विधाता ने पदार्थ को बनाया, उसमें जड़ता की प्रतिष्ठा की और फिर विश्व में क्रीड़ा करने के लिए छोड़ दिया। पदार्थ ने पर्वत चिने और उखाड़ कर फेंक दिये, सरितायें गढ़ीं, उन्हें पानी से भरा और फूंक मार कर सुखा दिया; पहाड़ों की चोटियों पर भट्ठियाँ दहकाईं और ताप तूप कर उन्हें ठण्डा कर दिया । पदार्थ ने यह खेल करोड़ों वर्ष खेले । खिलौनों को बार-बार बनाया और बार-बार तोड़ा । वही खेल निरंतर खेलते-खेलते उसका मन ऊबा, वह हाथ पर हाथ धर कर बैठ गया, पर उससे बैठा भी न रहा गया। उसके भीतर एक अस्पष्ट व्यथा जगी । लगा कि उसमें हृदय उत्पन्न हो गया है । उसने अपने को संभालने की बहुत चेष्टा की । विश्व में सतत-क्रीड़ा में प्रवृत्त रहने के पिता के आदेश का स्मरण किया। अपने को कस कर रखना चाहा, पर अन्तर का आवेग अन्तर में समा न सका। वह उसके भार से फटने लगा । उसकी अस्थियां लरजने और पेशियां चटकने लगीं। वह पीड़ा से विहल हो गया, उसकी देह कांपने लगी और उसकी वाणी विधाता की स्तुति में फूट निकली । उसने अपने अहंकार का अर्ध्य देकर अपना मस्तक उनके सम्मुख टेक दिया।
वह गा उठा 'हे परम पिता, तुम्हारी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। मैं कोटि-कोटि वर्षों तक उसका पालन करता रहा हूँ, परन्तु हे देवता, मैं अब इस क्रीड़ा के भार से दब गया हूं। मुझे पता नहीं क्या हो गया है। मेरी दृष्टि मन्द पड़ गई है। मेरे सम्मुख का चिरस्पष्ट मार्ग आज तिरोहित होता जा रहा है । हे देव ! मैं मूढ़ हूँ, मैं आपकी शरण हूँ । आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं। हे कल्याणकर ! आप मुझे आलोक दीजिए । बताइये मैं आपकी आज्ञा का पालन किस प्रकार करूँ ?'
ऐसा कह अपने को परम पिता के हाथ में नितान्त सौंप उस पदार्थ ने अपनी निरीह चातक दृष्टि आकाश की ओर उठा दी और अजस्त्र अश्रुधारा नयनों से बह चलीं ।
अपने हृदय के रक्त को आँसू बना-बनाकर परम-पिता के चरणों में अर्ध्य देते उसे कितने ही युग बीत गए, पर उसकी व्यथा में कोई अन्तर नहीं पड़ा और न कोई अन्तर पड़ा उसकी तपस्या में ।
एक दिन शुभ मुहूर्त में एकाएक विधाता का आसन डोला । उनका ध्यान टूटा और उन्होंने विश्व पर दूर-दूर तक अपनी लीला-मयी दृष्टि फैंकी, वे मुस्काये, तभी उनकी दृष्टि अपनी ओर टकटकी लगाये पुत्र पदार्थ पर पड़ी। वे उत्सुक हो गये । पर पदार्थ की कठिनाई समझते उन्हें समय न लगा ।
वे खिलखिला कर हँस पड़े । बोले, “कहो पदार्थ कैसे हो ? तुम्हें तो बहुत कालांतर के पश्चात् देखा है, अच्छा बेटा वर मांगो ।”
पदार्थ ने हाथ जोड़कर अपना कष्ट निवेदन किया । बोला, "हे लीलापति, मेरी बुद्धि नहीं कि आपसे कुछ मांगू, जिससे मेरी पीड़ा को सांत्वना मिले और प्रभु की लीला का विकास हो, वही हे स्वामी, आप मुझे दीजिए ।”
विधाता के नयन स्नेह से भर आए । बोले, “पदार्थ, तुमने एकांत तपस्या से अपने अन्तर की जड़ता को पिघला लिया है। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, लो, मैं तुम्हें एक बहन देता हूं, यह तुम्हें लीला में सहायता देगी ।”
