डा० नागेश उस दिन बड़ी उलझन में पड़ गये। वह सिविल अस्पताल के प्रसिद्ध सर्जन थे । कहते हैं कि उनका हाथ लगने पर रोगी की चीख-पुकार उसी प्रकार शान्त हो जाती थी जिस प्रकार मा को देखते ही शिशु का क्रन्दन बन्द हो जाता है । जितना भयंकर आपरेशन होता था उनकी मुस्कान उतनी ही मधुर होती थी । कह सकते हैं कि उनकी हंसी कठिन परीक्षा के अवसर पर फूटती थी पर उस दिन जैसे सलवटें खुलने के स्थान पर और गहरी हो उठी। जैसे-जैसे वह प्यार के हाथों से उन्हें दूर करने की कोशिश करते थे तैसे-तैसे वे और भी मुखर हो आती थी ।
वह तब काम समाप्त करके लौटने की बात सोच रहे थे ! कई दिन से उन्हें कोई बड़ा आपरेशन नहीं करना पड़ा था। छोटे-मोटे आपरेशन उनके सहकारी कर लेते थे, इसलिए अक्सर उनकी छुट्टी रहती थी। लेकिन उस दिन जैसे ही उन्होंने अपने सहकारी से लौटने की बात कही दूसरे साथी ने आकर कहा--" डाक्टर ! शीघ्र आइये ।”
डाक्टर ने पूछा—“क्यों क्या है ?"
"एक अद्भुत केस है ।"
"आपरेशन का ?"
"जी हां।"
"कोई घायल है ?"
"जी नहीं, वह पूर्ण स्वस्थ है । " "तो.......?”
" वह चाहता है कि मस्तिष्क का आपरेशन कर दिया जाये ।"
वह चल रहे थे और बातें कर रहे थे । मस्तिष्क के आपरेशन की बात सुनकर वह हठात ठिठके, पूछा – “क्या तुम ठीक कह रहे हो ।"
साथी ने उसी स्वाभाविकता से कहा - " देखने में उसे कोई रोग नहीं जान पड़ता । वह एक साधारण स्वस्थ आदमी है, सुशिक्षित है और देश के लिए जेल हो आया है ।"
" सम्भवतः पागल है ?"
" शायद ! उसकी बातों से मन पर यही असर पड़ता है, पर कभी-कभी वह इस प्रकार बातें करता है कि उसे पागल मानते दुःख होता है । "
डा० नागेश मुस्कराये, बोले- " तब वह निस्सन्देह पागल है। दुख सदा पागलपन पर ही होता है।" और वह मन्त्रणा भवन के द्वार पर आ गये । साथी ने आगे बढ़कर किवाड़ खोले । डा० नागेश ने देखा – सामने कुरसी पर बैठा हुआ एक व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया है। वह एक साधारण व्यक्ति है । चाल-ढाल बताती है वह सुसंस्कृत है क्योंकि उसने जिस विनम्रता से प्रणाम किया वह विरले जन में पाई जाती है । वह मुस्कराया भी और तबतक नहीं बैठा जबतक डा० नागेश अपनी कुरसी पर नहीं पहुंच गये । यद्यपि उसकी आंखें कुछ अस्वाभाविक रूप से चंचल थी पर वह बोलने को विशेष उत्सुक नहीं था। उसकी पोशाक श्वेत खद्दर की थी। गांधी टोपी, कुरता और पाजामा । पैरों में सैन्डिल थी और जेब में कोई पैन जिसे एक दम पहचानना कठिन था । डा० नागेश ने सीधे स्वभाव एक प्रश्न किया — "जी, कहिए क्या आज्ञा है ?"
उत्तर मिला – “आपकी कृपा है ?”
" आप मुझसे मिलना चाहते थे ?" "जी....जी हां।"
“मैं उपस्थित हूं ।”
वह झिझका नहीं, बोला- "जी, बात यह है कि मैं अपने मस्तिष्क का आपरेशन करवाना चाहता हूं ।”,
" मस्तिष्क का...?"
