हरगौरी की माँ रो रही है-“राजा बेटा रे ! “गौरी बेटा रे !”
हरगौरी की सोलह साल की स्त्री बिना गौना के ही आई है । वह बहुत धीरे-धीरे रोती है। घूँघट के नीचे उसकी आँखें हमेशा बरसती रहती हैं।
शिवशक्करसिंघ पूर्णिया से लौट आए हैं। पुत्र का दाह-कर्म करके लौटे हुए पिता को देखकर डर लगता है। झुकी कमर पर हाथ रख शिवशक्करसिंघ बैलों की ओर देख रहे हैं। दो दिनों से घास-पानी छोड़े बैठे है दोनों बैल। आँखों में आँसू भर-भरकर, दोनों कभी-कभी चौकन्ना होकर इधर-उधर देखते हैं। फिर एक लंबी साँस लेकर एक-दूसरे को देखते हैं। एक-दूसरे को जीभ से चाटते हैं, मानो ढाढ़स बँधा रहे हों। ...हरगौरी इन्हें कितना प्यार करता था ! जब ये दो साल के बाछे थे, तभी से हरगौरी इनके साथ खेलता था | उसकी बोली सुनते ही दोनों खुशी से नाचने लगते थे। जान से भी बढ़कर प्यार करता था वह...।
शिवशक्करसिंह की आँखें आँसू से धुंधली हो रही हैं।...जब तक हरगौरी की लाश नहीं मिली थी, उन्हें अपने गिरफ्तार होने का डर लगा हुआ था। दाह-क्रिया समाप्त करके वोकील साहब ने रामकिरपालसिंह को रोका, तो शिवशक्करसिंह को लगा कि पुल नीचे धंस रहा है, धरती हिल रही है।
दारोगा साहब रामकिरपालसिंह को गिरिफ्त करके इधर ले गए और शिवशक्करसिंह अपने साथियों के साथ वहीं से लौट गए। टीसन तक दौड़ते ही आए थे। न जाने दारोगा साहब के मन में कब क्या हो ?...भाग की बात हई कि बिरजसिंह फिसलकर गिर गए और गाड़ी खड़ी हो गई, नहीं तो शिवशक्करसिंह वहीं लाटफारम पर ही खड़े रह जाते। सबने तो कूद-कूदकर हत्था पकड़ लिया, सिंघ जी ने ज्यों ही एक हत्था में हाथ लगाया कि एक काले कोटवाले ने पकड़कर खींच लिया। सिकन्नर के पास जाते-जाते बिरजूसिंघ गिर गए तो गाडी खडी हो गई। बेचारे बिरजूसिंघ का एक हाथ कट गया। गाटबाबू (गार्डबाबू) उसको कटिहार इसपिताल ले गए। जब तक घर नहीं पहुँच गए थे, शिवशक्करसिंह को भरोसा नहीं था। क्या जाने किधर से लाल पगड़ीवाला निकल पड़े ! हसलगाँव हाट के पास एक लाल चादरवाले को देखकर उनका कलेजा धुकधुका उठा था।...भले आदमी ने लाल चादर की पगड़ी क्यों बाँध ली थी ?
घर जाते ही हरगौरी की माँ को छाती पीटते और जमीन पर लोटकर रोते देखा, तो वे भी बच्चों की तरह बिलख-बिलख रोने लगे। 'पुबरिया घर' के ओसारे पर हरगौरी की विधवा बहू चूँघट काढ़े रो रही थी। सामने दीवार पर हरगौरी का फोटो टँगा हुआ है। रौतहट मेला में छपाया था-पगड़ी बाँधकर, हाथ में तलवार लेकर।
"बेटा रे !...गौरी बेटा रे !"
शिवशक्करसिंह बैल की गर्दन पकड़कर रो रहे हैं- "बेटा रे ! गौरी बेटा रे !"
सुमरितदास के कान में सबसे पहले आवाज पहुँचती है-ओ ! शिवशक्करसिंह आ गए शायद !
