अलियार जब मरा तो दो पुत्र, छोटा-सा घर और थोड़ी-सी ज़मीन छोड़कर मरा । दसवें के दिन दोनों भाई क्रिया-कर्म समाप्त करके सिर मुंडाकर आये, तो आने के साथ ही बटवारे का प्रश्न छिड़ गया, और इस समस्या के समाधान के लिए इतने ज़ोरों से लाठियां चलीं कि दोनों भाइयों के मुंडित मुंड फूट गए ।
दोनों भाइयों ने इस प्रकार एक-दूसरे का सिर फोड़कर अपना-अपना अपमान मान लिया । बड़े भाई 'मुसाफिर' की धारणा थी कि छोटे भाई ने सिर फोड़कर मेरा बड़ा भारी अपमान किया है। छोटे भाई 'जगन' की भी यही शिकायत थी कि बड़के भइया ने बड़ी मज़बूत लाठी से मेरा अपमान किया है । दोनों ने प्रतिज्ञा की कि इस अपमान का बदला नहीं लिया, तो मेरा नाम नहीं ।
किन्तु अपमान के प्रतिशोध के लिए मुकद्दमा लड़ने को किसी के पास पैसे नहीं थे । केवल लाठियों का भरोसा था; लेकिन इसका मौका नहीं था । दोनों ही सतर्क रहते थे, खैर किसी प्रकार दोनों भाई अपने उसी घर में, एक म्यान में दो तलवारों की तरह रहने लगे; लेकिन एक म्यान में दो तलवार के रहने से तलवारों का उतना नुकसान नहीं होता, जितना कि बेचारे म्यान का। दोनों का क्रोध अपने घर ही पर उतरता था । मुसाफिरराम को ज़रूरत हुई, तो छोटे भाई के लगाए हुए कुम्हड़े और करेले की लताओं को तहस-नहस करके अपनी गौशाला बना ली । इधर जगन ने आवश्यक समझते ही बड़े भाई के भण्डार-घर को तोड़कर दरवाजे के साथ मिला दिया । घर तोड़ने की खबर सुनते ही मुसाफिरराम अपने भाई का सिर तोड़ने के लिए तैयार हो गये; किन्तु गांव वालों ने बीच-बचाव करके झगड़ा शान्त कर दिया ।
यह लड़ाई केवल पुरुषों तक ही थी, यह बात नहीं है। स्त्रियों में भी ऐसा घमासान युद्ध होता था जिसका ठिकाना नहीं ।
हाथ चमकाकर माथा मटकाकर, नथ हिलाकर ऐसी-ऐसी गालियों की बौछार की जाती थी, जिसक अमृतरस लूटने के लिए गांव की सारी महिलाएं एकत्र हो जाती थीं। मुनिया को आदमी का मांस खाना अभीष्ठ नहीं था, फिर भी बड़ी तेज़ी से निनाद करके रधिया को धमकी देती थी— "तेरा भतार खा जाऊंगी !” रधिया भला अपनी चीज़ कैसे दे सकती थी ? चट से कहती - "मेरा भतार क्यों खायगी; तेरा मुस्टंडा तो अभी तक जीता ही है, उसी को चबा !" इसी प्रकार दोनों देवरानी-जेठानी साहित्य के नवरसों से भिन्न गाली - रस की सृष्टि किया करती थीं ।
यह लड़ाई-झगड़ा, गाली गलौच एक-दो दिन रहता, तब तो ठीक; यहां तो महीने की लम्बी डग मारता हुआ साल चला गया। घर और बाहर के सभी इस झगड़े से ऊब उठे । गांववालों ने कहा- भाई, तुम लोग आपस में क्यों इतना झगड़ा करते हो ? अपनी-अपनी चीजें बराबर बांट लो, बस झगड़ा खतम हो गया ।
दोनों ने सकार लिया, बात ठीक ।
आख़िर एक दिन गांववालों की पंचायत जमा हुई । दुखहरण पाण्डे ने, तम्बाकू फांकते हुए फैसला सुना दिया, और तब आंगन के बीच में दीवार खींच दी गई। घर की कोठरियों को गिन गिनकर अलग किया गया। हल, बैल, खेत, बारी सब कुछ अलग-अलग हो गये। अब कोई भाई किसी से बोलना भी पसन्द नहीं करता था। एक दूसरे को देखते ही घृणा से मुंह फेर लेता था ।
(२)
उपर्युक्त घटना को दो वर्ष बीत गये ।
बिल्ली की तरह घर-घर घूमनेवाली पद्मिनी काकी एक दिन मुसाफिर के घर जाकर बोली - "मुंह मीठा कराओ तो एक बात कहूं !"
