डाक्टर पर यहाँ की मिट्टी का मोह सवार हो गया। उसे लगता है, मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है। यह अपनी मिट्टी है। नदी तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-मैदान, जीवन-जानवर, कीड़े-मकोड़े, सभी में वह एक विशेषता देखता है। बनारस और पटना में भी गुलमुहर की डालियाँ लाल फूलों से लद जाती थीं। नेपाल की तराई में पहाड़ियों पर पलास और अमलतास को भी गले मिलकर फूलते देखा है, लेकिन इन फूलों पर रंगों ने उस पर पहली बार जादू डाला है ।
"गोल्डमोहर-गुलमुहर-कृष्णचूड़ा !” गुलमुहर का कृष्णचूड़ा नाम यहाँ कितना मौजूँ लगता है ! काले कृष्ण के मुकुट में लाल फूल कितने सुंदर लगते होंगे !
आम से लदे हुए पेड़ों को देखने के पहले उसकी आँखें इंसान के उन टिकोलों पर पड़ती हैं, जिन्हें आमों की गुठलियों के सूखे गूदे की रोटी पर जिंदा रहना है और ऐसे इंसान ? भूखे, अतृप्त इंसानों की आत्मा कभी भ्रष्ट नहीं हो या कभी विद्रोह नहीं करे, ऐसी आशा करनी ही बेवकूफी है।...डाक्टर यहाँ की गरीबी और बेबसी को देखकर आश्चर्यित होता है। वह सन्तोष कितना महान है जिसके सहारे यह वर्ग जी रहा है ? आखिर वह कौन-सा कठोर विधान है, जिसने हजारों-हजार क्षुधितों को अनुशासन में बाँध रखा है ?
...कफ से जकड़े हुए दोनों फेफड़े, ओढ़ने को वस्त्र नहीं, सोने को चटाई नहीं, पुआल भी नहीं ! भीगी हुई धरती पर लेटा न्युमोनिया का रोगी मरता नहीं है, जी जाता है।...कैसे?
...यहाँ विटामिनों की किस्में, उनके अलग-अलग गुण और आवश्यकता पर लम्बी और चौड़ी फहरिस्त बनाकर बँटवानेवालों की बुद्धि पर तरस खाने से क्या फायदा !...मच्छरों की तस्वीरें, इससे बचने के उपायों को पोस्टरों पर चित्रित करके अथवा मैजिक लालटेन से तस्वीरें दिखाकर मैलेरिया की विभीषिका को रोकनेवाले किस देश के लोग थे ?...यहाँ तो उन मच्छरों की तस्वीरें देखते ही लोग कहते हैं- “पुरैनियाँ जिला को लोग मच्छर के लिए बेकार बदनाम करते हैं, देखिए पच्छिम का मच्छर कितना बड़ा है, एक हाथ लम्बा देह. चार हाथ मँड। बाप रे !"
डी.डी.टी. और मसहरी की बात तो बहुत बड़ी हुई, देह में कड़वा तेल लगाना भी स्वर्गीय भोग-विलास में गण्य है।...तेल-फुलेल तो जमींदार लोग लगाते हैं। स्वर्ग की परियाँ तेल-फुलेल लेकर पुण्य करनेवालों की सेवा करती हैं...।
खेतों में फैली हुई काली मिट्टी की संजीवनी इन्हें जिलाए रहती है। शस्य-श्यामला, सुजला-सुफला...इनकी माँ नहीं ? अब तो शायद धरती पर पैर रखने का भी अधिकार नहीं रहेगा। कानून बनने के पहले ही कानून को बेकार करने के तरीके गढ़ लिए जाते हैं। सूई के छेद से हाथी निकाल लेने की बुद्धि ही आज सही बुद्धि है।...और लोग तो बकवास करते हैं, बुद्धि-विभ्रम रोग से पीड़ित हैं। जिसके पास हजारों बीघे जमीन है, वह पाँच बीघे जमीन की भूख से छटपटा रहा है।...बेजमीन आदमी आदमी नहीं, वह तो जानवर है !
