नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से
नहीं तोरा पास में तीर जी !...
एक सखी ने पूछा कि हे सखी, तुम्हारे पास में न तीर है न तलवार।
...नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से
कौनहि चीजवा से मारलू बटोहिया के
धरती लोटाबेला बेपीर जी ईईई।...
यह सुनकर जो औरत सदाब्रिज पर मोहित थी, बोली-
...सासू मोरा मरे हो, मरे मोरा बहिनी से,
मरे ननद जेठ मोर जी!
मरे हमर सबकुछ पलिबरवा से,
फसी गइली परेम के डोर जी !..
इतना कहकर वह सदाब्रिज के पास आई और पानी पिलाकर प्रेम की बातें करने लगी।...
...आजु की रतिया हो प्यारे, यहीं बिताओ जी! ।
तन्त्रिमाटोली में सुरंगा-सदाब्रिज की कथा हो रही है। मँहगूदास के घर के पास लोग जमा हैं। पुरैनिया टीसन से एक मेहमान आया है, रेलवे में काज करता है। तन्त्रिमाटोली के लोग कहते हैं-खलासी जी ! खलासी जी सरकारी आदमी हैं। खलासी जी यदि लाल पत्तखा दिखला दें तो डाक-गाड़ी भी रुक जाए। रुकेगी नहीं ? लाल पत्तखा देखते ही रेलगाड़ी रुक जाती है। लाल ओढ़ना ओढ़कर गाड़ी पर चढ़ने जाओ तो !...गाड़ी रुक जाएगी और ओढ़ना जप्पत हो जाएगा। खलासी जी बहुत गुनी आदमी हैं। पक्का ओझा हैं। चक्कर पूजते हैं, भूत-प्रेत को पेड़ में काँटी ठोंककर बस में करते हैं। बाँझ-निपुत्तर को तुकताक (टोटका) कर देते हैं। कुमर विज्जैभान, लोरिका और सुरंगा-सदाब्रिज का गीत जानते हैं। गला कितना तेज है !...उस बार सुराजी हूलमाल (आन्दोलन) में खलासी जी ने लिख दिया था-'बैगनबाड़ी के जमींदार के लड़के ने रेल का लैन उखाड़ा है।' बस, फाँसी हो गई ! हैकोठ और नन्दन (लन्दन) तक फाँसी बहाल रही। लेकिन मँहगूदास को कौन समझाए ? बेचारे खलासी जी एक साल से दौड़ रहे हैं मँहगूदास की बेवा बेटी फुलिया से पच्छिम की बातचीत पक्की करने के लिए। हर बार खलासी जी झोरी में मोरंगिया (नेपाली) गाँजा लाते हैं, तन्त्रिमाटोली के पंचों को पिलाते हैं, सुरंगा-सदाब्रिज गाते हैं, गाँव के बीमार लोगों को झाड़-फूंक देते हैं। उस बार उचितदास की डेरावाली को तुकताक कर दिया, परने के चार दिन पहले बूढ़ा उचितदास सन्तान का मुँह देख गया।...लेकिन मँहगूदास को कौन समझावे ? फिर खलासी जी लेन-देन की बात भी करते हैं। एक कौड़ी नगद न देंगे, जाति-बिरादरी को एक साम भोज कबूलते हैं। और क्या चाहिए ? सरकारी आदमी जमाई होगा। कभी तीरथ करने के लिए जाएँगे तो रेल में टिकस भी नहीं लगेगा।
रमजूदास की स्त्री तन्त्रिमाटोली की औरतों की सरदारिन है। हाट-बाजार जाने के समय, मालिकों के खेतों में धान रोपने और काटने के समय और गाँव में शादी-ब्याह के समय टोले-भर की औरतें उसकी सरदारी में रहती हैं। राजपूत, बाभन और मालिकटोले सभी बाबू-बबुआन से मुँहामुंही बात करती है, दिल्लगी का जवाब हँसकर देती है। और समय पड़ने पर हाथ चमका-चमकाकर झगड़ा भी करती है। एक बार तो सिंघ जी की भी सीसी सटका दिया था-'ऊँह बूढ़ा हो गया है, चाट लगी हुई है। सिर के बाल सादा हो गए हैं, मन का रंग नहीं उतरा है।...हमारा मुँह मत खुलवाइए सिंघ जी !...उससे सभी डरते हैं। न जाने कब किसका भेद खोल दे ! सभी उसकी खुशामद करते हैं; टोले-भर की जवान लड़कियाँ उसकी मुट्ठी में रहती हैं। उससे कोई बाहर नहीं। खलासी जी इस बार लालबाग मेला से उसके लिए असली गिलट का कंगना ले आए हैं। चाँदी की तरह चमक है। "...मौसी, किसी तरह फुलिया से चुमौना (सगाई) ठीक कर दो।"
अरे सूते ले देबौ हो प्यारे लाली पलँगिया से...