"जी हां, देखिये यहां पर” – उसने अपनी टोपी उतार कर मेज पर रख दी और दाहिने हाथ से गरदन के पृष्ठ भाग को दबाते हुए कहा- "देखिये यहां पर बहुत तेज दर्द होता है । फिर धीरे-धीरे ऊपर तक चला जाता है । "
डॉक्टर ने वहीं बैठे-बैठे पूछा - " हमेशा होता है ?”
"जी, आरम्भ में तो कभी-कभी होता था, पर अब प्रायः सदा ही होता रहता
है । कभी-कभी तो इतना तीव्र होता है कि तिलमिला उठता हूँ ।"
" इस समय कैसा है ?"
"इस समय तीव्रता नहीं है। होती तो मैं यहां न बैठ सकता ?" "उसके होने का क्या कोई विशेष समय है ?"
"कुछ निश्चित नहीं पर बहुत देर एकान्त में रहने पर अथवा बहुत बातचीत के बाद या रात्रि के समय अक्सर हो जाता है ।"
"आप तनिक लेटेंगे ?” —डा० नागेश ने कहा और वह स्वयं भी उठ कर उसके पास आ गये, पूछा - " आपका शुभ नाम ?"
" सन्तकुमार, ” – उसने लेटते हुए उत्तर दिया । डाक्टर ने उसके सिर को दबाया । दर्द के स्थान की अच्छी तरह परीक्षा की। पूछते रहे – “हां, तो सन्तकुमारजी, यहां पर दर्द बहुत होता है ?"
"जी हां, यही तो मनुष्यता का स्थान है । "
"क्या...?"
"जी हां, यहां वे गुण जन्म लेते हैं जिनसे मनुष्यता का निर्माण होता है ।" डाक्टर हंसे -- " आप तो काफी ज्ञानी जान पड़ते हैं ।"
"डाक्टर साहब,” सन्तकुमार ने उत्सुकता से कहा, “प्रेम, सौहार्द, सहानुभूति, करुणा आदि गुणों का स्थान यही है । यहीं से ऊपर जा कर वे उन ज्ञान तन्तुओं का निर्माण करते हैं जो मनुष्य को बुद्धि प्रदान करते हैं ।"
“निस्सन्देह !” डाक्टर ने प्रशंसा के स्वर में कहा, पूछा – “जब दर्द उठता है तो कैसा लगता है ?"
“तब...तब डाक्टर साहब, ऐसा होता है कि जैसे मस्तिष्क में कानखजूरा घुस बैठा है । उसके पंजों की जकड़ मैं स्पष्ट अनुभव करता हूं। फिर तो जैसे ग्लानि से हृदय टीसने लगता है। जी में उठता है कि सिर दीवार में दे मारूं या किसी का गला घोट दूं ।”
"और...?"
"और कभी-कभी रोने लगता हूं, हिचकियां बंध जाती है ।"
"ऐसा ही होता है" — डाक्टर ने गम्भीर होकर कहा और फिर धीरे-धीरे सिर दबाते हुए एक नस को पकड़ा, उसे दबाया, पूछा - "कैसा लगता है ?"
लेकिन उत्तर में डाक्टर ने देखा – सन्तकुमार की मुट्ठियां मिंच रही हैं । हाथ ऐंठने लगे हैं । शिरायें उभर आई हैं, देखते-देखते उसने सिर को एक झटके के साथ डाक्टर के हाथों से छुड़ा लिया और उठ बैठा । उसकी पुतलियां तीव्रता से घूमने लगी । डाक्टर ने शीघ्रता से अपने सहकारी को पुकारा - "डाक्टर कुमार, अभी सुई लगानी होगी, जल्दी करो, और नर्स तुम मिक्श्चर ले आओ ।"
कुल पांच-सात मिनिट में यह सब हो गया । सन्तकुमार कई क्षण तक एक थके यात्री की भांति बेबस लेटा रहा। फिर एकाएक उठ बैठा। वह शिथिल था । पर उसकी आंखें शान्त थी । उसने डाक्टर को तनिक अचरज से देखा फिर आंखें मलीं । डाक्टर ने धीरे से कहा – “अब आप की तबियत कैसी है ?"
