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अध्याय 1 : बड़े भाईसाहब

13 अगस्त 2023

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मेरे भाई मुझसे पाँच साल बड़े थे; लेकिन केवल तीन दर्जे आगे । उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था, जिसमें मैंने शुरू किया, लेकिन तालीम जैसे महत्त्व के मामले में वह जल्दीबाज़ी से काम लेना पसन्द न करते थे। इस भवन की बुनियाद खूब मज़बूत डालनी चाहते थे, जिसपर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे । कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख़्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने ।

मैं छोटा था, वह बड़े थे। मेरे उम्र नौ साल की, वह चौदह साल के थे। उन्हें मेरी तम्बीह और निगरानी का पूरा और जन्मसिद्ध अधिकार था । और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्म को कानून समझें ।

वह स्वभाव से बड़े अध्ययन - शील थे। हरदम किताब खोले बैठे रहते । और शायद दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों की तस्वीरें बनाया करते थे । कभी-कभी एक ही नाम या शब्द या वाक्य दस-बीस बार लिख डालते । कभी एक शेर को बार-बार सुन्दर अक्षरों में नकल करते । कभी ऐसी शब्द रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता न कोई सामंजस्य । मसलन एक बार उनकी कापी पर मैंने यह इबारत देखी — स्पैशल, अमीना, भाइयो - भाइयो, दरअसल, भाई-भाई, राधेश्याम, श्रीयुत् राधेश्याम, एक घण्टे तक—इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था । मैंने बहुत चेष्टा की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूं; लेकिन असफल रहा। और उनसे पूछने का साहस न हुआ । वह नवीं जमात में थे, मैं पाँचवीं में उनकी रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बड़ी बात थी ।

मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था । एक घण्टा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था । मौका पाते ही होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता, और कभी कंकरियां उछालता, कभी कागज़ की तितलियां उड़ाता, और कहीं कोई साथी मिल तो पूछना ही क्या। कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी फाटक पर सवार उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटर कार का आनन्द उठा रहे हैं, लेकिन कमरे में आते ही भाईसाहब का वह रुद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते । उनका पहला सवाल होता — कहां थे ? हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में हमेशा पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था । न जाने मेरे मुंह से यह बात क्यों न निकलती कि ज़रा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मेरा अपराध स्वीकार है । और भाईसाहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि स्नेह और रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें :-

"इस तरह अंग्रेज़ी पढ़ोगे, तो ज़िन्दगी भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ न आएगा । अंग्रेजी पढ़ना कोई हँसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले; नहीं तो ऐरा - गैरा, नत्थू खैरा सभी अंग्रेज़ी के विद्वान् हो जाते। यहां रात-दिन आंखें फोड़नी पड़ती हैं, और खून जलाना पड़ता है, तव कहीं यह विद्या आती है। और आती क्या है, हां, कहने को आ जाती है । बड़े-बड़े विद्वान् भी शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा । और मैं कहता हूं, तुम कितने घोंघा हो कि देखकर भी सबक नहीं लेते । मैं कितनी मेहनत करता हूँ, यह तुम अपनी आंखों देखते हो, अगर नहीं देखते, तो यह तुम्हारी आंखों का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है । इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है ? रोज़ ही क्रिकेट और हाकी मैच होते हैं मैं पास नहीं फटकता । हमेशा पढ़ता रहता हूं, उसपर भी एक-एक दर्जे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूँ, फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कूद में वक्त गँवाकर पास हो जाओगे ? मुझे तो दो ही तीन साल लगते हैं; तुम उम्र भर इसी दर्जे में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें इस तरह उम्र गँवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मज़े से गुल्ली-डण्डा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों बरबाद करते हो ?"

मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगता । जवाव ही क्या था । अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे ? भाईसाहब उपदेश की कला में निपुण थे। ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्ति-वाण चलाते, कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्मत टूट जाती । 

इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने की शक्ति मैं अपने में न ओर उस निराशा मेँ जरा देर के लिए मँ सोचने लगता- क्यों न घर चला जाऊँ । जो काम मेरे बूते के वाहर है, उसमें हाथ डालकर क्यो अपनी जिन्दगी खराग करूं ? मजने मूर्खं रहना मंजूर था लेकिन उतनी मेहनत । मुञ्चे तो चक्कर आ जाता था, लेकिन घण्टे-दो घण्टे के वाद निराशा के बादल फट जाते ओर मै इरादा करता कि आगे से खूब जी लगाकर पदूंगा । चटपट एक टाइम-टेबुल बना डालता । विना पहले से नकृशा बनाए, कोई स्कीम तैयार किए काम कैसे शुख कं ? टाइम-टेबुल मे खेल-कूद की मद बिलकुल उड़ जाती । प्रातःकाल उठना, छः बजे हाथ-मुंह धो, नाश्ता कर पढने वैठ जाना, छः से आठ तक अगरेजी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन ओर स्कूल । साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आधा घण्टा आराम, चार से पांच तक भूगोल, पांच से छः तक ग्राम, आधा घण्टा होस्टल के सामने ही टहलना, साढ़े छः से सात तक अग्रेजी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्यारह तक विविध-विषय, फिर विश्राम । । मगर टाइम-टेबुल वना लेना एक बात है, उसपर अमल करना दूसरी वात ।

 
पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शरू हो जाती । भेदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हलके-हलके ओके, फुट-बाल की वह उछल-कूद, कबड़ी के वह दांव-घात, वोली-बाल की वह तेजी ओर फु मुञ्े अज्ञात ओर अनिवार्यं रूप से खीच ले जाती ओर वहां जाते ही मेँ सब कु भूल जाता । वह जान-लेवा टाइम-टेुल, वह ओंख-फोड पुस्तके, किसी को याद न रहती, ओर फिर भाई-साहव को नसीहत ओर फुजीहत का अवसर मिल जाता । उनके साये से भागता, उनकी आंखों से दूर रहने की चेष्टा करता, कमरे मेँ इस तरह दवे पाव आता कि उन्हें खबर न हो ! उनकी
नजर मेरी ओर उटी ओर मेरे प्राण निकले । हमेशा सिर पर एक नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती । फिर भी जैसे मौत ओर विपत्ति के बीच में भी आदमी मोह ओर माया के वन्धन मेँ जकड़ा रहता है, मँ फटकार ओर घुडकियां खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता ।

 (२)  

सालाना इम्तहान हुआ । भाईसाहव फेल हो गये, मँ पास हयो गया ओर दर्जे मे प्रथम आया । मेरे ओर उनके बीच मेँ केवल दो साल का अन्तर रह गया । जी में आया, भाई साहव को आड हाथों लूँ--आपकी वह घोर तपस्या कां गई ? मुझे देखिए, मज़े से खेलता भी रहा और दर्जे में अव्वल भी हूँ। लेकिन वे इतने दुखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पड़ा। हां, अब अपने ऊपर मुझे कुछ अभिमान हुआ और आत्माभिमान भी बढ़ा । भाईसाहब का रोब मुझपर न रहा । आज़ादी से खेल-कूद तो में शरीक होने लगा । दिल मज़बूत था । अगर उन्होंने फिर मेरी फ़ज़ीहत की, साफ कह दूँगा – आपने अपना खून जलाकर कौन - सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते दर्जे में अव्वल आ गया। ज़बान से वह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ जाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक मुझपर नहीं है । भाई साहब ने इसे भांप लिया उनकी सहज बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली-डण्डे की भेंट करके ठीक भोजन के समय लौटा तो भाईसाहब ने मानो तलवार खींच ली और मुझपर टूट पड़े- देखता हूं कि इस साल पास हो गए और दर्जे में अव्वल आ गए, तो तुम्हें दिमाग़ हो गया है; मगर भाई जान, घमंड तो बड़े-बड़ों का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती है ! इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा। उसके चरित्र से तुमने कौन-सा उपदेश लिया ? या योंही पढ़ गये ? महज़ इम्तहान पास कर लेना कोई चीज़ नहीं, असल चीज़ है बुद्धि का विकास । जो कुछ पढ़ो उसका अभिप्राय समझो । रावण भूमण्डल का स्वामी था । ऐसे राजों को चक्रवर्ती कहते हैं । आज-कल अंग्रेज़ों के राज्य का विस्तार बिलकुल बढ़ा हुआ है, पर इन्हें चक्रवर्ती नहीं कह सकते । संसार में अनेकों राष्ट्र अंग्रेज़ों का आधिपत्य स्वीकार नहीं करते। बिलकुल स्वाधीन हैं। रावण चक्रवर्ती राजा था, संसार के सभी महीप उसे कर देते थे। बड़े-बड़े देवता उसकी गुलामी करते थे। आग और पानी के देवता भी उसके दास थे, मगर उसका अन्त क्या हुआ ? घमण्ड ने उसका नाम-निशान तक मिटा दिया, कोई उसे एक चुल्लू पानी देने वाला भी न बचा । आदमी और जो कुकर्म चाहे करे, पर अभिमान न करे, इतराए नहीं । अभिमान किया और दीन-दुनिया दोनों से गया। शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा । उसे यह अभिमान हुआ कि ईश्वर का उससे बढ़कर सच्चा भक्त कोई है ही नहीं । अन्त में यह हुआ कि स्वर्ग से नर्क में ढकेल दिया गया । शाहे रूम ने भी एक बार अहंकर किया था । भीख मांग-मांगकर मर गया । तुमने अभी केवल एक दर्जा पास किया है, और अभी तुम्हारा सिर फिर गया, तब तो तुम आगे बढ़ चुके । यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए, अंधे के हाथ बटेर लग गई। मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं लग सकती । 

