्टर साहब के हृदय की सम्पूर्ण सद्-अभिलाषाएं खुद-ब-खुद अपनी लाड़ली पोती निम्मो के चारों ओर केन्द्रित हो गईं ! ओ मेरे परमात्मा, ओ मेरे देवता, यह तेरी अपनी लज्जा का सवाल है ! मेरे निम्मो को तू अपने पास भले ही बुला ले, उसकी बेईज्ज़ती मत होने देना ।
पूरब दिशा में अग्नि का पुंज सूरज निकल आया । मास्टर साहब अब अपने गांव के काफी नज़दीक पहुंच गए थे। अब वे अकेले भी नहीं थे। उनके गांव के कितने ही हिन्दू और सिक्ख खेतों में छिपे या गांव की ओर से भागकर आते हुए उन्हें दिखाई दिए। मास्टर साहब पसीने से तर-बतर हो गए थे। राह की धूल उस पसीने से लगकर वहीं द्रवीभूत होने लगी थी। इस बहती मिट्टी से उनका मुंह, कपड़े और बाल बुरी तरह भर गए । फिर भी जिस किसी तरह वे दौड़ते चले गए और अपने गांव की सीमा में आ पहुंचे ।
मास्टर साहब ने आवाज़ दी - " नत्थूसिंह, मेरे घर का क्या हाल है ?"
सिर्फ इस नत्थूसिंह उनका पड़ोसी था । वह इतना उदास दिखाई दे रहा था, जैसे उसकी निर्जीव देह-मात्र चल-फिर रही हो । नत्थूसिंह ने मुंह से कुछ नहीं कहा, तरह सिर हिला दिया, जिससे उसकी असमर्थता प्रकट होती थी। मास्टर साहब ने कितने ही लोगों को पुकारा, पर जवाब कहीं से नहीं मिला। कुछ ही क्षणों के बाद मास्टर साहब अपने मोहल्ले के सामने विद्यमान थे। राह भर में कितनी लाशों को लांघकर मास्टर साहब इस जगह तक पहुंच पाए ।
बहुत मास्टर साहब का मोहल्ला पक्के मकानों का था। इससे आग वहां फैलने नहीं पाई थी । किनारे के कुछ मकान ज़रूर जल गये थे और अब उनमें से गहरा नीला - काला धुंआ उठ रहा था। पर मास्टर साहब का अपना मकान ज़रा भी नहीं जलने पाया था और न अब उधर आग बढ़ने का ख़तरा ही था। मास्टर साहब लपककर घर के सामने पहुंचे। गली भर में एक भी आदमी उन्हें दिखाई नहीं दिया । सब तरफ सन्नाटा था— मौत का गहरा सन्नाटा ! कुत्ता, बिल्ली या कोई भी ज़िन्दा प्राणी गली में नहीं था। आसमान में परिन्दे तक नहीं थे। सिर्फ दूर पर जल रहे मकानों की ज्वालाएं एक भयोत्पादक आवाज़ उत्पन्न कर रही थीं ।
क्षणभर को मास्टर साहब ठिठक गए। जो कुछ हो बीता है, उसका आभास उन्हें मिल गया था। फिर भी यह उम्मीद तो थी कि घर के लोग शायद बच गये हों । अगर यही उम्मीद कायम रह सकती तो ! क्षण-भर के बाद मास्टर साहब ने सहमे-सहमे से आवाज़ दी — 'निम्मो !'
कोई जवाब नहीं आया !
मास्टर साहब ने पुकारा— "निम्मो की दादी ! बेटा सत्ती; बेटा प्रकाश; बेटी सतवत्ती !”