"शिवशक्करबाबू ! रोइए मत ! देखिए, कलेजा पोख्ता कीजिए।...आप ही इतना जी छोटा कीजिएगा तो औरतों का क्या हाल होगा ? हे... ! हरगौरी की माँ मर जाएगी। उसको समझाइए सिंह जी ! रोइए मत ! सुमरितदास शिवशक्करसिंह को अकबार (बाँहों में भरकर, अँकवार) में पकड़कर ले जाते हैं, समझाते हैं तथा आस-पास खड़े लोगों से कहते हैं- "भाई ! क्या समझाया जाए, किसको समझाया जाए ! पुत्रसोक से बढ़कर और कोई सोक क्या हो सकता है ? हम क्या समझाएँगे ! हमको तो...खुद भोगा हुआ है। एक-एक कर चार लाल को कमला किनारे अपने हाथ से जला आए हैं। कलेजा पत्थल हो गया है। पुत्रसोक ! हे भगवान ! किसी को न हो।"
शिवशक्करसिंह और जोर-जोर से रोने लगते हैं। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती जाती है।
सभी आकर यही जानना चाहते हैं कि और आगे क्या हुआ ? - हरगौरी की मृत्यु से ज्यादा दिल दहलानेवाली बात थी रामकिरपालसिंघ की गिरफ्तारी ! क्यों गिरफ्तारी किया ? कैसे गिरफ्तार हुआ ? और किन लोगों पर वारंट है ? तहसीलदार बिस्नाथ पर भी ?
“तहसीलदारसाहब आ रहे है। मोढ़ा दो रे !”
तहसीलदार को देखते ही शिवशक्करसिंघ फिर धरती पर लोट गए और जोर- जोर से रोने लगे-“बिस्नाथ भैया ! कलेजा टूक-टूक हो रहा है। भैया हो! "
तहसीलदारसाहब समझाते है-“शिवशक्करसिंघ, रोइए मत ! यह रोना तो जिंदगी-भर के लिए मिला है। एक दिन रोने से दिल ठंडा नहीं होगा। लेकिन, अभी रोने का समय नहीं। मालूम होता हं, मुकदमा खराब हो गया। सिंघ जी के गिरफ्तार होने का मतलब ही है कि मुकदमा खराब हो गया। अब किसके सिर पर कौन आफत है, कौन जाने ! खूनी केस है ! उठिए, आपसे प्राइबिट में एक बात करना है।”
शिवशक्करसिंघ तुरत उठकर खड़े हो गए और तहसीलदार साहब के साथ दरवाजे से जरा दूर चले गए। सुमरितदास प्राइबिट सुनेगा ...तब ठीक है, असल बात का पता भी तुरत लग जाएगा।
दरवाजे पर खड़े सभी एक ही साथ लंबी साँस छोड़ते हैं-अब किसके सिर पर क्या आफत है, कौन जाने ! हे भगवान !
“परनाम जोतखी काका !”
जोतखी काका के साथ खेलावन भी आया है। जोतखी जी पास के खाली मोढ़े पर बैठ जाते हैं। खेलावन भी तहसीलदार साहब के प्राइबिट में जाकर शरीक हो जाता है। जोतखी जी धीमी आवाज में लोगों से कहते हैं-तुम लोग यहाँ खड़े होकर क्या कर रहे हो ?” उनके कहने का ढंग ही ऐसा था, जिसके माने निकलते थे-“तुम लोगों की जान बलाई हुई क्या ? यहाँ से जितना जल्दी हो सके, खिसक जाओ ! वर्ना क्या ठिकाना !”
सब जल्दी से मौका देखकर उठ खड़े होते हैं। जोतखी जी कहते हैं-“यहीं चले आइए तहसीलदार ! सभी चले गए।”
“-लेकिन बात यह है कि एसपी ने तो यह नोक्स पकड़ा है-तहसीलदार विश्वनाथ की जमीन का बीहन बचाने के लिए तहसीलदार हरगौरी क्यों गया था ?” तहसीलदारसाहब कहते हैं।
“रामकिरपाल भैया तो हैं नहीं। हम आपको क्या क्या कहें ?'