खाए ले गुआ खिल्ली पान जी!...
खलासी जी आज दिल खोलकर गा रहे हैं। उन्हें आज ऐसा लग रहा है कि वे खुद सदाब्रिज हैं ! लेकिन न तो उसकी फुलिया उसे रहने के लिए बिनती करती है और न मँहगूदास चुमौना की बात मंजूर करता है !..."अरे सूते ले देबौ हो प्यारे लाली पलँगिया से...!"
फुलिया क्या करे ? माँ-बाप के रहते वह क्या बोल सकती है ! अन्दर-ही-अन्दर मन जलकर खाक हो रहा है, लेकिन मुँह नहीं खोल सकती। लोग क्या कहेंगे !...रमजूदास की स्त्री फुलिया के जलते हुए दिल की बात जानती है। उस दिन फुलिया कह रही थी-“मामी, काली किरिया, किसी से कहना मत। खलासी जी इतने दिनों से दौड़ रहे हैं। बाबा कोई बात साफ-साफ नहीं कहते हैं। आखिर वह बेचारा कब तक दौड़ेगा ? यहाँ नहीं तो कहीं और ढूँढ़ेगा। दुनिया में कहीं और तन्त्रिमा की बेटी नहीं है क्या ?...जब एक दिन कुछ हो जाएगा तो सहदेब मिसर देह पर माछी भी नहीं बैठने देगा। तब करो खुशामद नककट्टी चमाइन की और चिचाय की माँ की ! मुसब्बर चबाओ और ऐंडी से पेट को आँटा की तरह गुँथवाओ। उस बार जोतखी जी का बेटा नामलरैन ने क्या दिया ? अन्त में नककट्टी को गाभिन बकरी देकर पीछा छुड़ाया..."
याद जो आवे है प्यारी तोहरी सुरतिया से
शाले करेजवा में तीर जी...!
खलासी जी का तीर खाया हुआ दिल तड़प रहा है। फुलिया क्या करे ? लेकिन रमजूदास की स्त्री का मुँह कौन बन्द कर सकता है ?..."अरे फुलिया की माये ! तुम लोगों को न तो लाज है और न धरम। कब तक बेटी की कमाई पर लाल किनारीवाली साड़ी चमकाओगी ? आखिर एक हद होती है किसी बात की ! मानती हूँ कि जवान बेवा बेटी दुधार गाय के बराबर है। मगर इतना मत दूहो कि देह का खून भी सूख जाए।"
"अरे हाँ-हाँ, बेटा-बेटी केकरो, घीढारी करे मंगरो। चालनी कहे सूई से कि तेरी पेंदी में छेद ! हाथ में कंगना तो चमका रही हो, खलासी को एक पुड़िया सिन्दूर नहीं जुटता है ?" फुलिया की माँ ने जब से रमजूदास की स्त्री के हाथ कंगना देखा है, उसका कलेजा जल रहा है। मँहगूदास पर गुस्सा करने से कोई फायदा नहीं। खलासी की बुद्धि ही मारी गई है। रमजू की स्त्री को कुटनी बहाल किया है, कंगना दिया है। रमजू की स्त्री काली माई है जो लोग उसकी बात को मान लेंगे।
"मुँह सँभालकर बात कर लेंगड़ी ! बात बिगड़ जाएगी। खलासी हमारा बहन-बेटा है। बहन-बेटा लगाकर गाली देती है ? गाली हमारे देह में नहीं लगेगी। तेरे देह में तो लगी हुई है। अपने खास भतीजा तेतरा के साथ भागी तू और गाली देती है हमको ? सरम नहीं आती है तुझको ! बेसरमी, बेलज्जी ! भरी पंचायत में जो पीठ पर झाड़ की मार लगी थी सो भूल गई ? गुअरटोली के कलरू के साथ रात-भर भैंस पर रसलील्ला करती थी सो कौन नहीं जानता है। तूं बात करेगी हमसे ?"
