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भाग 24

18 जुलाई 2022

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चौबीस

हाँ रे, अब ना जीयब रे सैयाँ

छतिया पर लोटल केश,

अब ना जीयब रे सैयाँ !

महँगी पड़े या अकाल हो, पर्व-त्योहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मैलेरिया और कालाआजार से टूटे हुए शरीर में फागुन की हवा संजीवनी फूंक देती है। रोने-कराहने के लिए बाकी ग्यारह महीने तो हैं ही, फागुन-भर तो हँस लो, गा लो। जो जीयै सो खेलै फाग। दूसरे पर्व-त्योहार को तो टाल भी दिया जा सकता है। दीवाली में एक-दो दीप जला दिए, बस - छुट्टी। लेकिन होली तो मुर्दा दिलों को भी गुदगुदी लगाकर जिलाती है। बौरे हुए आम 'के बाग से हवा आकर बच्चे-बूढ़ों को मतवाला बना जाती है।...चावल का आटा, गुड़ और तेल ! पूआ-पकवान के इस छोटे-से आयोजन के लिए मालिकों के दरवाजे पर पाँच दिन पहले से ही भीड़ लग जाती है। बखार के मुँह खोल दिये जाते हैं। मालिक बही-खाता लेकर बैठ जाते हैं, पास में कजरौटी खुली हुई रहती है। धान नापनेवाला धान की ढेरी से धान नापता जाता है।...बादरदास को एक मन !...सोनाय ततमा को तीन पसेरी।...सादा कागज पर अंगूठे का निशान देते जाओ। भादों महीने में यदि भदै धान चुका दोगे तो ड्योढ़ा, यानी एक मन का डेढ़ मन। यदि अगहनी फसल में चुकाओगे तो डेढ़ मन का तीन मन। सीधा हिसाब है।

गाँव के सभी बड़े-बड़े किसानों का अपना-अपना मजदूर टोला है-सिंघ जी का ततमाटोला और पासवानटोला; तहसीलदार साहब का पोलियाटोला, धानुकटोला, कुर्मीटोला और कियोटटोला; खेलावन यादव का गुआरटोला और कोयरीटोला। संथालटोली पर किसी का खास अधिकार नहीं।

इस बार तहसीलदार साहब को छोड़कर किसी ने मजदूरों को धान नहीं दिया।...अँगूठे का निशान नहीं देंगे और धान लेंगे ? बाप-दादे के अमल से अंगूठे का निशान देते आ रहे हैं, कभी बेईमानी नहीं हुई। इस साल बेईमानी कर लेंगे ? कालीचरन ने टीप देने को मना किया है तो कालीचरन से ही धान लो।

तहसीलदार को नए टीप की जरूरत नहीं। पुराने टीप ही इतने हैं कि कोई इधर-उधर नहीं कर सकता। दूसरे किसानों के मजदूरों को भी तहसीलदार साहब ने इस बार धान दिया है, लेकिन कालीचरन को जमानतदार रखकर। धान वसूलवा देना कालीचरन का काम होगा। अरे, ड्योढ़ नहीं तो सवैया ही सही।...जो भी हो, तहसीलदार के दिल में दया-धर्म है। बाकी मालिक लोग तो पिशाच हैं, पिशाच !

एक ओर लौटस बारी रे बिहउबा !

फागुआ का हर एक गीत देह में सिहरन पैदा करता है। फुलिया का चुमौना खलासी जी से हो गया है। खलासी जी बिदाई कराने के लिए आए थे। लेकिन फुलिया इस होली में जाने को तैयार नहीं हुई ! खलासी जी बहुत बिगड़े; धरना देकर चार दिन तक बैठे रहे। आखिर में रूठकर जाने लगे। फुलिया ने रमजू की स्त्री के आँगन में खलासी जी से भेंट करके कहा था-"इस साल होली नैहर में ही मनाने दो। अगले साल तो...।"

नयना मिलानी करी ले रे सैयाँ, नयना मिलानी करी ले।

अबकी बेर हम नैहर रहबौ, जे दिल चाहय से करी ले !

