नुमायश का अहाता बनकर तैयार हो चुका था । बीच-बीच में फुलवारी की क्यारियां लग चुकी थीं । दुकानों और बाज़ारों की व्यवस्था भी करीब-करीब हो ही गई थी । कुछ सजधज का काम अभी कहीं-कहीं बाकी था। मिस्त्री बिजली का तार लिये घूम रहे थे । कुछ पेड़ों पर चढ़े बल्ब टांगने पर लगे थे । रविशों पर सुर्खी बिछ रही थी । बड़े गेट को सजाया जा रहा था ।
संतू, लगभग सात वर्ष का एक लड़का जो कुछ ही दूर पर अंधी मां के पास बैठा था, टकटकी लगाये यह सब देख रहा था, बोला- "मां !"
"हां !” – मां बोली ।
“नुमायश होगी यहां ?”
"क्यों ?"
" पारसाल की तरह सब हो रहा है । "
"कोई खेल आया होगा ?"
"नहीं, मां ! लोग कहते जा रहे थे।"
"सच ?"
"हां ।"
" होती होगी। अच्छा है, दो पैसे मिल जाया करेंगे ।"
" जैसे पारसाल, ऐं मां !"
"हां"
"पारसाल तुमने हमें टिकट नहीं दिलाया था ।”
"कैसा टिकट ?"
" नुमायश का ।"
मां ने कुछ उत्तर न दिया ।
"क्यों मां !" वह फिर बोला । वह फिर चुप थी ।
" बोलती नहीं ।"
"बेकार की बातें मुझे नहीं आतीं ।" "अच्छा, दिलाया था ।"
" नहीं दिलाया था ।"
"क्यों ?"
"चाहती नहीं थी ।” – हंसते हुए उसने कहा ।
संतू चुप हो रहा । जानता था, खिन्न होने पर ही मां ऐसे हंसती हैं। उसकी निगाह फिर उस अहाते पर टिकी रही। कुछ देर बाद अकुलाया - सा फिर बोला – “अच्छा, मां !"
"मां ।"
" अबकी दिला दोगी ?"
“दिला दूंगी ।" अन्यमनस्क -सी हुई वह बोली ।
"नहीं ?” उसने फिर पूछा ।
“दिला दूंगी कहती तो हूं।" - मां ने तब ज़ोर से कहा मुस्कराहट को दबाने के प्रयत्न में दोनों ओंठ ज़ोर से सटा लिये ।
"कहती ही हो बस ।”— सन्देह से मां के ओठों की तरफ देखता हुआ वह बोला ।
"ऐसा ही सही ।" मां ने कहा ।
"अच्छा, सच बताओ मां, दिलाओगी कि नहीं ?" जी भर कर ज़ोर लगाकर संतू ने विनय की ।
हृदय की इस अपील पर अंधी चुप रह गई । झूठ बोलना भी उतना ही कठिन हो गया, जितना सच |
“क्यों मां !” – सन्तू ने फिर पूछा ।
"अच्छा, देखूंगी।" गंभीर होकर अंधी बोली, जैसे एक बड़ा बोझ उसके ऊपर आ गया हो ।
सन्तू प्रफुल्ल हो उठा और एक ओर से कुछ आदमियों को आते देख मां को कुहनी लगाई । इशारा समझ कर अंधी ने कहना शुरू किया - 'बाबू अंधी मुहताज को, बाबू......"
दो दिन बाद । नुमायश का उद्घाटन हो रहा था। गेट पर बहुत भीड़ थी। सड़कें भरी आ रही थीं । रंग-बिरंगी पोशाक में संवरे हुए स्त्री, पुरुष और बच्चे आतुर होकर गेट की ओर बढ़ रहे थे ।
एक तरफ जहां मोटर रुकती थीं, अंधी भिखारिन सन्तू का हाथ पकड़े इधर- उधर डोल रही थी । वह कहती जाती थी - " बाबू ! अन्धी मुहताज को ... को... ...."
सन्तू कभी गेट की ओर देखता कभी पों-पों करती मोटरों की ओर और कमी उत्सुक हो उमड़ती हुई उस भीड़ की ओर। बीच-बीच में बुढ़िया की मुंह की ओर भी देख लेता — जैसे कुछ कहना चाहता हो । उसकी बात उसकी आंखों पर आ अटकी मालूम होती थी; पर अंधी निर्विघ्न चिल्ला रही थी – बाबू ......”
रात के ग्यारह बज गये । सन्तू मां का हाथ पकड़े घूमता ही रहा । आखिर वह थक गया । खड़ा रहना मुश्किल मालूम होने लगा ।
बोला- 'मां !' "हां"
"कितने पैसे हो गये ?"
" तू नहीं जानता क्या ?”
