*जिसने अपने "क्रोध" और "वाणी" पर नियंत्रण कर लिया, वही जीवन में सदा सुखी रहता है, बोलना तो सबको आता है, किंतु कहां,? कब,? क्या,? किससे,? और कितना बोलना है,? ये सीखने में पूरा "जीवन" गुजर जाता है, शरीर पर लगा "ज़ख्म" तो एक ना एक दिन भर जाता है, किंतु वाणी का ज़ख्म नासूर बन जाता है, और जीवन में कभी भर नहीं पाता है, वाणी से ही किसी के दिल में उतरा जा सकता है, और दिल से भी उतरा जा सकता है, वाणी ही दिलों को जोडती भी है और "दिलों" को तोड़ती भी है, प्रिय वाणी से आप सबके प्रिये बने रहेंगे, और जो सबको प्रिय होगा, निसंदेह वो "कृष्ण" को भी प्रिय ही होगा, "कृष्ण" तो हर समय, हर जगह, एक समान रूप से व्याप्त है, कोई भी स्थान ऐसा नहीं है, जहां वो मौजूद नही है, फिर भी हमें उसका दीदार नहीं हो पाता, अर्थात जहां अगाध प्रेम होता है, वहीं "कृष्ण" प्रगट हो जाते है, जहां प्रेम है, वहीं तो "कृष्ण" का वास होता है, प्राणी मात्र से प्रेम करो, जिसका हृदय प्रेम से परिपूर्ण होता है, उसके ह्रदय में "कृष्ण" का निरंतर वास होता है, प्रेम से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए सबसे "प्रेम"करो,*