'लेकिन मोकदमा तो आपका ही है। वाजिबन खर्चा तो ...आपको ही देना चाहिए ।” शिवशक्करसिंघ गिड़गिड़ाकर कहते हैं।
जोतखी जी कुछ कहने के लिए खखारते हैं, लेकिन सुमरितदास बेतार बीच में ही जवाब देता है-“शिवशक्करसिंघ मोकदमा तहसीलदार बिस्नाथ का नहीं, तहसीलदार हरगौरी का है। पूछिए कैसे ? तो बात यह है कि असल में यह सब 'खुंखार' बेदखली-नीलामी तो हरगौरीबाबू ने ही शुरू किया था। हमसे ज्यादे कौन जानेगा ?... तहसीलदारी कारबार को आप क्या समझिएगा ? यदि बेदखली और नई बन्दोबस्ती की बात नहीं उठती तो गाँव में यह लंकाकांड नहीं होता। पहले तो तहसीलदार हरगौरी ने ही सुरू किया। तहसीलदार बिस्नाथ उनके मदतगार हुए तो इन्हीं की जमीन पर संथालों ने धावा कर दिया। अब बताइए कि असल में यह मोकदमा किसका हुआ ? असल बात हम जानते हैं...दारोगा को दस हजार देना ही होगा।"
- खेलावन कहता है-“तहसीलदार, अब जैसे भी हो, सब कोई सलाह करके गाँव के इस गहर को टालिए।"
"रामकिरपालभैया हैं नहीं, हम क्या कहेंगे?" शिवशक्करसिंह बस यही एक जवाब देते हैं।
बहुत देर के बाद जोतखी जी कहते हैं, “जो भी हो न्याय बात तो यही है कि विश्वनाथबाबू इस मुकदमे में अभी पूरी पैरवी करें।"
अन्त में यही तय हुआ कि सबसे पहले रामकिरपालसिंह जी को जमानत पर छुड़ाया जाए। इसके बाद सब मिलकर, जो वाजिब हो, सोचें। जो खर्चा होगा, सिंह जी लोगों को देना होगा।
जोतखी जी ने मुस्कराते हुए कहा, “आज 'शोशलिस्ट' लोग शोक-शभा करने गए। एक भी आदमी शभा में नहीं गया। अब लोग शभा का अर्थ समझ रहे हैं !... हुँ, कोई बात हुई तो फुच्च से शभा ! हम कहते थे न, गाँव में एक दिन चील-काग उड़ेगा !"
"जोतखी काका, सभा-जुलूस को दोख मत दीजिए।" कालीचरन बगल में, अँधेरे में खड़ा था।
"आओ काली !" तहसीलदार साहब हँसते हुए कहते हैं, “तुम लोगों को गवाही देनी होगी, सो जानते हो न ? बालदेव जी को भी। तुम्हीं दोनों लीडरों की गवाही पर सारी बात है।"
कालीचरन ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा, “गवाही देनी होगी तो देंगे। जो बात जानते हैं वह कहने में क्या है ! दारोगा हो, इसपी हो, चाहे मजिस्टर-कलक्टर हो। सच्ची बात कहने में किसका डर है !"
"वाजिब बात ! वाजिब बात !" जोतखी जी को छोड़कर बाकी सभी कहते हैं-वाजिब बात !"
तहसीलदार साहब का नौकर रनजीत दौड़ता-हाँफता आता है, “कमली दैया... फिर !"
"तो यहाँ क्या है ? डाक्टर के यहाँ जाओ!" तहसीलदार साहब झुंझलाते हुए उठते हैं, "भगवान जाने क्या दवा करते हैं डाक्टर लोग ! इतने दिन हो गए, बीमारी सोलह आना से बारह आना भी नहीं हुई !"
....तो असल में बात खुल गई ! मामले-मुकदमे की सोलहों आने बात जो है" कालीचरन और बालदेव के हाथ में है !
"शिव हो ! शिव हो !" जोतखी काका उठते हुए कहते हैं, “कालीबाबू, कल जरा अपना हाथ दिखाना तो ! देखें, तुम्हारे हाथ की रेखा क्या कहती है। जन्मदिन और महीना याद है ?"
जोतखी जी के पेट में डर समा गया है-कालीचरन और बालदेव के ही हाथ में जब सबकुछ है तो वे जिसका नाम बतला दें, वह गिरिफ्फ हो जाएगा-तुरत। और कालीचरन, कालीचरन ही क्यों, बालदेव भी उन पर मन-ही-मन नाराज है ?...बालदेव का तो उतना डर नहीं, मगर कलिया...शिव हो ! शिव हो...