कभी-कभी गुल्ली-डण्डे में भी अन्धा - चोट निशाना पड़ जाता है। इससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता । सफल खिलाड़ी वह है जिसका कोई निशाना खाली न जाय। मेरे फेल होने पर मत जाओ। मेरे दर्जे में आओगे, तो दाँतों पसीना जाएगा, जब अलजबरा और जॉमेट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे, और इंगलिस्तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा । बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं। आठ-आठ हेनरी हो गुज़रे हैं। कौन-सा काण्ड किस हेनरी के समय में हुआ, क्या यह याद कर लेना आसान समझते हो ? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नम्बर गायब ! सफाचट ! सिफर भी न मिलेगा सिफर भी ! हो किस ख्याल में ? दरजनों तो जेम्स हुए हैं, दरजनों विलियम, कोड़ियों चार्ल्स ! दिमाग़ चक्कर खाने लगता है। आंधी रोग हो जाता है। इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे। एक ही नाम के पीछे दोयम, सोयम, चहारम, पंचम लगाते चले गए। मुझसे पूछते तो दस लाख नाम बतला देता । जॉमेट्री तो बस खुदा की पनाह ! अब ज की जगह अ ज ब लिख दिया तो सारे नम्बर कट गए। कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ जब में क्या फर्क है। और व्यर्थ की बात के लिए क्यों छात्रों का खून करते हैं ? दाल-भात-रोटी खाई या भात दाल-रोटी खाई, इसमें क्या रखा है, मगर इन परीक्षकों को क्या परवाह, वह तो वही देखते हैं जो पुस्तक में लिखा रहता है। चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डालें। और इसी रटन्त का नाम शिक्षा रख छोड़ा है, और आखिर इन बे-सिर पैर की बातों के पढ़ने से फायदा ? इस रेखा पर वह लम्ब गिरा दो, तो आधार लम्ब से दुगुना होगा । पूछिए इससे प्रयोजन ? दुगुना नहीं चौगुना हो जाय, या आधा ही रहे, मेरी बला से; लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेंगी। कह दिया--' समय की पाबन्दी' पर एक निबन्ध लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो। अब आप कापी सामने खोलें, कलम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए। कौन नहीं जानता कि समय की पाबन्दी बहुत अच्छी बात है, इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरों का उसपर स्नेह होने लगता है और उसके कारोबार में उन्नति होती है, लेकिन इस ज़रा सी बात पर चार पन्ने कैसे लिखें ? जो बात एक वाक्य में कही जा सके, उसे चार पन्नों में लिखने की ज़रूरत ? मैं तो इसे हिमाकत कहता हूं। यह तो समय की किफायत नहीं, बल्कि उसका दुरूपयोग है कि व्यर्थ में किसी बात को ठूंस दिया जाय। 

हम चाहते हैं आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले, मगर नहीं, आपको चार पन्ने रंगने पड़ेंगे, चाहे जैसे लिखिए। और पन्ने भी पूरे फुलस्केप के आकार के ! यह छात्रों पर अत्याचार नहीं तो और क्या है ? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है। कि संक्षेप में लिखो 'समय की पाबन्दी' पर संक्षेप में एक नोट लिखो, जो चार पन्नों से कम न हो । ठीक संक्षेप में तो चार पन्ने हुए, नहीं शायद सौ-दो सौ पन्ने लिखवाते । तेज़ भी दौड़िए और धीरे भी । है उल्टी बात या नहीं ? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है; लेकिन इन अध्यापकों को इतनी तमीज़ भी नहीं । उसपर दावा है कि हम अध्यापक हैं। मेरे दर्जे में आओगे लाला तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे, और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। इस दर्जे में अव्वल आ गए, तो ज़मीन पर पांव नहीं रखते। इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूं, संसार का मुझे तुमसे ज्यादा अनुभव है । जो कुछ कहता हूं उसे गिरह बांधिए, नहीं तो पछताइएगा ।"