वह फुसफुसाया – “आपने अभी तक मेरे मस्तिष्क का आपरेशन नहीं किया ?" डाक्टर ने कहा—“अभी नहीं, अभी तो मुझे तैयारी करनी होगी पर विश्वास रखिए करूंगा अवश्य । "
ऐसा लगा सन्तकुमार को विश्वास नहीं आया । तब अनुभवी डाक्टर बोले- "क्या आप अस्पताल में रहना पसन्द करेंगे?"
"अवश्य !” – रोगी ने सहसा चमकते हुए कहा ।
डाक्टर को इस विचित्र रोगी में दिलचस्पी थी। उसने अपने सहकारी को उचित प्रबन्ध करने को कहा । और जाते हुए बोले – “रात को कोई परिवर्तन हो तो मुझे तुरन्त सूचना मिलनी चाहिए ।"
" फिर वह चले गये परन्तु वह रोगी उनके मस्तिष्क से नहीं जा सका । अपनी पत्नी से उसका वर्णन करते हुए वे बोले -- "मुझे विश्वास है कि इस व्यक्ति को कोई गहरा सदमा पहुंचा है ।"
" हो सकता है ।"
" और वह सदमा भी ऐसा है जिसके लिए वह अपने को दोषी मानता है । " "ऐसी क्या बात है ?"
"कुछ समझ में नहीं आता। वह युवक नहीं है, अधेड़ है। हो सकता है वह किसी विधवा का धन हड़प गया हो ।"
पत्नी ने पूछा – “क्या उसकी आंखों में क्रूरता झलकती है ?"
"यह तो बात है । उसकी आंखों में क्रूरता नहीं बल्कि भय और ग्लानि का अद्भुत संमिश्रण है ।"
“तो” – पत्नी ने कहा—“ हो सकता है वह अपराध भूल से हो गया हो ।” डाक्टर बोले—“मैंने दुनिया देखी है। मैं जानता हूं वह पश्चात्ताप की आग में जल रहा है । उसने कोई भयंकर पाप किया है। कभी-कभी तो उसकी आंखें इतनी निस्तेज हो जाती है कि दिल पर चोट लगती है......
वह अभी अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाये थे कि बाहर से नौकर ने आकर कहा, “डाक्टर कुमार आये हैं ।" उनका माथा ठनका । वह शीघ्रता से बाहर आये । कुमार ने उन्हें बताया, "नया रोगी पागल हो गया है । "
डाक्टर जैसे थे वैसे ही चल पड़े । जब वह अस्पताल पहुंचे तो उस रोगी को एकांत कमरे में ले जाया जा चुका था । उस निस्तब्ध - रात्रि में उन्होंने दूर से ही उसकी तीव्र वेदना-मयी वाणी को सुना। वह कह रहा था, "मैं पागल नहीं हूं। नहीं, मैं पागल नहीं हूं । मैं बिलकुल होश में हूं और मैं सोच-समझकर कहता हूं कि मैंने महात्मा गांधी की हत्या की है।"
डाक्टर नागेश ने हठात आकाश में विद्युत का अपूर्व प्रकाश देखा । वह सिहर उठे । कई क्षण बसे आगे बढ़ने के भ्रम में जहां के तहां खड़े रहे । स्वर उसी तरह उठ रहा था, “क्या तुम मेरा विश्वास नहीं करते ! तुम ऐसे क्यों देख रहे हो ? अहा हा हा, तुम सोच रहे हो गांधीजी को मारने वाला तो गोडसे है। उसने अपना दोष स्वीकार कर लिया है । अहा हा हा, तुम सब मूर्ख हो — " I
ठीक इसी समय डाक्टर ने उस कमरे में प्रवेश किया। उनके आते ही नर्स और डा० कुमार एक ओर हट गये । रोगी ने उन्हें देखा । वह मुस्कराया, “तुम आ गये। मैं तुम्हारी राह देख रहा था। तुम समझदार हो । ये लोग मेरी बात मानते ही नहीं ।"
डाक्टर नागेश ने चुपचाप उसके पास जाकर सिर पर हाथ रखा, सहलाया फिर प्यार से थपथपाकर बोले, "ये लोग तुम्हारी बात नहीं समझ सकते। तुम मुझसे कहो, क्या कहते हो ?"