दोपहर से शाम तक रमजूदास की स्त्री के आँगन में रहकर फुलिया ने खलासी जी को मना लिया है। होली के लिए खलासी जी ने एक रुपया दिया है।...बेचारा सहदेव मिसिर इस बार किससे होली खेलेगा ? पिछले साल की बात याद आते ही फुलिया की देह सिहरने लगती है। "भाँग पीकर धुत्त था सहदेव मिसर। एक ही पुआ को बारी-बारी से दाँत से काटकर दोनों ने खाया था।...अरे, जात-धरम ! फुलिया तू हमारी रानी है, तू हमारी जाति, तू ही धरम, सबकुछ।"...बाबू को दारू पीने के लिए डेढ़ रुपया दिया था और माँ को अठन्नी।...रात-भर सहदेव मिसर जगा रह गया था।...फुलिया की देह के पोर-पोर में मीठा दर्द फैल रहा है। जोड़-जोड़ में दर्द मालूम होता है। कई बाँहों में जकड़कर मरोड़े कि जोड़ की हड्डियाँ पटपटाकर चटख उठे और दर्द दूर हो जाए।...सहदेव मिसर को खबर भेज दें !...लेकिन गाँववाले ?...ऊँह, होली में सब माफ है।...वह आवेगा ? नाराज जो है।

अरे बँहियाँ पकड़ि झकझोरे श्याम रे

फूटल रेसम जोड़ी चूड़ी

मसकि गई चोली, भींगावल साड़ी

आँचल उड़ि जाए हो

ऐसो होरी मचायो श्याम रे...!

कमली की आँखें लाल हो रही हैं। पिछले साल होली के ही दिन वह बेहोश हुई थी। इस बार क्या होगा ? वह बेहोश नहीं होगी इस बार। इस बार डाक्टर है; उसे बेहोश नहीं होने देगा।...लेकिन सुबह से ही डाक्टर बाहर है। रोगी देखने गया है रामपुर। यदि वह आज नहीं आया तो ?...नहीं, वह जरूर आएगा। माँ ने एक सप्ताह पहले ही निमन्त्रण दे दिया है। रंग, अबीर,...गुलाब ! पिचकारी !

"माँ !"

"क्या है बेटी ?"

"तुम्हारा डाक्टर आज नहीं आवेगा ?"

"क्यों, क्या बात है बेटी ?"

"मेरा जी अच्छा नहीं।"

"ऐसा मत कहो बेटी, दिल को मजबूत करो। कुछ नहीं होगा।"

...आजु ब्रज में चहुदिश उड़त गुलाल !

चारों ओर गुलाल उड़ रहा है। डाक्टर को कोई रंग नहीं देता है। रामपुर में भी किसी ने रंग नहीं दिया। रास्ते में एक जगह कुछ लड़के पिचकारी लेकर खड़े थे, लेकिन डाक्टर को देखते ही सहम गए।...रंग नहीं, गोबर है। रंग के लिए इतने पैसे कहाँ ! डाक्टर को लोग रंग नहीं देते। वह सरकारी आदमी है, सरकारी उर्दी पहन हुए है। सरकारी उर्दी को रंग देने से जेल की सजा होती है। डाक्टर सरकारी आदमी है, बाहरी आदमी है। वह गाँव के समाज का नहीं।...यह डाक्टर की ही गलती है। शुरू से ही वह गाँव से, गाँववालों से अलग-अलग रहा है। उसका नाता सिर्फ रोग और रोगी से रहा। उसने गाँव की जिन्दगी में कभी घुलने-मिलने की चेष्टा नहीं की। लेकिन डाक्टर को अब गाँव की जिन्दगी अच्छी लगने लगी है, गाँव अच्छा लगने लगा है और गाँव के लोग अच्छे लगते हैं। वह गाँव को प्यार करता है। उसे कोई रंग क्यों नहीं देता ? वह रंग में, गोबर में, कीचड़ में सराबोर होना चाहता है !.

“अर र र र ! कोई बुरा न माने, होली है !"

डाक्टर के सफ़ेद कुर्ते पर लाल-गुलाबी रंगों की छीटें छरछराकर पड़ती हैं।

"ओ कालीचरन !"