रधिया ने उत्सुकता से पूछा - "कौन बात है काकी, कहो न ?"
"तुम्हारा भतीजा होनेवाला है !"
रधिया का चेहरा घृणा से सिकुड़ गया। क्रोध से जल उठी। मुंह बिचकाकर बोली - "अय नौज, चूल्हे - भनसार में पड़े भतीजा, और देवी मइया के खप्पर में जायं हमारे देवर-देवरानी । इनको बेटी-बेटा हो, इससे हमको क्या और नहीं हो, इससे क्या । अगर इन लोगों का बस चले, तो हम लोगों को न जाने कब फाँसी लटका दें । ये लोग जैसे अपने हैं, उससे ग़ैर ही कहीं अच्छे ।"
इस प्रकार रधिया ने भली-भांति साबित कर दिया कि इससे मुझे तनिक भी खुशी नहीं और पद्मिनी काकी का मुंह मीठा खाने लायक नहीं है ।
यह बात बड़े विस्तार - पूर्वक मुनिया के निकट पहुंची । रधिया जलती है, यह सुनते ही उसे एक ईर्ष्यामय आनन्द हुआ । बोली- 'अभी से उस कलमुंही के कपार में आग लग गई, तब तो लड़का होने से वह छाती फाड़कर मर जायगी ! "
जगन घर में आया, तो उसे भी यही समाचार सुनना पड़ा। सुनकर उसे हर्ष नहीं हुआ। घृणा से जी छोटा हो गया। अपने भाई- भौजाई होकर भी ये लोग कितने नीच हैं ! बोला—वे लोग तो जनम के जलन्त, उनकी बात को लेकर कहां तक क्या किया जाय ?
उन दिनों पद्मिनी काकी प्रतिदिन एक नई सनसनीदार घटना की खबर लेकर मुनिया के निकट उपस्थित होती थी। आज रधिया देवी मैया के मन्दिर में धरना देने गई. हैं, कि तुम्हारे पेट का लड़का नष्ट हो जाय । आज एक ओझा बुलाया गया है। बड़ा नामी ओझा है। उसके मन्तर का मारा हुआ पानी भी नहीं पीता । भगवान् जाने क्या होगा । रोज इसी प्रकार नई घटनाओं का उल्लेख करके वह मुनिया से कुछ-न-कुछ जोग - टोटके लिए झटक लेती थी ।
किसी प्रकार इन मारन-मोहन- उच्चाटन वशीकरण से घोर युद्ध करता हुआ, कई महीनों का सुदीर्घ समय व्यतीत हो गया । आज मुनिया को लड़का होने वाला है उसकी वर्षों की मुराद पूरी होगी। खाली गोद भर जायगी। जगन के इष्ट मित्र भी चहक रहे थे- भाई ! भर पेट खिलाना पड़ेगा, यहां पौने तीन सेर से छटांक भर भी कम नहीं खाते । जगन प्रसन्नता - पुलकित होकर उत्तर देता- अरे इतना खिलाऊंगा कि खाते-खाते पेट फट जायगा । भीतर गांव की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियां बच्चे की सेवा-सुश्रूषा कर रही थीं । अन्य महिलाएं स्वयंसेविकाओं की तरह दूसरे दूसरे कार्य में व्यस्त थीं, किन्तु न मुसाफिर का पता और न रधिया का । बाहर एक आदमी ने जगन से कहा--इस समय तुम्हें सब बैर भूलकर अपने भाई को था । जगन ने उत्तर दिया – “बुलाया भाई, पचासों दफे आदमी भेजा, खुद गया, जब बुलाना चाहिये आते ही नहीं तो क्या करूं ?"
भीतर की औरतें आपस में कह रही थीं, ऐसे समय में सब आदमी लाग-डाट भूल जाते हैं । भाई-भौजाई होकर भी वे लोग नहीं आए ।
इस समय भी मुनिया कहने से न चूकी— चूल्हें में जांय वे लोग, नहीं आए यही अच्छा हुआ ।
उस समय रधिया अपने घर में चिन्ता से चूर बैठी थी । ईर्ष्या से उसका कलेजा जल रहा था । बार-बार भगवान् को दोष दे रही थी, उसे क्यों लड़का हो रहा है, मुझे क्यों नहीं हुआ ?