और तब विधाता ने अपने शरीर में से ज्योति का सिरजन कर पदार्थ की ओर बढ़ा दिया और कहा, “तुम्हारी इस बहन का नाम ज्योति है । तुम देखते हो कि इसके शरीर नहीं है, यह तुमसे छोटी है इसे बड़े यत्न से रखना ।”
पदार्थ ने मस्तक टेक कर विधाता को प्रणाम किया और ज्योति को दुलराता । के मंच पर आ गया ।
पदार्थ और ज्योति परस्पर खेलते और खेल-खेल में झगड़ पड़ते । पदार्थ ज्योति को पकड़ने के लिए हाथ पसारता; पर असफलता पर झुंझला उठता । ज्योति कुछ भी हो उससे छोटी ही है, वह उसकी अवज्ञा करती है। वह चाहता है कि खिलौना भूमि पर रहे, पर ज्योति है कि उसे आकाश में उड़ाना चाहती है। वह उसका यह अतिचार नहीं सहन करेगा। वह दांत पीसता और भिनभिना उठता ।
ज्योति इधर से उधर छटक जाती, उसके हाथ न आती । वह हाथ बगल में मारता तो वह उसके पीछे जा पहुंचती और उसके सिर पर हल्की सी चपत लगाकर खिलखिला पड़ती ।
"क्यों पदारथ भैया ।”
और पदार्थ झुंझला उठता । आगे-पीछे, दांये- बांये हाथ चलाता पर ज्योति पकड़ाई न देती । वह दांत पीसता, ओंठ काटता । इस शैतान बहन के साथ से तो वह अकेला ही भला था। विधाता ने यह क्या बला उसके सिर मँढ़ दी। पर वे तो परमपिता हैं, अयोग्य तो उनके हाथ से हो ही नहीं सकता और तब वह घुटनों में सिर दे हतोत्साह होकर बैठ जाता ।
ज्योति हँसती-हँसती एकदम चुप हो जाती । उसके निकट आती । ध्यान से उसकी मुद्रा को निहारती, एक पग आगे बढ़ती और फिर एकाएक द्रवित हो उठती । उसके बालों में उँगलियां चलाती हुई कहती, “क्यों पदार्थ भैया, तुम रूठ गये ? मुझसे क्रुद्ध हो गये हो क्या ?"
पदार्थ भैया का मन तत्काल पुलक उठता । उसे खींचकर गोद में लिटा लेते, कहते, "दुत पगली, मैं तुझसे क्रुद्ध क्यों होने लगा । सिर में कुछ पीड़ा अनुभव होने लगी थी इसीसे ..........”
"देखा भैया, वही हुआ न ! मैं कहती हूँ कि मिट्टी में इस तरह रम कर नहीं रहना चाहिए । संसार का चक्र तो चलता ही रहता है। चलो वन में सबसे ऊँचे वृक्ष के ऊपर चढ़कर बैठें। वहाँ शीतल वायु के दो झोंके लगे कि सिर की पीड़ा गई । "
तब वे दोनों हाथ पकड़ वन की दिशा में चल देते । ज्योति हाथ छुड़ाकर खिलखिलाती आगे भाग जाती। बस मेरे पीछे चले आओ, हां, लपक के ! “अरे तुम तो बूढ़े हो चले ।” और तब पदार्थ भी अपनी विशाल काया की असुविधा की चिंता तज उसके पीछे भाग निकलता ।
लीलामय ऊपर से यह देखते और इस आत्मदर्शन पर प्रसन्न होते ।
युगों के खेल में, अनेकों परीक्षणों के पश्चात् पदार्थ ने एक विचित्र प्रकार का खिलौना बनाने की विधि का आविष्कार कर लिया। इस नवीन खिलौने में विशेषता यह थी कि यह स्वयं इस खेल को समझने का ढोंग रचने लगा था । इसकी नाना चेष्टाओं से पदार्थ और ज्योति के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ जाते और विधाता भी मुस्का - मुस्का कर निरन्तर उनपर आशीर्वादों की वर्षा करते रहते थे । यह नवीन खिलौना अपने को मनुष्य के नाम से पुकारता था । पदार्थ, ज्योति और विधाता को यह इतना भाया कि उन्होंने अन्य प्रकार के खिलौनों के निर्माण में कमी कर दी । वे समस्त शक्ति इसी खिलौने पर व्यय करने लगे । अन्य खिलौने जो बनते रहे वे विशेषतया इसी दृष्टिकोण से कि मनुष्य को ही अधिक पूर्णतया सजाने के काम में आयें ।