कोई जवाब नहीं आया ।
मास्टर साहब धीरे-धीरे घर के भीतर प्रविष्ट हुए। घर के सब दरवाज़े चौपट खुले पड़े थे । अन्दर जैसे कोई झाडू-सा दे गया था । कहीं कोई चीज़ नहीं थी । गुंडे सभी कुछ उठा ले गए थे । भीतर जाते ही एक तरफ बैठक है। संब खाली । उसके बाद एक खुला सहन है। इस सहन के दाहिनी ओर दो कमरे हैं, जो सर्दियों में परिवार के सोने के काम आते हैं। दोनों कमरे एक दम खाली पड़े हैं। सहन की बाई ओर एक दरवाज़ा है, उसमें से होकर एक और छोटे सहन में जाना होता है, जहां घर के जानवर बांधे जाते हैं—एक बरामदा, एक कमरा जानवरों के लिए। इस वक्त सब खाली हैं। कमरे के पिछवाड़े में ज़रा-सी जगह खाली है, जिसके चारों ओर ऊँची दीवारें हैं। यहां मास्टर साहब की बूढ़ी घरवाली ने तुलसी, के कुछ घने झाड़ बो रखे हैं और उनके पास एक चबूतरे पर वे नियमित रूप से भगवान की पूजा करती हैं । धड़कते दिल से मास्टर साहब इस झाड़ तक आ पहुंचे ।
ओह, मेरे भगवान् ! यह सब क्या सच है ! तुलसी के उस झाड़ के नीचे नन्हें सत्ती और नन्हें प्रकाश के क्षत-विक्षत निष्प्राण देह पड़े हैं, मानो अनजान शिशु डरकर मां तुलसी की गोद में आसरा पाने आए हों । उधर चबूतरे पर मां-बेटी -- मास्टर साहब की जीवन-संगिनी अपनी बड़ी लड़की से चिपककर पड़ रही हैं निष्प्राण, निस्पन्द !
साहब क्षणभर के लिए मास्टर साहब को प्रतीत हुआ, जैसे वे स्वयं निष्प्राण हो गये हैं; उनके हृदय की सम्पूर्ण अनुभूति सन्न होकर एकदम निष्क्रिय बन गई है। परन्तु अभी तो मास्टर साहब ने सभी कुछ नहीं देखा ! उनकी लाड़ली निम्मो कहां है ? बूढ़े मास्टर की बेहोश होती हुई चेतना खुद-ब-खुद लौट आई ! वे अत्यन्त करुण स्वर में चीख उठे— 'निम्मो, निम्मो, निम्मो !'
कहीं से कोई जवाब नहीं मिला ।
X X X X
उसके बाद घण्टों की मेहनत से मास्टर रामरतन रात के महाप्रलय के सम्बन्ध में जो कुछ जान पाए, उसका सार इतना ही था कि चांद डूबने से घण्टाभर पहले मुसलमानों की एक बहुत बड़ी संख्या ने गांव के उस भाग पर हमला कर दिया, जिसमें हिन्दू और सिक्ख रहते थे। यह हमला इतना अचानक और इतने ज़ोर से हुआ कि उसका मुकाबला किया ही नहीं जा सका। आक्रमणकारी लोगों में बहुत बड़ी संख्या आस-पास के तथा दूर से आए मुसलमान किसानों की थी; परन्तु यह कह सकना कठिन है कि गांव के मुसलमान भी उसमें शामिल थे या नहीं । भयंकर मार-काट और लूट-मार के बाद गुण्डे लोग गाड़ियों में भरकर लूटा हुआ माल अपने साथ ले गए हैं । गांव की बीसों जवान लड़कियों को भी वे अपने साथ लेते गये हैं। वे लोग ही बच पाए, जो रात के वक्त घरों से भागकर खेतों में जा छिपे या दूर भाग गये । वे सब लोग अब एक जगह इकट्ठे कर लिए गये हैं और उन्हें नये हिन्दुस्तान में भेजने का इन्तज़ाम किया जा रहा है। मास्टर साहब के एक पड़ोसी ने इतना ही बताया कि जब वह उनके घर के सामने से होकर भागा जा रहा था, तो घर के भीतर से भयंकर हाहाकार सुनाई दे रहा था । निम्मो के सम्बन्ध में सभी का यह ख्याल था कि गुण्डे ज़रूर उसे अपने साथ उठा ले गये हैं ।
बूढ़े मास्टर की परेशानी की सीमा न रही । जन्मभर के उस अत्यन्त ईश्वर-परायण वृद्ध की अन्तरात्मा ने अपने उस अज्ञात आराध्यदेव से पूछा- 'मेरे किस अपराध की सज़ा इस छोटी सी, मासूम सी बच्ची को मिली है, ओ मेरे देवता ?"