मुसाफिर को तो ऐसा मालूम होता था, जैसे उसका सर्वस्व लुट गया । अगर कहीं लड़का हुआ, तो मेरे घर द्वार का भी वही मालिक होगा। आज तक उसने कभी अपने निःसन्तान होने के विषय में नहीं सोचा था । किन्तु अब यही बात तीर की तरह उसके हृदय को बार-बार बेध रही थी। गाल पर हाथ रखे वह इन्हीं ईर्ष्यामय विचारों में मग्न था । पड़ोस का शोर-गुल उसे ऐसा मालूम होता था, जैसे यह सब आयोजन उसी को चिढ़ाने के लिए किया गया है ।
इसी समय मालूम हुआ, कि जगन के यहां लड़की पैदा हुई है।
मुसाफिर ने एक लम्बी सांस खींच कर कहा – “जाने दो, लड़का नहीं पैदा हुआ, यह अच्छा हुआ ।”
यह उसके मन की वह प्रवृत्ति थी, जो निराशा के डाल पर भी सन्तोष के घोंसले बनाती है ।
(३ )
समय-पंछी उड़ता हुआ छः वर्षों का पथ और भी पार कर गया । जगन की लड़की मैना अपने द्वार पर बैठी हुई धूल के घरौंदे बनाती और बिगाड़ती नज़र आती थी । उसे देखकर मुसाफिर को क्रोध नहीं आता था, एक प्रकार का ममत्व जागृत हो उठता था । जी में आता था कि वह धूल धूसरित बालिका को गोद में उठाकर चूम ले । वह दूर 'से बैठकर उसकी बालक्रीड़ा को देखता था और फूला न समाता था। मैना को गोद में लेने की बलवती इच्छा को वह कैसे दबाता था, वह उसके सिवा और किसी को नहीं मालूम ।
आषाढ़ रथ - द्वितीया के दिन, उसीके गांव के समीप करौंदी में मेला लगता था । उस मेले में कोई खास बात नहीं थी । जगन्नाथ स्वामी के मन्दिर में खूब घड़ी-घण्टे बजाकर उनकी पूजा होती थी । सन्ध्या के समय मनुष्यों के रथ पर लदकर, देवताओं को एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक पहुंचा दिया जाता था । आस-पास के सभी गांव वाले वहां एकत्र होते थे, काफी भीड़ जुट जाती थी। मुसाफिर भी वहां गया था । वहां खिलौनों की दुकान देखकर ठिठक गया। इच्छा हुई कि मैना के लिए कुछ खिलौने लेता चलूं । फिर सोचा- "मगर इसके लिए कहीं जगन या उसकी बहू कुछ कह दे तब ?" उसने इस इच्छा को बल पूर्वक त्याग दिया और आगे बढ़ा। आगे भी खिलौने की दुकान थी । एक-से-एक अच्छे खिलौने भली-भांति सजाकर रखे हुएथे ।
मुसाफिर रुक गया और दुकान की ओर देखने लगा । खिलौने सभी सुन्दर थे। जिसपर दृष्टि जाती थी, उससे आंखों का हटाना कठिन था । यदि इसमें से एक भी खिलौना मैना को मिले, तो वह कितनी खुश होगी। मुसाफिर की कल्पना की आंखों के आगे मैना उसके लिए खिलौनों को लेकर छाती से लगाई हुई दिखलाई पड़ने लगी । वह इसी आत्मविस्मृत दशा में दुकान के सामने जाकर खड़ा हो गया। एक खिलौना उठाकर पूछा - " इसका कितना दाम है ?"
छः आने !"
मुसाफिर को मानो होश हुआ । यह खिलौना मैं किसके लिए खरीद रहा हूं ! उसी के लिए जो मेरे बैरी की लड़की है। मगर अब क्या करता; दाम पूछ चुका था, अगर वहां से यों ही चल देता तो बड़ी हेठी होती। बस टाल देने के लिए बोला--"तीन आने में देते हो तो दे दो ।"
"अगर लेना ही है तो चार आने से कौड़ी कम न लूंगा ।"
अब तो सिर्फ चार पैसों पर बात अटक गई । अगर ले ही लूं तो क्या होगा । मेरा दुश्मन जगन है कि उसकी लड़की ? बेचारी बच्ची का क्या कसूर ? जैसे वह जगन की लड़की है वैसे ही हमारी लड़की है। बेचारी को मैंने कभी कुछ नहीं दिया । लोग अपने भतीजे-भतीजी को लाख-दो लाख दे देते हैं, अगर मैंने एक चार आने का खिलौना ही दे दिया तो क्या दिया ? मुसाफिर जब खिलौनों को ख़रीद कर चला, तो उसके हृदय में जितना उल्लास था उतना ही झगड़े की आशंका भी थी ।
सांझ के समय घर पहुंचा । मैना उस समय अपने पिता से पाई हुई सीटी बजा बजाकर खुश हो रही थी। इसी समय मुसाफिर जाकर उसके सामने खड़ा हो गया । खिलौना हाथ में रखकर कहा - "देख बेटी, यह खिलौना तेरे लिए लाया हूं, पसन्द है ?"