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पिछले बहुत दिनों से पदार्थ यह खिलौने बनाता जाता था और बिगाड़ता जाता था । ज्योति खेल में भाग लेना चाहती थी; पर लगता था कि वह सकुचा रही है । वह कभी किसी खिलौने की नाक संवार देती, कभी किसी का हृदय छू देती; किसीकी भुजा पर फूंक मार देती और इससे वे खिलौने ऐसे चमक उठते कि टूटने के पश्चात् भी पदार्थ को उनकी याद बहुत दिनों तक आती रहती । पदार्थ को अनुभव हो रहा था कि ज्योति खेल में पूरा भाग नहीं ले रही है, खेल में अपना हृदय नहीं डाल रही है ।
उसने ज्योति की ओर अनुरोधपूर्ण दृष्टि उठाई। ज्योति ने उसकी दृष्टि का उत्तर दृष्टि से ही दिया, वह कह रही थी नहीं, मैं नहीं खेलूंगी ।
"क्यों !” पदार्थ ने पूछा ।
“खेल तो रही हूं, पदार्थ भैया !”
“ज्योति, झूठ क्यों बोलती हो ? मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन खेल में नहीं है, तुम किसी भी खिलौने में तो रुचि नहीं लेती।”
“खेल तो रही हूँ।” ज्योति ने जोर से कहा, “नहीं खिलाना चाहते तो वैसा कह दो ।"
ज्योति, तुम कैसी बातें करती हो, साथ खेलने के ही लिए तो मैं तुम्हें विधाता से माँग कर लाया हूँ । तुम्हारे लिए मैंने युगों तपस्या की है । यदि तुम्हें खिलाना न होता तो मैं इतना कष्ट क्यों उठाता । आओ खेलो, जी लगा के खेलो ।”
" पदार्थ भैया, तुम कहते तो हो, पर अपने हृदय से पूछ लो जब कभी किसी खिलौने के प्रति मैंने ममता प्रदर्शित की है तुम उसे सहन नहीं कर सके हो ।” “ज्योति !”
"हां, मैं असत्य तो नहीं कह रही हूँ, तुमने कहा था देखो मैं सिद्धार्थ बनाता हूं । मैंने उसमें रुचि ली थी। उसे संवार कर बुद्ध बना दिया, मैं जानती हूं कि तुम्हें मेरा वह सँवारना भाया नहीं और जब मैंने ईसा के हृदय को अपनी उँगलियों से तब भी तुम असन्तुष्ट हो गये । मुझसे तो तुमने कुछ नहीं कहा, पर उसे निर्ममता छुवा से टिकटिकी पर जड़ दिया। भैया, मैं अब किसी खिलौने के प्रति ममता नहीं दिखाऊँगी, मैं जो किसी-किसी को थोड़ा बहुत छू देती हूँ, उसीसे सन्तुष्ट हूँ | तुम बनाते जाओ, बिगाड़ते जाओ ।"
पर पदार्थ का मन न भरा। जिसमें प्रतियोगिता न हो वह खेल कैसा ? वह बोला – “ज्योति, मुझे तुम्हारा आरोप स्वीकार तो नहीं करना चाहिए, क्योंकि खिलौने तो सब टूटने को ही बनते हैं, पर मैं झगड़ा मिटाना चाहता हूँ इसलिए मान लेता कि मैं ही खेल में न्याय से डिगा हूँ। अच्छा आओ खेलो, अब ऐसा न होगा । लो, खिलौने बनाने में मेरी सहायता करो ।”
ज्योति पूरे हृदय से पुनः लीला में सम्मिलित हो गई ।
उसने ' सम्मुख बिखरे मनुष्यों के समूह को देखा । उसके मन में फिर दुविधा उत्पन्न हो गई । बोली, “पदार्थ भैया, मैं तुम्हारे सब खिलौनों में रुचि लेना नहीं चाहती । तुम जो उचित समझो वह खिलौना मुझे दे दो मैं उसे मन भर कर सजाऊँ सँवारूंगी, पर पहले कहे देती हूँ कि उसे तुम मुझसे मांग न सकोगे ।"
पदार्थ भैया का हृदय पिघल गया। बोले, "मैं क्या दूँगा, तू छांट ले जो तेरी समझ में आये ले ले। मैं तो अनगिनती नित्य बनाता - बिगाड़ता हूं, एक दो से मेरे यहां कमी नहीं आजायेगी ।