“बुरा मत मानिए डाक्टर साहब, होली है।"

डाक्टर मनीबेग से दस रुपए का नोट निकालकर कालीचरन को देता है-होली का चन्दा ! रंग और अबीर का चन्दा !

होली है ! होली है ! होली है !

गनेश हाथ में पिचकारी लिए मौसी का आँचल पकड़कर खड़ा है। मौसी हँसकर कहती है, "सुबह से ही रंग खेलने के लिए जिद्द कर रहा है। मेरी एक साड़ी को तो रंग से सराबोर कर दिया है। अब जिद्द पकड़ा है कि गाँव के लड़कों के साथ खेलेंगे।"

“आओ भैया गनेश !" कालीचरन गनेश का हाथ पकड़कर ले चलता है। गनेश खुश होकर डाक्टर पर रंग की पिचकारी से फुहारें बरसाता हुआ कालीचरन के साथ भाग जाता है। मौसी खुश है।

"जुगजुग जियो काली बेटा !"

"बड़ा मस्त नौजवान है।" डाक्टर कहता है।

"कमली पाँच बार पुछवा चुकी है-डाक्टर साहब लौटे हैं या नहीं। मुझे धमकी दे गई है-आज डाक्टर को तुम नहीं खिला सकतीं। आज मेरे यहाँ निमन्त्रण है।"

ढोल-ढाक, झाँझ-मृदंग और डम्फ !

होली, फगुआ, भड़ौवा और जोगीड़ा।

कालीचरन का दल बहुत बड़ा है। दो ढोल, एक ढाक है, झाँझ-डम्फ। सभी अच्छे गानेवाले भी उसी के दल में हैं। सुन्दरलाल, सुखीलाल, देवीदयाल और जोगीड़ा कहनेवाला महन्था। मिडिल में पढ़ता है; पढ़ने में बड़ा तेज ! दोहा-कवित्त जोड़ने में उसको चाँदी की चकत्ती मिली है। गाँव के छोटे-छोटे दल भी कालीचरन के दल में मिल गए हैं।

जोगीड़ा सर...र र......

जोगीड़ा सर- र...

जोगी जी ताल न टूटे

तीन ताल पर ढोलक बाजे।

ताक धिना धिन, धिन्नक तिन्नक

जोगी जी!

होली है ! कोई बुरा न माने होली है !

बरसा में गड्ढे जब जाते हैं भर

बेंग हजारों उसमें करते हैं टर्र

वैसे ही राज आज कांग्रेस का है

लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़...

जोगी जी सर...र र...!

जोगी जी, ताल न टूटे

जोगी जी, तीन-ताल पर ढोलक बाजे

जोगी जी, ताक धिना धिन !

चर्खा कातो, खध्धड़ पहनो, रहे हाथ में झोली

दिन दहाड़े करो डकैती बोल सुराजी बोली...

जोगी जी सर...र र...!

सिर्फ जोगीड़ा ही नहीं। महन्था ने नया फगुआ गीत भी जोड़ा है। बटगमनी फगुआ-राह में चलते हुए गाने के लिए।

आई रे होरिया आई फिर से!

आई रे!

गावत गाँधी राग मनोहर

चरखा चलावे बाबू राजेन्दर

गुंजल भारत अमहाई रे ! होरिया आई फिर से !

वीर जमाहिर शान हमारो,

बल्लभ है अभिमान हमारो,

जयप्रकाश जैसो भाई रे ! होरिया आई फिर से !

होली है ! होली है ! होली !

कोयरीटोले का बूढ़ा कलरू महतो कहता है, “अरे डागडर साहेब ! अब क्या लोग होली खेलेंगे ! होली का जमाना चला गया। एक जमाना था जबकि गाँव के सभी बूढ़ों को नंगा करके नचाया जाता था, एकदम नंगा। उस बार राज के मनेजर जनसैन साहब के साथ तीन-चार साहेब आए थे। काला बक्सा में आँख लगाकर छापी लेते थे। बाद में खानसामाँ से मालूम हुआ कि बिलैत के गजट में छापी हुआ था। एकदम नंगा!"