न जाने क्या हुआ ! कहां तो वह हुंकार रहा था, कहां वाणी उच्छासित हो उठी । बोला "मैंने महात्मा गांधी की हत्या की है। मैंने उन्हें मारा है-"
और कहते-कहते वह फूट पड़ा। दूसरे ही क्षण उसकी हिचकियां बंध गई । डाक्टर का हृदय एक साथ करुणा, अचरज और भय से विह्वल हो गया । उन्होंने कुमार को संकेत किया कि वे इन्जैक्शन ले आये । और फिर रोगी से बोले- “सन्तकुमार, तुम वीरपुरुष हो, ऐसे नहीं रोया करते । देखो मैं तुम्हारी बात का विश्वास करता हूं।"
सन्तकुमार ने दृष्टि उठाकर पूछा, “तुम मेरी बात का विश्वास करते हो ।” "हां ?"
जैसे शिशु ने रंगीन गुब्बारा पाया हो । वह हर्ष से भर कर बोला "तुम समझदार हो । तुम गोडसे को हत्यारा नहीं मानते। हत्यारा मैं हूं। वह मेरा दूत है, मेरा हाथ है, मैं मस्तिष्क हूं । हाथ कभी अपने आप काम नहीं करता । जानते हो?"
डाक्टर ने यंत्रवत् अपने को चौंकाते हुए कहा, “हां, मैं जानता हूं कि हाथ अपने आप कुछ नहीं करते । वे सदा मस्तिष्क की आज्ञा मानते हैं ।"
" निस्सन्देह | हाथ सदा मस्तिष्क की आज्ञा मानते हैं । मेरे मस्तिष्क ने जब बार-बार हाथों से कहा वह गलत है। वह हमें विनाश की ओर ले जा रहा वह हमें नष्ट कर देगा तब-तब - "
उसका स्वर फिर बदला । वह क्रोध से कांपने लगा। बोला- “तब हाथों ने मस्तिष्क की वेदना को समझा। और आज्ञाकारी सेवक की भांति उसकी वेदना करने को आगे बढ़े -- "
"ठीक है ऐसा होना ही था", डाक्टर नागेश ने यंत्रवत कहा और फिर गरदन को झटका दिया । उन्हें लगा जैसे वह स्वयं संज्ञा खो रहे हैं और एक ऐसे मनोजगत में पहुंच रहे हैं जहां सघन अन्धकार में एक ज्योति चमक उठी है। रोगी कह रहा था और रो रहा था - "और उस आज्ञाकारी ने एक दिन अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए महात्माजी को मार डाला। उस निर्दयी को तनिक भी दया नहीं आई। आती कैसे ? वह तो यन्त्र था । दोष तो मस्तिष्क का था-"
वह सहसा तीव्र हुआ "हां, दोष मेरे मस्तिष्क का था । मेरे मस्तिष्क ने उसे पथभ्रष्ट किया, उसे उत्तेजित किया और इस प्रकार शांति के उस स्त्रोत का गला घोट दिया । डाक्टर, उसने अपने जन्म दाता को ही मार डाला - "
डाक्टर सहसा कुछ न कह सके। सोच रहे थे ——-वह पागल है अथवा कोई ऋषि । यह एक ऐसे सत्य का उद्घाटन कर रहा है जो गोपनीय होकर भी असत्य नहीं है । कहते हैं पागल की अन्तर्दृष्टि खुल जाती है ।
रोगी सिसक रहा था । उसने अपना सिर दोनों हाथों से पकड़ रखा था । उसके घुटने मुड़ रहे थे । वह सिकुड़कर गेंद की तरह बन गया था। डाक्टर कुमार ने उसको फिर सुई लगाई । अचरज इस बार वह हिला तक नहीं और देखते-देखते कुछ क्षण में वह शिथिल होकर बिस्तर पर गिर पड़ा। वह रह-रहकर सुबक उठता था । फुसफुसाने लगता था, "जो शक्ति उस महात्मा ने मुझे जीने के लिए दी थी उससे मैंने उसीके प्राणों पर डाका डाला — "
बुत की तरह बैठे हुए डा० नागेश को तब सहसा भस्मासुर की कहानी याद आ गई । किसीके सिर पर हाथ रखकर जला देने का वर उसने शिव से पाया था और सबसे पहले उन्हींको जला देने को वह दौड़ा । विष्णु न होते तो शायद वह शिव को भस्म कर देता, पर आज जब भस्मासुर शिव को भस्म करने दौड़ा तो वे भागे नहीं उसके हाथ से भस्म हो गये, मानो अपने शरीर के साथ उन्होंने मानव के पापों को भी भस्म करना चाहा था ।