"रे, सिंघवा की रखेली ! सिंघवा के बगान का बम्बै आम का स्वाद भूल गई। तरबन्ना में रात-रात-भर लुकाचोरी मैं ही खेलती थी रे ? कुरअँखा बच्चा जब हुआ था तो कुरअँखा सिंघवा से मुँह-देखौनी में बाछी मिली थी, सो कौन नहीं जानता ?"
"...एतना बात सुनते ही सदाब्रिज फिर मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ा।..."
मँहगूदास के घर के पास होनेवाली सुरंगा-सदाब्रिज की कथा में औरतों के झगड़े से कोई बाधा नहीं पहुँचती है। औरतों के झगड़े पर यदि मर्द लोग आँख-कान देने लगें तो हुआ ! औरतों के झगड़े का क्या ? अभी झगड़ा किया, एक-दूसरे को गालियाँ सुनाईं, हाथ चमका-चमकाकर, गला फाड़-फाड़कर एक-दूसरे के गड़े हुए मुर्दे उखाड़े गए, जीभ की धार से बेटा-बेटी की गर्दन काटी गई, काली माई को काला पाठा कबूला गया, हाथ और मुँह को कोढ़-कुष्ठ से गलाने की प्रार्थना की गई और एक-दो घंटे के बाद ही सफाई। मेल-मिलाप हो गया। एक-दूसरे के हाथ से हुक्का लेकर गुड़गुड़ाने लगीं। साग 'माँगकर ले गईं और बदले में शकरकन्द भेज दिया-“कल साम को मालिक के खेत से अँधेरे में उखाड़ लाया है लड़के ने। मालिक देखते तो पीठ की चमड़ी खींच लेते।"
पहले झगड़ा का सिरगनेस दो ही औरतों से होता है। झगड़े के सिलसिले में एक-एक कर पास-पड़ोस की औरतों के प्रसंग आते-जाते हैं और झगड़नेवालियों की संख्या बढ़ती जाती है। झगड़े से उनके कामकाज में भी कोई बाधा नहीं पहुँचती है। काम के साथ-साथ झगड़ा भी चल रहा है। जब सारे गाँव की औरतें झगड़ने लगती हैं, तब कोई किसी की बात नहीं सुनतीं; सब अपना-अपना चरखा ओंटने लगती हैं...लेकिन फुलिया आज झगड़े में हिस्सा नहीं ले रही है। वह टट्टी की आड़ में खड़ी होकर सुरंगा-सदाब्रिज की कथा सुन रही है।...खलासी जी के गले में जादू है। ओझा गुनी आदमी है। कथा और गीत में फुलिया यह ही भूल जाती है कि सहदेब मिसर शाम से ही कोठी के बगीचे में उसके इन्तजार में मच्छड़ कटवा रहा है।...खलासी के गले में जादू है।
"मामी"
“क्या है रे ? बोल ना ! सहदेब मिसरवा के पास जाएगी क्या ?"
"नहीं मामी, एक बात कहने आई हूँ। काली किरिया, किसी से कहना मत।... खलासी जी तो तुम्हारे गुहाल में सोते हैं न ? काली किरिया !"
सुरंगा-सदाब्रिज की कथा समाप्त हो गई है। झगड़ा लंकाकांड तक पहुँचकर शेष हो गया। सहदेब मिसर मच्छड़ों से कब तक देह का खून चुसवाते ?...साला खलसिया ! साली हरामजादी !...अच्छा, कल देखूँगा।
गाँव में सन्नाटा छाया हुआ है और रमजू की स्त्री के गुहाल में सुरंगा कह रही है सदाब्रिज से, "अभी नहीं, जब बाबा चुमौना के लिए राजी नहीं होंगे तब मैं तुम्हारे के साथ भाग चलूंगी।"
"उनको राजी कैसे किया जाए ? कौन एक मिसर है, सुना है...।" सदाब्रिज बेचारा कहता है।
"सब झूठी बात है। तुम बालदेव जी से कहो।"
"कौन बालदेव ! पुरैनियाँ आसरमवाला ?"
"हाँ। सभी उनकी बात मानते हैं ! बाबू-बबुआन भी उनसे बाहर नहीं। तुम बन्दगी मत करना, जै हिन्न कहना।"
"लेकिन वह तो हम पर बड़ा नाराज है। देश दुरोहित' के फिरिस में नाम दे दिया है।
"...माँ के लिए नाक की बुलाकी ले आना, असली पीतल की बुलाकी।"