*जैसे कुम्हार मिट्टी को गीली करके रौंदता है , अब वह रौंदता है तो मर्जी है , कुछ बनाता है तो मर्जी है , पहले सिर पर उठाकर लाया तो मर्जी है , चक्के पर चढाकर घुमाता है तो उसकी मर्जी है* । मिट्टी नहीं कहती कि क्या बनाते हो ? घडा बनाओ , सकोरा बनाओ , मटकी बनाओ , चाहे सो बनाओ । मिट्टी अपनी कोई मर्जी नहीं रखती । *इसी तरह अपना बल कुछ नहीं है , हम तो भगवान के चरणों में आ गये , अब उसके हैं , अब वह चाहे जन्म दे चाहे मरण दे , जैसी उसकी मर्जी है वैसा करे । हम अपना जीवन ऐसा बनाऐं कि सब तरह के संकल्प - विकल्प छोडकर केवल भगवान की शरण हो जायें* । "