अपनी जीवन संगिनी, बड़ी विधवा पुत्री और दोनों पोतों को एक साथ खोकर बूढ़े मास्टर के लिये जिन्दगी में क्या दिलचस्पी बाकी रह सकती थी ? अच्छा होता कि वे भी साथ ही मर जाते। पर मास्टर अब यह बात सोच भी नहीं सकते थे। उनकी लाड़ली पोती निम्मो ज़िन्दा है और वह गुण्डों के हाथ में है ।
अपना जीवन- ध्येय चुनने में मास्टर साहब को सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ी। वह तो जैसे आसमान पर लिखा हुआ-सा उनके सामने आ गया। बूढ़े मास्टर ने निश्चय किया कि वे जिस किसी तरह निम्मो की तलाश करेंगे, किसी-न-किसी तरह उसके पास पहुंच जायेंगे और — ? साफ था कि बूढ़ा उसे बचा नहीं सकेगा तब ? निम्मो के पास पहुंचकर बूढ़ा दादा अपने हाथों अपनी पोती की हत्या करेगा और उसके बाद खुद भी मर जायगा ।
सांझ तक गांव के भले मुसलमानों की मेहनत से वे सब हिन्दू और सिक्ख एक धर्मशाला में एकत्र कर दिए गए, जो प्रभात के महाप्रलय से बाकी बच रहे थे । थाने से दो बार सिपाही भी उनकी देखभाल के लिए आ पहुंचे और उन्हें ज़िले की ओर ले जाने का प्रबन्ध किया जाने लगा । परन्तु मास्टर रामरतन इन लोगों में नहीं थे । न-जाने वे किस वक्त चुपचाप गांव से खिसक गए ।
गांव छोड़ने के तीन दिनों के भीतर ही मास्टर रामरतन का जैसे कायाकल्प हो गया। मुंह की झुर्रियां और भी गहरी हो गईं, आंखें एक तरह से गढ़े में चली गई और उनके नीचे कालिमा-सी पुत गई। ये तीन डरावने दिन उनकी ६५ साल की ज़िन्दगी पर जैसे पूरी तरह छा गए। मास्टर साहब का चेहरा इतना ग़मगीन और इतना गम्भीर दिखाई देने लगा, जैसे वे अपनी सारी ज़िन्दगी में कभी न हंसे हों और न मुस्कराए ही हों ।
किसी अपरिचित के लिए यह पहचान सकना अब आसान नहीं था कि मास्टर साहब हिन्दू हैं या मुसलमान । बेतरतीबी से बढ़े हुए और बेपरवाही से बिखरे उनके धूलिधूसरित बालों ने उनकी आकृति पर फ़कीरी की छाया डाल दी थी ---एक फ़कीर, जो न हिन्दू होता है और न मुसलमान । वह फकीर बन ही तभी सकता है, जब वह इस दुई को, इस भेद-भाव को एकदम भूल जाय ।
आसपास की कितनी ही बस्तियों और गांवों की ख़ाक छानते छानते मास्टर साहब को यह मालूम हो गया कि उनके गांव पर आक्रमण करनेवालों का मुखिया एक पूरे गांव का ज़मींदार गुलामरसूल था । और यह भी कि वह कितनी ही हिन्दू-लड़कियों को अपने साथ घर ले गया है।
राह की एक सुनसान पगडंडी पर चलते-चलते सहसा बूढ़े मास्टर को अनुभूति हुई कि वे अपने लक्ष्य के बहुत नज़दीक आ पहुंचे हैं। इस अनुभूति के साथ-ही-साथ उनका हाथ जैसे खुद-ब-खुद जेब में पहुंच गया, जहां एक चाकू संभाल कर रखा गया था । बूढ़े मास्टर ने चारों ओर एक खोजती निगाह डाली और जब दूर तक उन्हें और कोई मानव आकृति नहीं दिखाई दी, तो कांपते हाथों से उन्होंने वह चाकू जेब से बाहर निकाल लिया । चलते-चलते बाएं हाथ में चाकू पकड़कर दाहिने हाथ से उसे खेला और बिना रुके ही दाहिने हाथ की तर्जनी उंगली से उसकी धार को परीक्षा की। बूढ़े का हाथ बुरी तरह से कांप रहा था। इससे उंगली की मोटी चमड़ी ज़रा-सी कट गई और उसपर खून चमक आया। चार दिनों में पहली बार मास्टर को उत्साह की अनुभूति हुई । एक अजीब तरह की उत्तेजना उनके थके हुए मन पर छा गई । हां, मैं अपना काम बखूबी कर सकूंगा। इस तेज़ चाकू से एक हत्या और उसके बाद आत्महत्या ! चाकू बन्द करके उन्होंने जेब में डाल लिया और डगमगाते पैरों की गति स्वयमेव तेज़ हो गई।
गुलामरसूल का घर तलाश करने में मास्टर साहब को देर नहीं लगी । कुल मिलाकर २५-३० मकान थे और उनमें सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा मकान ज़मींदार का था । उन्होंने मकान के दरवाज़े पर दस्तक दी। क्षण-भर में मकान के सहन का दरवाज़ा खुल गया और एक बच्चे ने आकर पूछा- 'क्या चाहिए ?"