ज्योति ने अपनी दृष्टि उस समूह में दौड़ाई। उसने देखा कि करोड़ों मनुष्य अरबों प्रकार की उखाड़ - पछाड़ में लगे हुए हैं। एक धमा चौकड़ी मची हुई है। एकाएक ज्योति की दृष्टि मोहनदास करमचन्द गांधी नामक एक भारतीय जन पर स्थित हो गई । उस दृष्टि के कुछ क्षण गाँधी पर ठहरते ही पदार्थ के हृदय में खलबली मच गई । उसने अपनी दृष्टि उस ओर उठा दी । पाया कि ज्योति की पसन्द कोई विशेष नहीं है और वह पुनः अपनी लीला में व्यस्त हो गया । ज्योति ने अपनी प्रकाशवान् उँगलियाँ गांधी की ओर बढ़ानी प्रारम्भ कीं, वे जादू की उँगलियाँ ज्यों-ज्यों उसके निकट आती गईं गांधी में एक दिव्यालोक का प्रस्फुटन होता गया ।
पदार्थ भैया ने नरेशों और महंतों के ऊपर उड़ती हुई दृष्टि से दक्षिण अफ्रीका को देखा । उनकी दृष्टि गांधी पर अटक गई, वे कई क्षण उन्हें निहारते रहे, मन ही मन मुस्काये ।
ज्योति वास्तव में प्रसन्न है, शृंगार करने में वह वास्तव में कुशल है, नारी जो ठहरी । गांधी को सचमुच अच्छा सजाया है । पदार्थ ने अनुभव किया कि गांधी में जितने जड़त्व की स्थापना उसने की थी उतना वर्तमान नहीं है ।
उसने देखा कि गांधी के अधर हिल रहे हैं । उसने सुना -- सत्याग्रह, सत्याग्रह !
"यह क्या है ? पदार्थ ने अपने विशाल कारखाने के कोने-कोने को टटोल डाला । खंडित अधबने खिलौने और विविध औजार जहां पड़े थे उन शताब्दियों की धूलि चढ़ी अल्मारियों को खोज डाला। नहीं, सत्याग्रह नाम की कोई वस्तु वहाँ नहीं है । यह सत्याग्रह क्या है ? यह पदार्थ कुल का नहीं है । निःसन्देह यह उसके क्षेत्र के बाहर का आयुध है, तो क्या ज्योति ने यह आयुध गांधी को दिया है ? कैसी पगली है वह ! खिलौने के हाथ में हथियार । यदि कहीं !"
तब पदार्थ ने अपनी भौंहे हिलाई, उसके खिलौनों में खलबली मच गई। पर गांधी पर इसका कोई प्रमाण लक्षित न हुआ, संभव है गांधी ने उसकी दृष्टि देखी न हो । उसने गांधी की ओर अपनी भौंहे टेढ़ी कीं, पर गांधी ने अविश्वसनीय किया । उसने पदार्थ की दृष्टि मिला दी और स्थिर खड़ा हो गया । पदार्थ काँप उठा, उसकी अवहेलना !
क्या करना चाहती है यह ज्योति ?
पर गांधी को ज्योति ने कैसा सजाया है, उसका सौन्दर्य !
पदार्थ भैया फिर अपने कार्य में लग गये । विधाता अकेले जिसके दर्शक हैं और असंख्य जिसके पात्र हैं ऐसे नाटक के सूत्रधार पदार्थ ने अपना ध्यान पुनः रंग-मंच की अन्य आवश्यकताओं की ओर फेर दिया ।
उसकी दृष्टि समस्त - विश्व का भ्रमण कर जब भारतवर्ष की ओर लौटी तो एकाएक ठिठक गई । उसने इस व्यक्ति को पहले कहीं देखा है । वह अब पहले से अधिक सुन्दर है, उसका तेज बढ़ गया है। उसकी मुस्कान में एक विचित्र आकर्षण है । दृष्टि में एक शान्ति है, अनोखा सौन्दर्य है । नहीं नहीं, उसने उसे इतना सुन्दर नहीं बनाया था । यह तो वह खिलौना है जिसे ज्योति ने उससे ले लिया था ।
पदार्थ भैया के मन में उठा, पर इतना सौन्दर्य केवल ज्योति के श्रृंगार से नहीं आ सकता, यह असंभव है । यह खिलौना अवश्य पहले से ही सुन्दर रहा होगा । यह माना कि ज्योति शृंगार करना अच्छा जानती है, पर इतना शृंगार !