कामरेड वासुदेव 'भँडौवा' गाने के लिए कह रहे हैं, “अब एक नया भँडौवा हो। एकदम नया ताजा माल ! जर्मनवाला !"

ढाक ढिन्ना, ताक ढिन्ना।

अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना,

चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।

सुपति-मउनियाँ लाए डोमनियाँ, माँगे पिपास से पनियाँ

कुआँ के पानी न पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियाँ,

सोही डोमनियाँ जब बनली नटिनियाँ, आँखी के मारे पिपनियाँ

तेकरे खातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बभनिया।

जोलहा धुनिया तेली तेलनियाँ के पीये न छुअल पनियाँ

नटिनी के जोबना के गंगा-जमुनुवाँ में डुबकी लगाके नहनियाँ।

दिन भर पूजा पर आसन लगाके पोथी-पुरान बँचनियाँ

रात के ततमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गननियाँ।

भकुआ बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए!

कोई बुरा न माने होली है ! होली है !

तहसीलदार साहब की ड्योढ़ी पर पैर रखते ही डाक्टर के मुँह पर गुलाल मल दिया गया। डाक्टर की आँखें बन्द हैं, लेकिन स्पर्श में ही वह समझ गया है कि गुलाल किसने मला है। कमली !...वसन्तोत्सव की कमली ! डाक्टर याद करने की चेष्टा करता है, एक बार किसी चित्रकार का 'मैथिली' शीर्षक चित्र किसी मासिक पत्रिका में देखा था !... कौन था वह चित्रकार !

"डाक्टर बेचारे के पास न अबीर है और न रंग की पिचकारी। यह एकतरफा होली कैसी !...लीजिए डाक्टरबाबू, अबीर लीजिए। और इस बाल्टी में रंग है।" माँ बेहद खुश है आज। पिछले साल होली के दिन इसी आँगन में मातम हो रहा था और इस साल उसकी बेटी चहकती फिर रही है।...दुहाई बाबा भोलानाथ !

बेचारा डाक्टर रंग भी नहीं देना जानता; हाथ में अबीर लेकर खड़ा है। मुँह देख रहा है, कहाँ लगावे !

"जरा अपना हाथ बढ़ाइए तो।

"क्यों ?"

"हाथ पर गुलाल लगा दूँ ?"

"आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं। चुटकी में अबीर लेकर ऐसे खड़े हैं मानो किसी की माँग में सिन्दूर देना है !" कमली खिलखिलाकर हँसती है। रंगीन हँसी!

डाक्टर अब पहले की तरह कमली की बोली को एक बीमार की बोली समझकर नहीं टाल सकता है। कमरे में लालटेन की हलकी रोशनी फैली हुई है; सामने कमली खड़ी हँस रही है। ऐसी हँसी डाक्टर ने कभी नहीं देखी थी। वह स्वस्थ हँसी हैविकारशून्य ! कमली का अंग-अंग मानो फड़क रहा है। डाक्टर अपने दिल की धड़कन को साफ-साफ सुन रहा है। उसके ललाट पर आज भी पसीने की बूंदें चमक रही हैं। सामने दीवार पर एक बड़ा आईना है। डाक्टर उसमें अपनी सूरत देखता है...ललाट पर पसीने की बूँदें मानो दूल्हे के ललाट पर चन्दन की छोटी-छोटी बिन्दियाँ सजाई गई हैं !...डाक्टर को भवभूति के माधव-मालती की याद आती है। होली को पहले मदनमहोत्सव कहा जाता था। आम की मंजरियों से मदन की पूजा की जाती थी। इसी मदनोत्सव के दिन माधव और मालती की आँखें चार हुई थीं और दोनों प्रेम की डोरी में बँध गए थे। जहाँ राधेश्याम खेले होरी !

डाक्टर अबीर की पूरी झोली कमली पर उलट देता है। सिर पर लाल अबीर बिखर गया-मुँह पर, गालों पर और नाक पर।...कहते हैं, सिन्दूर लगाते समय जिस लड़की के नाक पर सिन्दूर झड़कर गिरता है, वह अपने पति की बड़ी दुलारी होती है।...