मास्टर साहब सहसा चौंक गए। बच्चे की उमर उनके चार साल सत्ती से अधिक नहीं थी । तो अभी तक दुनिया में मासूम बच्चे मौजूद हैं ! इस महान् हत्यारे के घर उनका स्वागत एक बच्चा करेगा, इसकी उम्मीद उन्हें कदापि नहीं थी । मास्टर साहब के झिझक - भरे मौन पर वह बच्चा चकित होनेवाला ही था कि उन्होंने कहा- 'मियां गुलामरसूल घर पर हैं ?"
'कौन, अब्बा ?' 'हां, तुम्हारे अब्बा ।’
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इसी वक्त भीतर से एक नारी - कण्ठ सुनाई दिया— कौन आया है, बेटा हमीद ?" बच्चे ने जवाब दिया- 'कोई फकीर है, अम्मी ! अब्बा को पूछता है ।' बड़े दरवाज़े के दाहिनी ओर घर की बैठक थी। क्षण भर बाद बैठक का दरवाज़ा खुल गया और बड़ी उम्र के एक अन्य लड़के ने मास्टर साहब से भीतर चलने को कहा । बैठक में कुछ मोढ़े रखे थे। एक तरफ एक पलंग पड़ा हुआ था। मास्टर साहब चुपचाप एक मोढ़े पर जा बैठे ।
वह लड़का बड़ी हैरानी से मास्टर साहब की ओर देख रहा था। उनके बैठ जाने पर उसने पूछा—'चचा से क्या कह दूं ? वे साथ के मकान में गए हैं। मैं अभी जाकर उन्हें बुला लाता हूं ।'
मास्टर साहब इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे। फिर भी उनके दिमाग़ ने उन्हें धोखा नहीं दिया । मास्टर साहब आज सुबह नूरपूर से इस गांव की ओर चले थे । उन्होंने कह दिया—'चचा से कहना नूरपुर से पैग़ाम आया है।'
लड़का चला गया और मास्टर साहब को जैसे ज़रा सोच सकने की फुरसत मिली । यहां तक तो सब ठीक ! अब आगे क्या होगा ? गुलामरसूल अभी आता होगा । परन्तु वे अपनी निम्मो को उससे मांग किस तरह सकेंगे ? कोई बहाना तलाश करने से शायद काम बन जाय । यह तो साफ़ ही है कि सब लोग उन्हें मुसलमान समझने लगे हैं । क्यों न वे इसी बात का फायद उठावें। वे कह सकते हैं कि नूरपुर का जमींदार कुछ लड़कियां चाहता है और वह उनके लिए अच्छी कीमत भी देने को तैयार है । इसी बहाने से वे सब लड़कियों को देखने की इच्छा प्रकट कर सकते हैं। और जहां तक भेद खुलने का सवाल है, उन्हें उसकी चिन्ता ही क्या है। आखिर वे तो अपनी जान देने ही यहां आए हैं। अगर उनकी चाल असफल हो गई, तो वे गुलामरसूल पर तेज़ चाकू से हमला तो कर ही सकते हैं। जो कुछ हो जाय, इसका निश्चय उन्होंने अनायास ही कर लिया ।
और यह निश्चय कर लेने के साथ-ही-साथ उन्हें ध्यान आया कि उनका अन्त समय सिर पर है । कुछ ही क्षणों के भीतर वे अपने परिवार से जा मिलेंगे, अपने भगवान के चरणों में जा पहुंचेंगे। मास्टर साहब मन-ही-मन राम नाम का जाप करने लगे ।
और सहसा एक अत्यन्त अप्रत्याशित घटना घटित हो गई। जो छोटा बच्चा पहले-पहल मास्टर साहब का स्वागत करने दरवाज़े पर उपस्थित हुआ था, उसी हमीद का हाथ पकड़ कर सहसा निम्मो बैठक के दरवाज़े पर आ उपस्थित हुई। बूढ़ा मास्टर सहसा चीख उठा—निम्मो !