ज्योति देखने में ही इतनी सीधी-सादी लगती है । भोलापन चेहरे से टपका पड़ता है, पर वैसे है बड़ी चालाक !
पर पदार्थ भैया बोले कुछ नहीं, उन्हें लगने लगा कि ज्योति ने उन्हें ठग लिया है । मैं जो अच्छे खिलौने बनाता हूं उसी पर वह उँगली रख देती है। कहती है मुझे लाखों नहीं दो चार चाहिए। पर दो चार के नाम पर वह सबसे अच्छे छांट लेती है।
मैं भी कैसा मूर्ख हूं, जो छांट लेने देता हूँ, भविष्य में ऐसा नहीं होगा। इस बार मैं उसे सबसे भदा खिलौना दूँगा, देखूंगा, वह उसे कैसे सजाती है। चतुराई स्वयं प्रारम्भ करती है और फिर कहती है कि तुम रूंगटाई करते हो ।
पदार्थ भैया ज्योति की ओर से सतर्क हो गये। उन्होंने अपने खिलौनों पर शासन दृष्टि का कठोर संकेत फैलाया । नियम यह है कि जब पदार्थ का संकेत पाते थे तो मनुष्य जैसे उन्मत्त हो जाते थे । उनके सम्मुख नत मस्तक होकर स्वामी के मनोरंजक कार्यों में प्रवृत्त हो जाते थे । वे चोरियां करते, डाके डालते और अपनी ही जाति के रक्त से होली खेलने लगते। पदार्थ भैया ने देखा कि भारत में सब व्यक्तियों ने उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया है। एक स्थान की ओर मुख किये पर्याप्त लोग खड़े हैं। खड़े ही नहीं, वे उनकी ओर पीठ फेरकर उस दिशा में बढ़ भी रहे हैं। उन्होंने भौंह रूपी कमान को और खींचा। कुछ व्यक्ति लौट पड़े, पर अधिक थे जो उनकी ओर पीठ किये ही चलते रहे । उनकी भृकुटी बंकिमा में और वृद्धि हुई, पर इन मनुष्यों पर उसका प्रभाव लक्षित नहीं हुआ ।
क्रोध को दबाकर उनमें उत्सुकता जागी, यह कौन है जो उनके आज्ञाकारी खिलौनों को उनसे विमुख कर उनकी आज्ञा की अवहेलना करवा रहा है ।
पदार्थ भैया ने दृष्टि को व्यक्तियों के उस केन्द्र की ओर उठाया, पाया कि बीच में एक शैया है और उसके ऊपर लेटा है वही व्यक्ति, वही गाँधी-क्षीणकाय ! उसने उपवास किया हुआ है । पदार्थ को ठुकरा कर उसने इन पदार्थ के पुतलों का प्रेम प्राप्त कर लिया है। वह उसके साम्राज्य में विद्रोह का स्त्रष्टा है, ज्योति.........। और पदार्थ भैया ने अवलोका कि गाँधी अब पहले से भी सौन्दर्यवान् हो गया है । उसका सौन्दर्य अब उसके हृदय के निकट पहुंच गया ।
नहीं ! एक खिलौना उनका है। वह विद्रोह नहीं हैं। अच्छा, सुन्दर खिलौना है । यदि उनकी अन्य कृतियाँ एक सौन्दर्यवान् कृति की ओर आकृष्ट हुई तो यह उसके कला-कौशल को अर्ध्य है, यह उसकी कला की पराकाष्ठा है और पदार्थ भैया अपनी इस कलाकृति पर मोहित हो गये । यह उनकी है, उनकी ही है ।
ज्योति को खिलौना चाहिए। मैं कह दूँगा गांधी को तज कर और जिसे चाहे ले 1 मैं निःसंदेह अब अच्छे खिलौने बनाने लगा हूँ ।
ज्योति को अब मैं कुरूप खिलौना छाँट कर नहीं दूंगा । कह दूंगा जो तेरे जी में आये ले ले । जितने चाहे ले ले, जी भर कर उनका शृंगार कर ले ।