मैना खुशी से नाच उठी । बोली- “हां चाचा, खूब पसन्द है; अबकी मेला में जाओगे तो मेरे लिए एक हाथी, एक खरगोश और एक कछुआ लेते आओगे ? “अच्छा लेता आऊंगा” – कहकर मुसाफिर ने उसे गोद में उठाकर चूम लिया ।
मैना वोली—“तुम बड़े अच्छे आदमी हो चाचा, तुम मेरे लिए मेले से खिलौना ला देते हो, गोद में लेकर दुलार करते हो ।”
मुसाफिर ने स्नेह से पूछा—- “ और तेरा बाप दुलार नहीं करता ?”
मैना सिर हिलाती हुई बोली - "नहीं वह दुलार नहीं करता, वह तो मुझे गोद में भी नहीं लेता।"
( ४ )
एक दिन मुसाफिर गोद में मैना को लिए घर के भीतर गया, तो राधिया बोली, "तुम्हारे रंग-ढंग मुझे अच्छे नहीं लगते । ”
मुसाफिर ने सहज उत्सुकता से पूछा – “क्यों क्या हुआ ?"
"पराई बेटी के पीछे काम-धन्धा छोड़कर दिनभर पागल बने फिरते हो । अगर अपनी बेटी होती तो क्या करते ! कल खेत पर भी नहीं गये, सारा दिन बांस की गाड़ी बनाने में बिता दिया ।"
है ?"
मुसाफिर ने हंसकर कहा – “पराई बेटी कैसे हुई ? क्यों मैना तू दूसरे की बेटी
मैना ने सिर हिलाकर कहा – “नहीं ।"
“तब किसकी बेटी है ?"
मैना उसके गले में दोनों बाहें डालकर बोली, “तुम्हारी !”
मुसाफिर मुस्कराता हुआ गर्व से अपनी पत्नी की ओर देखकर बोला—“देखती हो ?"
रधिया ने कहा – “सब देखती हूं, लेकिन अगर कहीं कुछ हो गया, तो यही समझ लो कि तुम्हारे सिर का एक बाल भी नहीं बचेगा। जो कुछ असर-कसर बाकी है, वह भी पूरी हो जायगी ।'
मुसाफिर ने मैना को चूमकर कहा- “मेरी बेटी को क्यों कुछ होगा, जो कुछ होना होगा, सो इसके दुश्मन को होगा। क्यों बेटी ?"
मैना ने सिर हिलाकर अपनी सम्मति जता दी ।
रधिया ने मुंह फुलाकर कहा - " एक दफे कपार फुटवा ही चुके, अबकी मालूम होता है, मूंछे उखड़वाओगे ।"
मुसाफिर के दिल में कुछ चोट लगी। उसने सिर उठाकर कहा - "तुम तो मैना को फूटी आंखों भी नहीं देख सकतीं। यह मेरी गोद में नहीं आवे, तब तुम्हारा कलेजा ठंडा रहेगा । "
रधिया तीव्र स्वर में बोली - "कौन कहता है कि मैना मुझे फूटी आंखों नहीं सुहाती ? बोलते कुछ लाज भी लगती है कि नहीं ! लड़के- बच्चे भी किसी के दुश्मन होते हैं ? मैना को देखती हूं, तो गोद में लेने के लिए तरस कर रह जाती हूं, मगर करूं तो क्या, इसके मां-बाप ऐसे हैं, जिनसे दुश्मन भी भला । छोड़ देती हूं, कौन जाने मैना को दुलार करने से हमारी मालकिनजी रांड़ - निपूती करने लगें । "
इसी समय मैना अपन चचा की गर्दन झकझोर कर बोली - "चाचा चाचा, चलो मुझे गाड़ी पर चढ़ा कर टहला दो ।"
"चल !” — कहता हुआ मुसाफिर उसे लिये हुए घर से बाहर चला गया ।
उस दिन मैना गाड़ी पर चढ़कर खूब घूमी; लेकिन जब उसकी छोटी-सी गाड़ी समस्त गांव की परिक्रमा करके लौटी, तो उसे कुछ ज्वर-सा हो आया था। मुसाफिर ने देखा कि उसका शरीर कुछ गर्म है। बोला- “ घर चली जाओ बेटी, शायद तुम्हें बुखार आयेगा ।”
मैना जिद करने लगी---" नहीं चाचा, थोड़ा और घुमा दो । थोड़ा-सा । फिर घर चली जाऊँगी ।"
"नहीं नहीं, अब घर जाओ ।"
मैना मलीन मन गाड़ी से उतरकर घर चली गई। उस दिन वह बहुत उदास हो गई थी । चाचा यदि थोड़ा और घुमा देते तो क्या होता ?