डाक्टर को अचरज हुआ उनके भीतर भी ज्ञान है। जैसे इस रोगी ने उनके ज्ञान चक्षु खोल दिये हैं; पर वह स्वयं तो संज्ञाहीन - सा उसी प्रकार लेटा था । रह-रहकर उसके ओठ फड़क उठते थे, जैसे वह स्वप्न में बड़बड़ाने लगता हो । डाक्टर ने नर्स को छोड़कर सबको चले जाने को कह दिया । स्वयं वे उसके पास जाकर बैठे। तब रात गहरी हो चली थी । शून्य में तनिक सी ध्वनि गहरा उठती थी । कहते हैं शून्य सहस्त्रों जिह्वाओं से बोलता है, विशेषकर मृत्यु के आंगन का शून्य । शून्य मस्तिष्क विचारों के तूफान से गूंजने लगा, पर वे सब ओर से ध्यान हटाकर रोगी की उच्छ्वासित वाणी सुनने लगे । वह रह-रहकर बोल उठता था, "जिस समय वह मानवता की प्राण प्रतिष्ठा के लिए प्राणों को होम रहा था उस समय मैंने अपने प्राणों की रक्षा के लिए हिंसा का स्वर उठाया। उस समय मैंने गीता के कृष्ण की दुहाई दी और शस्त्र बल का प्रचार किया । जिस समय वह दुश्मन को दोस्त बनाने में लगा हुआ था मैंने लोगों को दुश्मन पर हमला बोल देने को उकसाया - यह सब मैंने किया, मैंने जो अपने को उसका शिष्य, उसका साथी कहता था — !”
उसकी फुसफुसाहट धीमी पड़ती जाती । डाक्टर और भी पास खिंच आए । सोचने लगे- आदमी क्या है ! जीवनकी समस्त शक्ति लगाकर पहले क्षण वह एक तथ्य का प्रतिपादन करता है परन्तु दूसरे ही क्षण उसे पता लगता है कि वह जिस भूमि पर खड़ा था बिलकुल कच्ची थी। वह केवल सन के छूछे गोले छोड़ रहा था ।
'कायर' डाक्टर ने तीव्रता से कहा और तभी सन्तकुमार बड़बड़ाया — “मैं कायर था और वह वीर । कायर हत्या करता है; वीर जीवन देता है।" डाक्टर को न जाने क्या हुआ ? पुकारा, "सन्तकुमार !'
सन्तकुमार उसी तरह बड़बड़ा रहा था ।
डाक्टर ने फिर पुकारा — “सन्तकुमार ! सुनो — "
उत्तर में नर्स शीघ्रता से आई, बोली- “क्या है डाक्टर ?"
डाक्टर चौंके। धीरे से कहा, "कुछ नहीं ।" फिर कुछ क्षण सन्नाटा सा छाया रहा । डाक्टर के मन से उमड़ घुमड़ कर कुछ विचार उठ रहे थे। उन्हींको रोगी पर प्रकट करना चाहते थे पर वह तो संज्ञाहीन था इसलिए कागज उठाकर वह लिखने लगे, "व्यक्ति का अस्तित्व काम में है। गांधी अपने काम के कारण गांधी था । वह मर गया पर उसका काम अभी नहीं मरा । व्यक्ति की भांति उसके प्राण तुरंत नहीं निकले । यदि कोई अपने प्राण खपाकर उसके काम की रक्षा करे तो गांधी फिर जी उठेगा, उसी प्रकार जिस प्रकार एक दिन ईसा जी उठे थे !” लिख लिया तो स्वयं उसे कई बार फुसफुसाकर पढ़ा, फिर झुककर यन्त्रवत् रोगी के कान के पास ले जाकर पढ़ने लगे पर रोगी में अब कोई चेतना न थी । उसकी फुसफुसाहट समाप्त हो चुकी थी । वह प्रगाढ़ निद्रा में सो गया था। डाक्टर उठे, उन्होंने अपने को सम्हाला, उनकी चेतना लौटी। उन्होंने रोगी की परीक्षा की। उन्हें लगा अब उनके वहां रहने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए वह उठे और नर्स से कहा – “सिस्टर, रोगी अब सवेरे से पहले नहीं जागेगा, फिर भी कोई बात हो तो मुझे सूचना जाये।”
"बहुत अच्छा ।"
"और देखो, जब यह जागे तो यह पत्र उसे दे देना ।"
"जी, दे दूंगी।"
उसके बाद डाक्टर चले गये। जैसे कि उनका विचार था, रोगी सूर्य के प्रकाश के साथ ही जागा । वह कई क्षण दृष्टि घुमाता रहा फिर अचरज से पूछा - " मैं कहां हूं ?"