ऐसी मचायो होरी हो,

कनक भवन में श्याम मचायो होरी !

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रचनाएँ
मैला आँचल
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मैला आँचल फणीश्वरनाथ 'रेणु' का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है। फणीश्वरनाथ रेणु को ख्याति हिंदी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आँचल से मिली है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातो-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद इसे हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित करने में भी देर नहीं की।
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मैला आँचल-प्रथम संस्करण की भूमिका

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‘मैला आँचल’ हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट र

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मैला आँचल-प्रथम खंड (भाग 1)

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एक गाँव में यह खबर बिजली की तरह फैल गई-मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्तार कर लिया है और लोबिनलाल के कुँए से बाल्टी खोलकर ले गए हैं। यद्यपि 1942 के जन-आन्दोलन के समय इस गाँव में न तो फौजियों का कोई उत्

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भाग 2

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पूर्णिया जिले में ऐसे बहुत-से गाँव और कस्बे हैं, जो आज भी अपने नामों पर नीलहे साहबों का बोझ ढो रहे हैं। वीरान जंगलों और मैदानों में नील कोठी के खंडहर राही बटोहियों को आज भी नीलयुग की भूली हुई कहानियाँ

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भाग 3

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डिस्टीबोट के मिस्तिरी लोग आए हैं। बालदेव के उत्साह का ठिकाना नहीं है। आफसियरबाबू ने तहसीलदार साहब और रामकिरपालसिंघ के सामने ही कहा था"आप तो देश के सेवक हैं।" सबों ने सुना था। दुनिया में धन क्या है ? त

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भाग 4

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सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! महंथ साहेब सदा ब्रह्म बेला में उठते हैं। “हो रामदास। आसन त्यागो जी ! लक्ष्मी को जगाओ !...सतगुरु हो ! ये कभी जो बिना जगाए जागें। रामदास ! हो जी रामदास !" रामदास आँखें मलते हुए

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भाग 5

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मठ पर गाँव-भर के मुखिया लोगों की पंचायत बैठी है। बालदेव जी को आज फिर 'भाखन' देने का मौका मिला है। लेकिन गाँव की पंचायत क्या है, पुरैनिया कचहरी के रामू मोदी की दुकान है। सभी अपनी बात पहले कहना चाहते है

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भाग 6

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बालदेव जी को रात में नींद नहीं आती है। मठ से लौटने में देर हो गई थी। लौटकर सुना, खेलावन भैया की तबियत खराब है; आँगन में सोये हैं। यदि कोई आँगन में सोया रहे तो समझ लेना चाहिए कि तबियत खराब हुई है, बुख

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भाग 7

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प्यारू को सबों ने चारों ओर से घेर लिया। डागडर साहेब का नौकर है। डागडर साहेब कब तक आएँगे? तुम्हारा क्या नाम है ? कौन जात है ? दुसाध मत कहो, गहलोत बोलो गहलोत ! जनेऊ नहीं है ? बालदेव जी प्यारू को भीड़ स

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भाग 8

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लछमी का भी इस संसार में कोई नहीं ! ...जी, मेरा कोई नहीं !...लछमी सोचती है, उसका दिल इतना नरम क्यों है ? क्यों वह डाक्टर को देखकर पिघल गई ? यह अच्छी बात नहीं।...सतगुरु मुझे बल दो।। सतगुरु के सिवा कोई

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भाग 9

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डाक्टर प्रशान्तकुमार ! जात ?... नाम पूछने के बाद ही लोग यहाँ पूछते हैं-जात ? जीवन में बहुत कम लोगों ने प्रशान्त से उसकी जाति के बारे में पूछा है। लेकिन यहाँ तो हर आदमी जाति पूछता है। प्रशान्त हँसकर

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भाग - 10

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डाक्टर पत्र लिख रहा है- “ममता, "तुमने कहा था, पहुँचते ही पत्र देना। पहुँचने के एक सप्ताह बाद पत्र दे रहा हूँ। तुम्हारे बाबा विश्वनाथ ने मेरे आने से पहले ही अपने एक दूत को भेज दिया है। प्यारू सचमुच द