"चार अभी नहीं हुए।" " हो गए ।"
" तो टिकट मिल जायगा ।"
“मिल जायगा पर रोटी नहीं ।" चुप हो गया । उसकी निगाह मां के "रोटी नहीं खाऊंगा ।"
अंधी हंसकर बोली । संतू समझ गया । वह मुंह पर थी। कुछ सोचता सा फिर बोला-
" अच्छा भैया । पेट पर तो कभी यों ही नहीं मिलता, आज पूरा ही फाका सही ।.......पर संतू ! मुझसे तो उठा न जायगा । देख लो, कुछ आज ही की बात नहीं, कल को भी किसी के पैर चाहिए ।"
संतू ने कुछ न कहा, और अंधी फिर उसी रट में लग गई और लगी रही, जबतक कि वहां सुनसान न हो गया ।
प्रतिदिन शाम को वैसे ही भीड़ होती थी। वैसा ही स्त्रियों, पुरुषों बच्चों का एक समुद्र आनन्द से हिलोरें लेता था । सन्तू भी उन्हींमें हर रोज घूमता रहा। स्वयं दर्शकों में उसकी गिनती भले ही न थी; पर दर्शकों का भी एक दर्शक वह था । उनको देख-देखकर उसे कुछ नुमाइश का आनन्द आ जाता था। उनमें उसका हित था । उनकी वृद्धि और समृद्धि को देखकर वह खुश भी होता था। जैसे-जैसे भीड़ बढ़ती, जैसे-जैसे मोटरों और एक्का बग्घियों की कतार लम्बी होती, उसकी सोई हुई आशा भी वैसे ही वैसे जगती जाती और उसके जल्दी-जल्दी उठते हुए कदमों के पीछे अंधी घिसटने लगती ।
किन्तु गेट से निकलते हुए सज्जनों को भी वह देखता था बहुत से हम-उम्र होते थे, कुछ अधिक उम्र के और कुछ कम उम्र के । कोई कुछ तारीफ करता निकलता, कोई कुछ | वह परेशान - सा अंधी को लेकर उनके सामने हाजिर होता। वे बचकर निकल जाते, वह खड़ा देखता रह जाता । पर वह एक जगह खड़ा नहीं रह सकता था, क्योंकि बुढ़िया का हाथ उसके हाथ में बराबर चलते रहने का तकाजा किया करता था ।
कई दिन हो गए थे । नुमाइश भर रही थी । आज कुछ ज्यादा लोग आ रहे थे ख़रीदारी भी अधिक हो रही थी। दुकानदारों ने चीज़ें आज पहले से कुछ सस्ती कर दी थीं । लगभग सभी लोग कुछ-न-कुछ हाथ में लिये गेट से निकल रहे थे । कुछ गोद भरे चले आ रहे थे और कुछ के पीछे कुली लदे थे । अधिकांश बच्चों के हाथों में खिलौने थे । सन्तू भी अपनी आशा का टूटा-सा खिलौना लिये वहीं मौजूद था । आज वह विशेषतः दौड़-धूप करता दिखाई दे रहा था। मां ने वादा किया था कि अगर चार भी पैसे मिले, तो वह उसे दे देगी। जैसे-तैसे भीड़ को चीरता हुआ जल्दी-जल्दी एक से दूसरे सज्जन के सामने वह अपनी अन्धी मां को पेश कर रहा था । मां चिल्ला रही थी--"बाबू अंधी मुहताज को " पर वह समय ही ऐसा मालूम होता था कि किसी को उस अंधी के हाथ की ओर देखने की गुंजाइश या फुर्सत न थी ।
सन्तू, इधर से उधर, उधर से इधर ताना बिनता ही रहा बहुत देर हो चली । उसने बार-बार मां की मुंह की ओर देखा कि शायद कुछ और उपाय बतलाये; पर पूछने की हिम्मत न हुई । भीड़ हल्की हो रही थी । आ कम रहे थे जा अधिक । संतू को वह दिन भी जाता ही मालूम हुआ आखिर वह बिना पूछे नहीं रह सका । बोला- "मां ।"
"हां"
"पैसे हो गए ।"
"ला तो फिर ।"
"बस एक पैसे की कमी है।"
"कमी है ?"
"हां"
सन्तू चुप रहा । किन्तु उसकी खामोशी की वजह समझ कर मां ने कहा – “और देखो, शायद मिल जाय । "
सन्तू फिर अन्धी का हाथ पकड़ कर इधर-उधर घूमने लगा । वह चिल्लाने लगी — “बाबू ! एक पैसा । "
वह बहुत बेचैन हो रहा था। जिन-जिन बाबुओं को वह मोटर की ओर जाते देखता, जिन-जिनको बहुत मोटा ताजा पाता था, या जिन-जिन के बच्चे बहुत खिलौने लिये गेट से निकलते, नज़र पड़ते, उन्हींकी ओर उसके पैर खुद-ब-खुद चल पड़ते । पर वे लोग अपने ही में कुछ इतने मशगूल मालूम होते कि उस ओर उसका ध्यान ही न जाता ।
जानेवाले आगे को बढ़े ही चले जाते थे । मोटरवाले मोटर में बैठ आंखों से ओझल हो जाते थे । अंधी मां को ख़बर भी न होती थी कि कब कौन गया । वह उसी एक ओर मुंह किए चिल्लाती रहती, जब तक कि संतू के हाथ का इशारा न मिलता ।
संतू बहुत बेचैन था । एक पैसे की कमी थी। किसी एक बाबू का इशारा बाकी था। उसीकी वह खोज में था; पर कोई मिल नहीं रहा था। यह साल भी यों ही चला जायगा, यह सोच-सोचकर वह गेट की तरफ देख लेता था । आखिर उसने देखा, एक बाबू बुकिंग आफिस पर खड़े टिकट ले रहे हैं । सन्तू ने अंधी को वहां ले जा खड़ा किया । अंधी ने जैसे कलेजे से पुकारकर कहा – “बाबू ! एक पैसा अंधी को भी ।"
किन्तु बाबू खिड़की से टिकट खरीद, हाथ में ले गेट की ओर घूमने लगे । संतू से न रहा गया । उसका मुंह अनायास ही कह उठा 'बाबू ।” "क्यों ?"
"क्या आज नुमायश न रहेगी ?”
"कैसे ?"
" सामान जा रहा है।"
"तो ?"
"हमने नहीं देखी ।"
“अगले साल देख लेना ।”— अन्धी बोली और ठपाका मार कर हंस पड़ी। संतू उसके मुंह की ओर देख रहा था ।
“हमने नहीं देखी ।” अन्धी ने फिर संतू की बात को दुहराया, और ज़ोर से हंस पड़ी ! संतू देख रहा था ।