नर्स ने उत्तर दिया – “क्यों ! आप अस्पताल में हैं । "
"मैं अस्पताल में हूं । अस्पताल में क्यों ?"
तभी नर्स ने डाक्टर का परचा उसे दिया । उसने एक बार नर्स को देखा फिर परचे को । उसे पढ़ा और रख दिया, पर दूसरे ही क्षण उसे फिर उठाया और पढ़ा । फिर एक दम नर्स से पूछा - " क्या वह जी सकता है ?"
"तो फिर ठीक है”—यह कहकर वह उठ बैठा । बहुत देर तक बैठा रहा, देखता रहा फिर खड़ा होकर बाहर जाने लगा। नर्स ने घबराकर पूछा - 'आप कहां जा रहे हैं ?"
हूं।"
"क्यों ? अपने घर ।"
"नहीं, नहीं, आप बीमार हैं... "
वह स्वस्थ व्यक्ति की भांति हंसा, बोला- “डरो नहीं, नर्स । मैं बिलकुल ठीक
" फिर भी डाक्टर से पूछे बिना आप नहीं जा सकेंगे ।"
तभी डाक्टर ने वहां प्रवेश किया। रोगी को खड़े देखकर वह मुस्कराये - " अहा सन्तकुमारजी, क्या हाल है ?"
सन्तकुमार ने कहा – “आपकी कृपा है डाक्टर साहब, मैं घर जा रहा हूं ।"
"अभी ?"
"जी हां ।"
" आप पूर्ण स्वस्थ हैं ।”
"जी हां, स्वस्थ होने के मार्ग का मुझे पता लग गया है । "
"ओह, इतनी शीघ्र ” डाक्टर ने हंसकर कहा । फिर बोले, "अभी ठहरो, चाय पीकर जाना ।”
पर सन्तकुमार रुका नहीं चला ही गया। जाते समय उसने डाक्टर की ओर ऐसी कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से देखा कि वह सकपकाकर रह गये, कुछ कह न सके। जाने के बाद ही उन्हें होश आया, पर अब वह पूर्ण शान्त थे । आज उन्होंने शल्य-चिकित्सा में एक अद्भुत आविष्कार किया था । प्रतिदिन वह शरीर चीरा करते थे, पर आज उन्होंने शरीर की आत्मा को चीरा था और यही दुःख भी था; क्योंकि जो सफलता आसानी से मिल जाती है वह आसानी से चली भी जाती है ।
उनका यह भय ठीक निकला । एक दिन डूबते सूर्य के प्रकाश में उन्होंने उसी भयावह मूर्ति को फिर देखा । तब वह अस्पताल से लौट कर कपड़े उतार रहे थे कि सुना कोई करुण में स्वर पुकार रहा है - "डाक्टर साहब ! डाक्टर साहब ! !” डाक्टर साहब चौंके। नौकर से कहा – “देखो कौन है ?"
नौकर ने आकर बताया-- " जी । मुझे तो कोई पागल जान पड़ता है ।" उनका माथा ठनका । आकर देखा तो सन्तकुमार सशरीर उपस्थित थे, पूछा— "कहिये क्या हाल है ?"