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भाग 11

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नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से नहीं तोरा पास में तीर जी !... एक सखी ने पूछा कि हे सखी, तुम्हारे पास में न तीर है न तलवार। ...नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से कौनहि चीजवा से मारलू बटोहिया क

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भाग 12

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मठ पर आचारजगुरु आनेवाले हैं, नए महन्थ को चादर-टीका देने के लिए ! मुजफ्फरपुर जिला का एक मुरती आया है-लरसिंघदास। आचारजगुरु मुजफ्फरपुर जिले के पुपड़ी मठ पर भंडारा में आए हैं। लरसिंघदास खबर लेकर आया है-आच

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भाग 13

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तेरह गाँव के ग्रह अच्छे नहीं ! सिर्फ जोतखी जी नहीं, गाँव के सभी मातबर लोग मन-ही-मन सोच-विचार कर देख रहे हैं-गाँव के ग्रह अच्छे नहीं ! तहसीलदार साहब को स्टेट के सर्किल मैनेजर ने बुलाकर एकान्त में कह

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भाग 14

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चढ़ली जवानी मोरा अंग अंग फड़के से कब होइहैं गवना हमार रे भउजियाऽऽऽ ! पक्की सड़क पर गाड़ीवानों का दल भउजिया का गीत गाते हुए गाड़ी हाँक रहा .' है। “आँ आँ ! चल बढ़के। दाहिने...हाँ, हाँ, घोड़ा देखकर भी

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भाग 15

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सुमरितदास को लोग लबड़ा आदमी समझते हैं, लेकिन समय पर वह पते की बातें बता जाता है। आजकल उसका नाम पड़ा है-बेतार की खबर। संक्षेप में 'बेतार' । बात छोटी या बड़ी, कोई भी नई बात बेतार तुरत घर-घर में पहुँचा द

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भाग 16

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मुसम्मात सुनरी ! टक्का कटपीस-एक गज। छींट-डेढ़ गज। मलेछिया साटिन-एक गज। साड़ी-एक नग। बालदेव जी कपड़े की पुर्जी बाँट रहे हैं। रौतहट टीशन के हंसराज बच्छराज मरवाड़ी के यहाँ कपड़ा मिलेगा। खेलावन यादव

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भाग 17

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चारजगुरु कासी जी से आए हैं। सभी मठ के जमींदार हैं, आचारजगुरु। साथ में तीस मुरती आए हैं-भंडारी, अधिकारी, सेवक, खास, चिलमची, अमीन, मुंशी और गवैया। साधुओं के दल में एक नागा साधू भी है। यद्यपि वह दूसरे म

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भाग 18

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अठारह "क्या नाम ?" "सनिच्चर महतो।" "कितने दिनों से खाँसी होती है? कोई दवा खाते थे या नहीं ?...क्या, थूक से खून आता है ? कब से ?...कभी-कभी ? हूँ !...एक साफ डिब्बा में रात-भर का थूक जमा करके ले आना।.

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भाग 19

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चलो ! चलो ! सभा देखने चलो ! सोशलिस्ट पार्टी की सभा की खबर ने संथालटोली को विशेष रूप से आलोड़ित किया है। गाँव में अस्पताल खुलने की खुशखबरी की कोई खास प्रतिक्रिया संथालों पर नहीं हुई थी। गाँव के लड़ाई-

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भाग 20

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कमली डाक्टर को पत्र लिखती है- "प्राणनाथ !...तुम कल नहीं आए। क्यों नहीं आए ? सुना कि रात में...।" कमली डाक्टर को रोज पत्र लिखती है। लिखकर पाँच-सात बार पढ़ती है, फिर फाड़ डालती है। उसकी अलमारी के एक क

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भाग 21

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रात को तन्त्रिमाटोली में सहदेव मिसर पकड़े गए ! यह सब खलासी की करतूत है। ऊपरी आदमी (परदेशी) के सिवा ऐसा जालफरेब गाँव का और कौन कर सकता है ? पुश्त-पुश्तैनी के बाबू लोग छोटे लोगों के टोले में जाते हैं।