'दरवाज़े पर ही से निम्मो चिल्लाई – 'दद्दा ।'
जैसे और उसी क्षण बूढ़े रामरतन ने अपनी १५ बरस की पोती को गोद में उठा लिया । न जाने इतनी शक्ति बूढ़े मास्टर में कहां से आ गई ! भावों का पहला तूफान निकल जाने के बाद भी मास्टर को यह समझ में नहीं आया कि वे इस हालत में क्या करें ! जेब में मौजूद तेज़ चाकू की उपस्थिति का ज्ञान उन्हें अब भी था; परन्तु चाहते हुए भी वे 'चाकू निकाल नहीं पाए। बूढ़े के आश्चर्य की सीमा न रही, जब उन्होंने पाया कि जैसे बच्चा हमीद निम्मो का साथ ही नहीं छोड़ना चाहता। मास्टर साहब के प्रेम का यह उफान देखकर वह सहम सा गया है और तब भी उसका दाहिना हाथ निम्मो के बाँए हाथ को पकड़े हुए है 1
मास्टर साहब अभी तक सकते की-सी हालत में थे कि सहसा गली में शोर मच गया--'काफिर, काफ़िर !' मास्टर साहब अभी तक अपनी जेब से चाकू निकाल तक नहीं पाए थे कि दो जवान मुसलमानों ने उन्हें जकड़कर पकड़ लिया । घर की एक बूढ़ी औरत ने घर में काफिर की मौजूदगी की सूचना बहुत शीघ्र मोहल्ले - भर को दे थी ।
और उसी वक्त गालियां बकते हुए गुलामरसूल ने अपनी बैठक में प्रवेश किया । मुमकिन था कि अपने नये कैदी को देखते ही गुलामरसूल उसे मारना पीटना शुरू कर देता; परन्तु कमरे में मौजूद सभी लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब बूढ़े मास्टर पर निगाह पड़ते ही वह जैसे अचम्भे में भरकर चिल्ला उठा -- 'ओ, मास्टर साहब !'
जिन दो नौजवानों ने मास्टर को पकड़ रखा था, उनकी जकड़ एकाएक कम हो गई । गुलामरसूल क्षण-भर के अन्तर से फिर चिल्लाया— 'ओ, मास्टर साहब ! आप यहां कैसे ?"
और बूढ़ा मास्टर, जो इस अप्रत्याशित घटनाचक्र के प्रवाह में एकदम मूक और एकदम संज्ञाहीन - सा बन गया था, सहसा फफकर रो उठा। दोनों जवानों ने मास्टर को अपनी पकड़ से मुक्त कर दिया और निम्मो अपने दादा से जा चिपकी ।
गुलामरसूल ने बूढ़े मास्टर को सान्त्वना देने का प्रयत्न किया । उसने कहा--'मास्टर साहब बचपन में जब हम रोया करते थे, तो आप हमें चुप कराया करते थे और आज...' कहते-कहते सहसा गुलामरसूल चुप हो गया । न जाने किस शक्ति ने उसे यह अनुभूति प्रदान कर दी कि उसे यह सब कहने का अधिकार नहीं रहा ।
बात बदलने की गरज़ से गुलामरसूल ने कहा- 'यह लड़की आप की क्या लगती है, मास्टर साहब ?"
बूढ़े मास्टर ने सिसकते हुए कहा- 'यह मेरी पोती है । '
गुलामरसूल ने कहा – 'तभी !' और वह चुप हो रहा ।
बूढ़ा मास्टर निम्मो को छाती से लगाकर अब भी धीरे-धीरे सिसक रहा था । उसने कोई सवाल नहीं किया। क्षण-भर बाद गुलामरसूल ने खुद ही कहा- 'शायद तभी चार ही दिनों में हमीद इसे अपनी सगी बहन समझने लगा है' और तब आसमान की ओर ताककर उसने कहा- 'खुदा का शुक्र है ।'
मानवीय सहानुभूति का हल्का-सा आसरा पाकर बूढ़े मास्टर के हृदय की सम्पूर्ण व्यथा आंखों की राह बह चली, जैसे गरमी पाकर बर्फ पिघलती है ।
कुछ क्षणों तक गुलामरसूल चुपचाप मास्टर साहब की ओर देखता रहा और उसके बाद धीरे-धीरे आगे बढ़कर उसने बूढ़े मास्टर को अपनी छाती से लगा लिया । मास्टर साहब ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। गुलामरसूल ने बहुत धीमे शब्दों में कहा- 'धीरज से काम लो, मास्टर साहब ! तुम्हें अब कोई भय नहीं है ! निम्मो के साथ मेरी हिफाज़त में तुम चाहे जहां चले जा सकोगे ।'