(५)
दूसरे दिन मुसाफिर दिनभर मैना को नहीं देख सका। मालूम हुआ कि उसे ज्वर आया है । मुसाफिर दिनभर बहुत ही उदास रहा। खेत पर भी नहीं जा सका । बैल भूखे थे, उन्हें सानी देने की भी याद नहीं रही। मालूम होता था, जैसे वह निर्वासित कर दिया गया है । वह जहां बैठा था, दिन भर वहीं बैठा रह गया। रात हुई तो रधिया आकर बोली - "आज खाओगे नहीं क्या ?"
"ना, आज भूख नहीं है।"
तुम तो मुफ्त में अपनी जान गवां रहे हो। जिन लोगों के लिए प्राण हत रहे हो, उन्हें तो तुम्हारी परवाह ही नहीं है। यह किसी से नहीं हुआ कि तनिक बुलाकर दिखला देते । हाय री बची, कल ही भली-चंगी थी, आज न जाने कैसे क्या हो गया ! मेरा तो जी चाहता है कि जाकर एक बार देख आती ।
मुसाफिर प्रसन्न होकर बोला - "चली जाओ न; देखती आना ।
रधिया ने कहा- जाती तो; लेकिन महारानीजी से डर लगता है कि कहीं डाइन कह कर बदनाम न कर दें। और तुम्हारा सपूत भाई भी कम नहीं है। ना, मैं नहीं जाऊँगी; तुम्हीं जाओ ।”
"तुम्हारे जाने से लोग बुरा मानेंगे, तो क्या मेरे जाने से भला. मानेंगे ?" " तो जाने दो; मगर चलो खालो । ऐसे कब तक रहोगे ?"
" जबतक मन करेगा ।"
"भगवान् लोगों को दुख देते हैं, तो क्या सभी खाना छोड़ देते है ? दुनिया का काम तो सभी को करना ही पड़ता है।" "
"खाऊंगा तो ज़रूर; लेकिन अभी भूख नहीं है ।"
रधिया निराश होकर चली गई। मुसाफिर वहां बैठा-बैठा क्या सोच रहा था, यह वही जाने; लेकिन जब रात भींग गई, दस से ऊपर हो गये और रात्रि के सन्नाटे में कुत्तों का भूंकना जारी हो गया, तब मुसाफिर जगन के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया, दीवार से कान लगा कर, बहुत देर तक मैना की बोली सुनने की चेष्टा की; किन्तु निष्फल ही रहा । अन्त में निराश होकर घर लौट आया और चुप-चाप सो गया ।
मैना तीर-चार दिनों तक तो बुखार में डूबी रही, पांचवें दिन सन्निपात हो गया । बचने की आशा जाती रही। मुसाफिर यह सब सुनता था और मन-ही-मन हाय करके रह जाता था ।
आखिर एक दिन मुनिया के क्रन्दन से जगन का घर गूंज उठा । मुसाफिर के हाथ-पांव फूल गये । वह पागल की तरह दौड़ा हुआ जगन के आंगन में पहुंच गया । घबराया हुआ बोला - "जगन, जगन, क्या हुआ ?"
जगन रोता हुआ घर से निकला - "भइया, हम लुट गये, भइया, मैना !...." मुसाफिर भी कातर भाव से हाहाकार करके रो उठा, हाय मेरी बेटी !....... जब लोग मैना की लाश को उठाकर ले चले, उस समय मुनिया भी सिर के बाल खोले पगली की तरह रोती हुई जा रही थी। "हायरे ! मेरी भली-सी बच्ची को लेकर तुम लोग कहां जा रहे हो । लाओ उसे मुझे दे दो, वह दूध पीकर चुप-चाप सो जायगी । हायरे, मेरी बच्ची ! सुनो....... सुनो तो.."
इसी समय रधिया अपने घर से दौड़ती हुई निकली और मुनिया को पकड़ लिया । उसे अपनी छाती से लगाकर बोली - "न रोओ बहन, न रोओ ! भगवान ने हम लोगों को दुःख दिया है, तो सहना ही पड़ेगा ।"
उस समय तक शव ले जाने वाले आंखों की ओट हो चुके थे।