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भाग 22

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सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! महन्थ रामदास भी छींकने, खाँसने और जमाही लेने के समय महन्थ सेवादास जी की तरह ही चुटकी बजाते हैं, 'सतगुरु हो', 'सतगुरु हो' कहते हैं और आँखें स्वयं ही बन्द हो जाती हैं। भजन, बीजक

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भाग 23

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गाँव के लोग अर्थशास्त्र का साधारण सिद्धान्त भी नहीं जानते। 'सप्लाई' और 'डिमांड' के गोरख-धन्धे में वे अपना दिमाग नहीं खपाते। अनाज का दर बढ़ रहा है; खुशी की बात है। पाट का दर बढ़ रहा है, बढ़ता जा रहा है

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भाग 24

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चौबीस हाँ रे, अब ना जीयब रे सैयाँ छतिया पर लोटल केश, अब ना जीयब रे सैयाँ ! महँगी पड़े या अकाल हो, पर्व-त्योहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मैलेरि

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बावनदास आजकल उदास रहा करता है। "दासी जी, चुन्नी गुसाईं का क्या समाचार है ?" रात में बालदेव जी सोने के समय बावनदास से बातें करते हैं। “चुन्नी गुसाईं तो सोसलिट पाटी में चला गया।" बालदेव जी आश्चर्य से

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भाग 26

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बाबू हरगौरीसिंह राज पारबंगा के नए तहसीलदार बहाल हुए। 'बेतार का खबर' सुमरितदास सबों को कहता है, “देखो-देखो, कायस्थ के जूठे पत्तल में राजपूत खा रहा है। तहसीलदार विश्वनाथबाबू को राज पारबंगा के कुमार साहे

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भाग 27

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डाक्टर की जिन्दगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। उसने प्रेम, प्यार और स्नेह को बायोलॉजी के सिद्धान्तों से ही हमेशा मापने की कोशिश की थी। वह हँसकर कहा करता, "दिल नाम की कोई चीज आदमी के शरीर में है, हमें

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भाग 28

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डाक्टर आदमी नहीं, देवता है देवता ! तन्त्रिमाटोली, पोलियाटोली, कुर्मछत्रीटोली और रैदासटोली में सब मिलाकर सिर्फ पाँच आदमी नुकसान हुए। घर-घर में एक-दो आदमी बीमार थे, लेकिन डाक्टर देवता है। दिन-रात, कभी

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भाग 29

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कल 'सिरवा' पर्व है। कल पड़मान में 'मछमरी' होगी-मछमरी अर्थात् मछली का शिकार। आज चैत्र संक्रान्ति है। कल पहली वैशाख, साल का पहला दिन। कल सभी गाँव के लोग सामूहिक रूप से मछली का शिकार करेंगे। छोटे-बड़े,

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भाग 30

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अखिल भारतीय मेडिकल गजट में डाक्टर प्रशान्त, मैलेरियोलॉजिस्ट के रिसर्च की छमाही रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। गजट के सम्पादक-मंडल में भारत के पाँच डाक्टर हैं। इस रिपोर्ट पर उन लोगों ने अपना-अपना नाम नोट दिय

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भाग 31

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मंगलादेवी, चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बीमार हैं। डाक्टर ने खून जाँचकर देखा, कालाआजार नहीं, टाइफायड है। चरखा-सेंटर के दोनों मास्टर तहसीलदार साहब के गुहाल में रहते हैं और मास्टरनी जी भगमान भगत की एक झों

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भाग 32

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बैशाख और जेठ महीने में शाम को 'तड़बन्ना' में जिन्दगी का आनन्द सिर्फ तीन आने लबनी बिकता है। चने की घुघनी, मूड़ी और प्याज, और सुफेद झाग से भरी हुई लबनी !... खट-मिट्ठी, शकर-चिनियाँ और बैर-चिनियाँ ताड़ी

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भाग 33

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अमंगल ! "गाँव के मंगल का अब कोई उमेद नहीं।" हरगौरी तहसीलदार दुर्गा के वाहन की तरह गुर्राता है-“साले सब ! चुपचाप दफा 40 का दर्खास देकर समझते थे कि जमीन नकदी हो गई। अब समझो। बौना और बलदेवा से जमीन लो।