स्कूल का समय निकट था, नहीं ईश्वर जाने यह उपदेश - माला कब समाप्त होती । भोजन आज मुझे निस्स्वादु-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जांय । भाई साहब ने अपने दर्जे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था, उसने मुझे भयभीत कर दिया । कैसे स्कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्जुब है; लेकिन इतने तिरस्कार पर भी पुस्तकों में मेरी अरुचि ज्यों-की-त्यों बनी रही । खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से जाने न देता । पढ़ता भी था; मगर बहुत कम, बस इतना कि रोज़ का स्टाक हो जाय और दर्जे में ज़लील न होना पड़े। अपने ऊपर जो विश्वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्त हो गया, और फिर चोरों का-सा जीवन कटने लगा ।

( ३ )

फिर सालाना इम्तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं फिर पास हुआ और भाईसाहब फिर फेल हो गये। मैंने बहुत मेहनत नहीं की; पर न जाने कैसे दर्जे में अव्वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्द चाट गए थे। दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उधर, छः से साढ़े नौ तक स्कूल जाने के पहले । मुद्रा कान्तिहीन हो गई थी, मगर बेचारे फेल हो गए । मुझे उनपर दया आती थी। 

नतीजा सुनाया गया तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने की खुशी आधी हो गई। मैं भी फेल हो गया तो भाई साहब को इतना दुःख न होता; लेकिन विधि की बात कौन टाले ?

मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दर्जे का अन्तर और रह गया । मेरे मन में एक कुटिल भावना और उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फेल हो जायं, तो मैं उनके बराबर हो जाऊँ, फिर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेंगे; लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल से बल पूर्वक निकाल डाला । आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डांटते हैं। मुझे इस वक्त अप्रिय लगता है अवश्य, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनादन पास हो जाता हूँ और इतने अच्छे नम्बरों से । अब की भाईसाहब बहुत कुछ नर्म पड़ गए थे। कई बार मुझे डांटने का अवसर पाकर भी उन्होंने धीरज से काम लिया, शायद अब वह खुद समझने लगे थे कि मुझे डाँटने का अधिकार उन्हें नहीं रहा था, या रहा तो बहुत कम । मेरी स्वच्छन्दता भी बढ़ी, मैं उनकी सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा । मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं तो पास हो ही जाऊँगा पढूं या न पढ़ें, मेरी तकदीर बलवान है; इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बन्द हुआ। मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक पैदा हो गया था, और अब सारा समय पतंग बाज़ी ही की भेंट होता था; फिर भी मैं भाईसाहब का अदब करता था, और उनकी आंख बचाकर कनकौए उड़ाता था । माँझा देना, कने बांधना, पतंग टूरनामेंट की तैयारियाँ आदि समस्याएँ सब गुप्त रूप से हल की जाती थीं । मैं भाईसाहब को यह सन्देह न करने देना चाहता था कि उनका सम्मान और लिहाज़ मेरी नज़रों में कम हो गया है ।

एक दिन सन्ध्या समय होटल से दूर मैं एक कनकौवा लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था । आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मन्द गति से झूमता पतन की ओर चला आ रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नये संस्कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों की एक पूरी सेना लम्बे और झाड़दार बांस लिए उनका स्वागत करने को दौड़ी आ रही थी। किसी को अपने आगे-पीछे की ख़बर न थी, सभी मानों उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहाँ सब कुछ समतल है; न मोटर कारें हैं, न ट्राम न गाड़ियां ।

सहसा भाईसाहब से मेरी मुठभेड़ हो गई, जो शायद बाज़ार से लौट रहे थे । उन्होंने वहीं मेरा हाथ पकड़ लिया और उग्र भाव से बोले - "इन बाज़ारी लौंडों के साथ धेले के कनकौवे के लिए दौड़ते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ? तुम्हें इसका भी कुछ लिहाज़ नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो; बल्कि आठवीं जमाअत में आ गए हो और मुझसे केवल एक दर्जा नीचे हो । 

आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोज़ीशन का ख्याल करना चाहिए। एक ज़माना था कि लोग आठवां दर्जा पास करके नायब-तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने ही मिडिलचियों को जानता हूं, जो आज अव्वल दर्जे के डिप्टी मजिस्ट्रेट या सुपरिन्टेन्डेन्ट हैं। कितने ही आठवीं जमाअत वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रों के सम्पादक हैं। बड़े-बड़े विद्वान् उनकी मातहती में काम करते हैं और तुम उसी आठवें दर्जे में आकर बाज़ारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो । मुझे तुम्हारी इस कमअकली पर दुःख होता है । तुम ज़हीन हो, इसमें शक नहीं। लेकिन वह जहन किस काम का, जो हमारे आत्मगौरव की हत्या कर डाले, तुम अपने दिल में समझते होगे कि मैं भाईसाहब से महज़ एक दर्जा नीचे हूं, और अब उन्हें मुझको कुछ कहने का हक नहीं है; लेकिन यह तुम्हारी गलती है। मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और चाहे आज तुम मेरी ही जमाअत में आ जाओ- और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्सन्देह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे, और शायद एक साल बाद मुझसे आगे भी निकल जाओ —— लेकिन मुझमें और तुममें तो पांच साल का अन्तर है, उसे तुम क्या, खुदा भी नहीं मिटा सकता। मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और हमेशा रहूंगा। मुझे दुनिया का और जिन्दगी का जो तजरबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एम० ए० और डी० लिट और डी० फिल० ही क्यों न हो जाओ। समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती, दुनिया देखने से आती है। हमारी मां ने कोई दर्जा नहीं पास किया और दादा भी शायद पांचवीं - छठी जमाअत के आगे नहीं गये, लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विद्या पढ़ लें, अम्मा और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा । केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मदाता हैं बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का इससे ज्यादा तजरबा है और रहेगा । अमेरिका में किस तरह की राज व्यवस्था है, और आठवें हेनरी ने कितने ब्याह किए और आकाश में कितने नक्षत्र हैं, यह बातें चाहे उन्हें न मालूम हों; लेकिन हज़ारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्हें हमसे और तुमसे ज्यादा है । दैव न करे, आज मैं बीमार हो जाऊँ, तो तुम्हारे हाथ-पांव फूल जायेंगे । दादा को तार देने के सिवाय तुम्हें और कुछ न सूझेगा; लेकिन तुम्हारी जगह दादा हों, तो किसी को तार न दें, न घबराएँ, न बदहवास हों । 

पहले खुद मर्ज़ पहचान कर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डाक्टर को बुलाएँगे। बीमारी तो खैर बड़ी चीज़ है, हम तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने भर का खर्च महीना भर कैसे चले । जो कुछ दादा भेजते हैं, उसे हम बीस-बाईस दिन तक खर्च डालते हैं, और फिर पैसे पैसे को मुहताज हो जाते हैं। नाश्ता बन्द हो जाता है, धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं; लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे हैं उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्ज़त और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुम्ब का पालन किया है जिसमें सब मिलाकर नौ आदमी थे । अपने हेडमास्टरसाहब ही को देखो, एम० ए० हैं कि नहीं; और यहाँ के एम० ए० नहीं, आक्सफोर्ड के एक हज़ार रुपये पाते हैं, लेकिन उनके घर का इन्तज़ाम कौन करता है ? उनकी बूढ़ी मां । हेडमास्टरसाहब की डिग्री यहाँ बेकार हो गई । पहले खुद घर का इन्तज़ाम करते थे । खर्च पूरा न पड़ता था, कर्ज़दार रहते थे जबसे उनकी माताजी ने प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गई है । तो भाईजान, यह ग़रूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गए हो, और अब स्वतन्त्र हो । मेरे देखते तुम बेराह न चलने पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे तो मैं (थप्पड़ दिखा कर ) इसका प्रयोग भी कर सकता हूं। मैं जानता हूं, तुम्हें मेरी बातें ज़हर लग रही है।"

मैं उनकी इस नयी युक्ति से नतमस्तक हो गया । मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाईसाहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई । मैंने सजल आंखों से कहा— हरगिज़ नहीं । आप जो कुछ फरमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है, और आपको उसके कहने का अधिकार है

भाईसाहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले- मैं कनकौवे उड़ाने को मना नहीं करता । मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन करूँ क्या, खुद बेराह चलूं, तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ ? यह कर्तव्य भी तो मेरे सिर है ।

संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौवा हमारे ऊपर से गुज़रा । उसकी डोर लटक रही थी । लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाईसाहब लम्बे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होस्टल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था ।


 
 

मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत सजीव और सुन्दर लिखा है आपने सर 👌, 🙏 मेरी पुस्तक पढ़कर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏

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ज्ञान को एक रात सोते समय भगवान् ने स्वप्न-दर्शन दिए और कहा – “ज्ञान मैंने तुम्हें अपना प्रतिनिधि बना कर संसार में भेजा है। उठो, संसार का पुनर्निर्माण करो ।” ज्ञान जाग पड़ा । उसने देखा, संसार अन्धकार

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अध्याय 9 : मास्टर साहब

13 अगस्त 2023
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न जाने क्यों बूढ़े मास्टर रामरतन को कुछ अजीब तरह की थकान - सी अनुभव हुई और सन्ध्या-प्रार्थना समाप्तकर वे खेतों के बीचोंबीच बने उस छोटे-से चबूतरे पर बिछी एक चटाई पर ही लेट रहे । सन् १६४७ के अगस्त मास

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अध्याय 10 : मैना

14 अगस्त 2023
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अलियार जब मरा तो दो पुत्र, छोटा-सा घर और थोड़ी-सी ज़मीन छोड़कर मरा । दसवें के दिन दोनों भाई क्रिया-कर्म समाप्त करके सिर मुंडाकर आये, तो आने के साथ ही बटवारे का प्रश्न छिड़ गया, और इस समस्या के समाधान

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अध्याय 11: खिलौने

15 अगस्त 2023
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 जब सुबह का धुंधला प्रकाश आसपास के ऊंचे मकानों को पार करके अहाते में से होता हुआ उसकी अंधेरी कोठरी तक पहुंचा, तो बूढ़े खिलौने वाले ने आंखें खोली । प्रभात के भिनसारे में उसके इर्द-गिर्द बिखरे हुए खि

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अध्याय 12: नुमायश

15 अगस्त 2023
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नुमायश का अहाता बनकर तैयार हो चुका था । बीच-बीच में फुलवारी की क्यारियां लग चुकी थीं । दुकानों और बाज़ारों की व्यवस्था भी करीब-करीब हो ही गई थी । कुछ सजधज का काम अभी कहीं-कहीं बाकी था। मिस्त्री बिजल

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अध्याय 13: जीजी

15 अगस्त 2023
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“यही हैं ?” आश्चर्य से इन्दु ने पूछा । "हां" उपेक्षा से गर्दन हिलाकर सुरेखा ने उत्तर दिया । " अरे !" इन्दु ने एक टुकड़ा समोसे का मुंह में रखते-रखते कहा – “अच्छा हुआ सुरेखा तुमने मुझे बता दिया, नही

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अध्याय 14: ज्योति

15 अगस्त 2023
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विधाता ने पदार्थ को बनाया, उसमें जड़ता की प्रतिष्ठा की और फिर विश्व में क्रीड़ा करने के लिए छोड़ दिया। पदार्थ ने पर्वत चिने और उखाड़ कर फेंक दिये, सरितायें गढ़ीं, उन्हें पानी से भरा और फूंक मार कर सुख

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अध्याय 15: चोरी !

15 अगस्त 2023
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 कमरे को साफ कर झाड़ू पर कूड़ा रखे जब बिन्दू कमरे से बाहर निकला तो बराण्डे में बैठी मालती का ध्यान उसकी ओर अनायास ही चला गया । उसने देखा कि एक हाथ में झाड़ू है; पर दूसरे हाथ की मुट्ठी बंधी है और कुछ

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अध्याय 16: जाति और पेशा

15 अगस्त 2023
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अब्दुल ने चिन्ता से सिर हिलाया । नहीं, यह पट्टी उसीकी है। वह रामदास को उसपर कभी भी कब्जा नहीं करने देगा । श्याम जब मरा था तब वह मुझसे कह गया था । रामदास तो उस वक्त नहीं था । उसका क्या हक है ? आया बड़ा

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अध्याय 17: आपरेशन

15 अगस्त 2023
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डा० नागेश उस दिन बड़ी उलझन में पड़ गये। वह सिविल अस्पताल के प्रसिद्ध सर्जन थे । कहते हैं कि उनका हाथ लगने पर रोगी की चीख-पुकार उसी प्रकार शान्त हो जाती थी जिस प्रकार मा को देखते ही शिशु का क्रन्दन बन्

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