वे पदार्थ भैया तब गाँधी के प्रति पुलकित हो गये । उन्होंने अपनी दक्षिण भृकुटी का एक रोम हिलाया और तब जो व्यक्ति गांधी की ओर पीठ फेर कर जा रहे थे, वे रुपयों की थैलियां ले लेकर उसकी ओर दौड़ पड़े। उन्होंने अपना विश्राम उसे समर्पित कर दिया, अपना मस्तक उसके चरणों पर टेक दिया, पदार्थ भैया संतोष की मुस्कान मुस्काये ।
ज्योति ने पदार्थ भैया की ओर निहारा । गांधी के प्रति इनकी इतनी ममता क्यों ? उसे जैसा मैं चाहती हूं वैसा क्यों नहीं बनने देते। मैं उसकी जड़ता का हरण कर उसे व्योम - बिहारी बनाना चाहती हूँ और इन्होंने उसके पैरों से सोने का भार बांधना प्रारम्भ कर दिया है, जब मैंने उसके श्रृंगार पर इतना परिश्रम कर लिया है तब यह उसे मुझसे छीनना चाहते हैं । इन्होंने रुँगटाई प्रारम्भ कर दी है ।
बोली, “पदार्थ भैया, बस कीजिये । गांधी को मैंने सँवारा है, आप उसे हाथ न लगाइये । मैंने आपसे पहले ही कह दिया था कि मैं उसे आपको न लौटाऊँगी ।" पदार्थ भैया के मन में उठा कि ज्योति से स्पष्ट कह दे कि शृंगार करने से क्या होता है । बनाया तो मैंने है, वह मेरा है ।
पर उन्होंने अपने ऊपर संयम किया। बोले, “ज्योति घबराओ नहीं, मैं गाँधी को तुमसे नहीं लूँगा । तुम्हारा शृंगार मुझे भाया, इसीसे । सचमुच तुम शृंगार की कवियित्री हो ।”
ज्योति ने सुना और अविश्वस्त दृष्टि से भैया की ओर देखा । पदार्थ भैया में उस दृष्टि का सामना करने का साहस न हुआ, वे अपने खिलौनों की क्रीड़ा देखने लगे ।
ज्योति ने अपने मृदु हाथों से पदार्थ की पंक को गांधी से दूर हटा दिया ।
गांधी ने कहा, “पदार्थ की प्रभुता स्वीकार नहीं करता । वह तो ज्योति का वाहन मात्र है, मैं सत्य के पीछे हूँ और अपनी अन्तज्योंति की आज्ञा मानता हूं ।” पदार्थ भैया ने सुना, अधरों को दांत से दबा लिया । ऐसा सौन्दर्य और यह शौखी ! ऐसे प्यारे खिलौनों पर ज्योति का अधिकार ! नहीं, कदापि नहीं ।
ज्योति ने कहा, “पदार्थ भैया, आप मेरे खिलौने पर अपनी लोलुप-दृष्टि न लगाइये । मैं उसे अब आपके की कक्ष में दैवी आलोक से मण्डित करती हूं !” फिर हँसकर बोली, "देखिये इस बार आप सँगटाई न कीजियेगा ।"
पदार्थ ने कहा, “मुझ पर विश्वास रखो ज्योति ! विधाता ने तुमको मेरी रक्षा में दिया है, मैं तुम्हारे साथ अन्याय न करूँगा।”
और तब बापू ने अपना अन्तिम उपवास आरम्भ किया ।
ज्योति का चेहरा खिल उठा। देवताओं के आसन हिल गये। पदार्थ भैया अपने मन के उपर आसन मारकर बैठने की चेष्टा करने लगे ।
एकाएक उन्होंने पाया कि ज्योति ताली बजाकर नाच उठी है । उसकी दृष्टि एकटक गांधी की ओर है। पदार्थ भैया ने देखा कि गांधी उनकी सीमा से ऊँचा उठ जानेवाला है । कितना सुन्दर हो गया है इस समय वह !