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भाग 34

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फुलिया पुरैनियाँ टीसन से आई है। एकदम बदल गई है फुलिया | साड़ी पहनने का ढंग, बोलने-बतियाने का ढंग, सबकुछ बदल गया है। तहसीलदार साहब की बेटी कमली अँगिया के नीचे जैसी छोटी चोली पहनती है, वैसी वह भी पहनती

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भाग 35

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तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के सामने विकट समस्या उपस्थिति है । नई बंदोबस्तीवाले किसान रोज उनके यहाँ जाते हैं। मामला-मुकदमा उठने पर विश्वनाथ प्रसाद की गवाही की जरूरत होगी। बेजमीन लोग अपनी पार्टीबंदी कर रहे

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भाग 36

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डाक्टर पर यहाँ की मिट्टी का मोह सवार हो गया। उसे लगता है, मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है। यह अपनी मिट्टी है। नदी तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-मैदान, जीवन-जानवर, कीड़े-मकोड़े, सभी में वह एक विशेषता

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भाग 37

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तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के दरवाजे पर पंचायत बैठी है। दोनों तहसीलदार के अगल-बगल में बालदेवजी और कालीचरन जी बैठे हैं। बाभन-राजपूत के साथ में बैठा है यादव-एक ही ऊँचे सफरे (बिछावन, दरी) पर। अरे ! जीबेसर म

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भाग 38

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दो दिन से बदली छाई हुई है। आसमान कभी साफ नहीं होता। दो-तीन घंटों के लिए बरसा रुकी, बूंदा-बाँदी हुई, फिर फुहिया। एक छोटा-सा सफेद बादल का टुकड़ा भी यदि नीचे की ओर आ गया तो हरहराकर बरसा होने लगती है। आसा

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भाग 39

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संथाल लोग गाँव के नहीं, बाहरी आदमी हैं ? "...जरा विचार कर देखो। यह तन्त्रिमा का सरदार है...अच्छा, तुम्हीं बताओ जगरू, तुम लोग कौन ततमा हो ? मगहिया हो न ? अच्छा कहो, तुम्हारे दादा ही पच्छिम से आए और तु

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भाग 40

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जोतखी ठीक कहते थे-गाँव में चील-काग उड़ेंगे और पुलिस-दारोगा गली-गली में घूमेगा । पुलिस-दारोगा, हवलदार और मलेटरी, चार हवागाड़ी में भरकर आए हैं। दुहाई माँ काली ! इसपी, कलक्टर, हाकिम अभी आनेवाला है। लह

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भाग 41

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नौ आसामी का चालान कर दिया। नौ संथालों के अलावा जो लोग घायल होकर इसपिताल में पड़े हैं वे लोग भी गिरिफ्फ हैं। पुरैनियाँ इसपिताल में बन्दूकवाले मलेटरी का पहरा है। गैर-संथालों में कोई गिरिफ्फ नहीं हुआ।.

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भाग 42

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हरगौरी की माँ रो रही है-“राजा बेटा रे ! “गौरी बेटा रे !” हरगौरी की सोलह साल की स्त्री बिना गौना के ही आई है । वह बहुत धीरे-धीरे रोती है। घूँघट के नीचे उसकी आँखें हमेशा बरसती रहती हैं। शिवशक्करसिंघ प

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भाग 43

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लछमी दासिन आज मन के सभी दुआर खोल देगी। एक लक्ष दुआर ! "बालदेव जी !" “जी!" “रामदास फिर बौरा गया है। कल भंडारी से कह रहा था, लछमी से कहो एक दासी रखने की आज्ञा दे।...कहिए तो भला !" बालदेव जी क्या जवा

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भाग 44

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इधर कुछ दिनों से डाक्टर मौसी के यहाँ ज्यादा देर तक बैठने लगा है। मौसी के यहाँ जब तक रहता है, ऐसा लगता है मानो वह शीतल छाया के नीचे हो । काम में जी नहीं लगता है। ऐसा लगता है, उसका सारा उत्साह स्पिरिट क

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