सन्तकुमार ने उत्तर दिया – "डाक्टर साहब ! मेरे मस्तिष्क में फिर तीव्र पीड़ा होने लगी है । कृपया उसे चीर दीजिए ।”
इस बार वह विक्षिप्त से अधिक दयनीय थे । डाक्टर क्षण भर कुछ नहीं बोले तो बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़कर कहा - "डाक्टर ! आप चिन्ता न करिये, आपरेशन कर दीजिये । बड़ी कृपा होगी ।"
डाक्टर बोले "ऑपरेशन तो अस्पताल में हो सकता है ।"
" तो मैं वहीं आऊंगा। कब आऊं ?"
" जब आप चाहें ।”
" तो मैं कल दोपहर को आऊंगा ।"
और फिर बिना कुछ कहे नम्रता से उठे और प्रणाम करके चले गये। चले गये तो डाक्टर को होश आया। शीघ्रता से फोन पर आये। कई डाक्टरों से उन्होंने मंत्रणा की और कल दोपहर को आने का निमंत्रण दिया। उन लोगों को भी इस विचित्र रोगी में दिलचस्पी थी इसलिए वे अगले दिन दोपहर को ठीक समय पर अस्पताल में आ उपस्थित हुए। धीरे-धीरे दोपहर बीतने लगा और डाक्टर नागेश का भय बढ़ने लगा कि इसी समय नर्स ने आकर कहा "डाक्टर ! जल्दी चलिए ।"
क्यों ? क्या वह आ गया ?
"जी हां, पर...।"
" पर क्या ?"
"वह बुरी तरह घायल है ।"
"ओह, क्या उसने अपना सिर फोड़ लिया ?”
"जी नहीं," उसके साथ आनेवाले व्यक्ति ने बताया – “उनके पड़ोस में एक मुसलमान के मकान को लेकर कई दिन से झगड़ा चल रहा था । एक स्थानीय समृद्ध व्यक्ति उसे घेरे हुए थे पर साथ ही शरणार्थी कहते थे । वह मकान उन्हें मिलना चाहिए इसी बात पर आज झगड़ा बढ़ गया। दोनों दल लाठियां ले आये । सन्तकुमार को पता लगा तो वे हाथ जोड़कर दोनों दलों से शान्ति की प्रार्थना करने लगे। कहा- 'आगे चलकर मकान किसी को मिले पर आज उसमें शरणार्थी ही रह सकते हैं ।' इस पर वे सज्जन बिगड़ उठे । झगड़ा यहां तक बढ़ा कि लाठियां चल गईं । सन्तकुमार से नहीं रहा गया। वे बीच में जा खड़े हुए और जो लाठियां एक दूसरे की हत्या करने को उठी थीं एक साथ उनके सिर पर पड़ी ।"
वे घायल के पास आ गये थे। डाक्टर नागेश का हृदय करुणा और आदर से द्रवीभूत हो रहा था । उन्होंने देखा — रक्त से लथपथ सन्तकुमार सामने लेटे हैं। उनका शरीर शिथिल है पर नेत्रों में अद्भुत शान्ति झलक उठी है । दृष्टि मिली तो वह मुस्कराये । संकेत से डाक्टर को पास बुलाया, कहा- "मैं व्यर्थ ही भटक रहा था । यह आपरेशन आप तो सौ जन्म में भी नहीं कर सकते थे। मेरे भाग्य अच्छे थे कि आज अचानक ही मुझे मेरे डाक्टर के दर्शन हो गये। उस दिन आपने संकेत तो किया था पर मैं ठीक समझ न सका । आज समझा हूं।"
वह बोल रहे थे और डाक्टर नागेश अपलक ध्यानस्थ की भांति उनको देख रहे थे; पर तभी सहसा उनकी दृष्टि कांपी, सकपकाकर कहा- "डा० कुमार, शीघ्रता करो इन्हें रूम नं० पांच में ले चलो। जल्दी...”
सन्तकुमार ने जाते-जाते उसी तरह कहा - "डरो नहीं डाक्टर ! मैं जिऊँगा । गांधीजी को पुनर्जीवित करने के लिए मुझे अभी बहुत दिन जीना होगा ।"