वह ज्योति को दिये हुए आश्वासन भूल गया, विधाता के दिये हुए आदेश भूल गया, वह अपने आपको मोह में बिल्कुल भूल गया । ज्योति द्वारा श्रृंगारित गांधी के सौन्दर्य को निरख कर वह पागल हो गया। उसने अपने दोनों हाथ गांधी को झपट लेने को बढ़ा दिये ।
पर ज्योति पदार्थ भैया के मन की बात समझ रही थी और पहले से तैयार थी । उसने लपक कर गांधी को गोद में छिपा लिया ।
पदार्थ भैया ने अपने को खो दिया। वे चीख उठे, “ज्योति, छोड़ दो इसे, यह मेर खिलौना है ।" "पर भैया आपने तो... "1" ज्योति ने विनय की, "मैंने, तो गांधी तुम्हें खेलने को दिया था। उसे मैंने बनाया है, वह मेरा है, मैं मांगता हूं। तुम मुझे लौटा दो, मैं अब उसे तुम्हें नहीं देना चाहता ।"
" पदार्थ भैया, तुम बहुत अच्छे हो। देखो, मैंने उसकी शृंगार करने में कितना परिश्रम किया है ।"
" पर तुम उससे खेली भी तो हो, लाओ अब मुझे दे दो ।"
"भैया, यह अन्याय है ।"
"चुप रहो, मैं कहता हूँ गांधी को छोड़ दो ।"
"भैया !”
“गांधी को छोड़ दो ।” उन्होंने आँखें निकालीं ।
“मैं नहीं छोडूंगी ।”
"नहीं छोड़ेगी ?"
"नहीं ।"
“फिर रोयेगी, देखता हूँ कैसे वह तेरा है ।”
और तब पदार्थ ने दहकती लोह-शलाकाओं के समान अपनी तीन लम्बी उँगलियाँ गांधी के शरीर की ओर बढ़ा दीं। ज्योति ने गांधी को बचाने की बहुत चेष्टा की पर उसकी अशरीरी सीमा थी। पदार्थ की वे घातक उँगलियाँ गांधी के वक्षस्थल और उदर से छू गई । पाले से जैसे कमल मुरझा जाता है उसी भाँति गांधी का शरीर उनके स्पर्श से झुलस उठा ।
ज्योति ने चीखकर गांधी की मिट्टी को अंक से गिरा दिया ।
“पदार्थ भैया, तुमने यह क्या किया ?”
पदार्थ ने सुना नहीं, वह गांधी के शरीर की ओर झपट पड़ा । पर उस शरीर में अब वह सौन्दर्य न था, वह तेज़ तिरोहित हो चुका था, वह पागल हो उठा। अपनी उँगलियों को तोड़ता हुआ चीख कर रो उठा ।
ज्योति निरन्तर ऊपर की ओर निरख रही थी उसी भाँति जैसे बालक आकाश की ओर चढ़ते हाथ से छूटे गुब्बारे की ओर ताकता है । ज्योति का किया हुआ गांधी का शृंगार अध्य की भांति विधाता के चरणों की ओर उठता जा रहा था ।
ज्योति ने कहा, “पदार्थ भैया रोवो नहीं देख सकते हो तो वह देखो। गांधी का सौन्दर्य परम पिता की ओर बढ़ा जा रहा है। वहाँ वह युगों तक चमकता रहेगा । वह देखो !"
पदार्थ भैया ने दृष्टि ऊपर उठाई ।
फिर ज्योति के पैर पकड़ लिये । "ज्योति, ज्योति ! तुमने मेरे नयनों को भी त्याग दिया, तुम कहाँ चली गई । मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, ज्योति तुम मुझे क्षमा करो । गांधी पर मेरा नहीं तुम्हारा अधिकार है ।"
"भैया !"
पर पदार्थ भैया जैसे विक्षिप्त हो गये थे, “मैंने यह क्या किया ज्योति ? बता मैंने यह क्या किया ? अरी बोल तो ।”
और तब गांधी के शरीर को लेकर उन्होंने छाती से लगा लिया। और उसे चूमने लगे, चूमते रहे और चूमते चले गये ।
लगता है कि उनका यह चूमना एक दो युग
में समाप्त होनेवाला नहीं है ।