डाक्टर ममता को लिखता है-
"तुम जो भाषा बोलती हो, उसे ये नहीं समझ सकते। तुम इनकी भाषा नहीं समझ सकतीं। तुम जो खाती हो, ये नहीं खा सकते। तम जो पहनती हो. ये नहीं पहन सकते। तुम जैसे सोती हो, बैठती हो, हँसती हो, बोलती हो, ये वैसा कुछ नहीं कर सकते। फिर तुम इन्हें आदमी कैसे कहती हो।"
...वह आदमी का डाक्टर है, जानवर का नहीं।...'टेस्ट ट्यूबों' में आदमी और जानवर के खून अलग-अलग रखे हुए हैं। दोनों के सिरम की अलग-अलग जरूरतें हैं। डाक्टर आदमी के खूनवाले ट्यूब को हाथ में लेकर, जरा और ऊपर उठाकर, गौर से ) देखता है। वह जानना चाहता है, देखना चाहता है, कि इन इंसानों और जानवरों की V रक्तकणिका में कितना विभेद है, कितना सामंजस्य है।...
खून से भरे हुए टेस्ट-ट्यूबों में अब कोई आकर्षण नहीं !...
क्या करेगा वह संजीवनी बूटी खोजकर ? उसे नहीं चाहिए संजीवनी। भूख और बेबसी से छटपटाकर मरने से अच्छा है मैलेग्नेण्ट मैलेरिया से बेहोश होकर मर जाना। तिल-तिलकर घुल-घुलकर मरने के लिए उन्हें जिलाना बहुत बड़ी क्रूरता होगी...सुनते हैं, महात्मा गाँधी ने कष्ट से तड़पते हुए बछड़े को गोली से मारने की सलाह दी थी। वह नए संसार के लिए इंसान को स्वच्छ और सुन्दर बनाना चाहता था। यहाँ इंसान हैं कहाँ ?...अभी पहला काम है, जानवर को इंसान बनाना !
उसने ममता को लिखा है-
“यहाँ की मिट्टी में बिखरे, लाखों-लाख इंसानों की जिन्दगी के सुनहरे सपनों को बटोरकर, अधूरे अरमानों को बटोरकर, यहाँ के प्राणी के जीवकोष में भर देने की कल्पना मैंने की थी। मैंने कल्पना की थी, हजारों स्वस्थ इंसान हिमालय की कंदराओं में, त्रिवेणी के संगम पर, अरुण, तिमुर और सुणकोशी के संगम पर एक विशाल डैम बनाने के लिए पर्वततोड़ परिश्रम कर रहे हैं। लाखों एकड़ बंध्या धरती, कोशी-कवलित, मरी हुई मिट्टी शस्य-श्यामला हो उठेगी। कफन जैसे सफेद बालू-भरे मैदान में धानी रंग की जिन्दगी के बेल लग जाएँगे। मकई के खेतों में घास गढ़ती हुई औरतें बेवजह हँस पड़ेंगी। मोती जैसे सफेद दाँतों की चमक...!"
डाक्टर का रिसर्च पूरा हो गया; एकदम कम्पलीट। वह बड़ा डाक्टर हो गया। डाक्टर ने रोग की जड़ पकड़ ली है...।
गरीबी और जहालत-इस रोग के दो कीटाणु हैं।
एनोफिलीज से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ्लाई (कालाआजार का मच्छर) से भी ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के...
नहीं। शायद वह कालीचरन की तरह तुलनात्मक उदाहरण दे बैठेगा।...कालीचरन किसानों के बीच भाषण दे रहा था, “ये पूँजीपति और जमींदार, खटमलों और मच्छरों की तरह सोसख हैं।...खटमल ! इसीलिए बहुत-से मारवाड़ियों के नाम के साथ 'मल' लगा हुआ है और जमींदारों के बच्चे मिस्टर कहलाते हैं। मिस्टर...मच्छर !"
दरार-पड़ी दीवार ! यह गिरेगी ! इसे गिरने दो ! यह समाज कब तक टिका रह सकेगा ?
...कविवर हंसकुमार तिवारी की कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं-
दुनिया फूस बटोर चुकी है,
मैं दो चिनगारी दे दूंगा।
गुलमुहर-आज का फूल ! सारी कुरूपता जल रही है। लाल ! लाल !
...कमल-कमला नदी के गड्ढों में कमल की अधमुँदी कलियाँ अपने कोष में नई जिन्दगी के पराग भरकर खिलना ही चाहती हैं।
“ओ ! तुम ! कमला ! इतनी रात में ? अकेली आई हो ?'
“डाक्टर !" बोलो। सच बोलो । मैं डेढ़ घंटे से खड़ी देख रही हूँ। तुमको क्या हो गया है ? क्या तुम्हें भी अब डर लगता है ?- सिर चकराता है ? देखो, कान के पास गर्मी-सी मालूम होती है ? डाक्टर !: डाक्टर !” प्यारू !!'
''कमल की भीनी-भीनी खुशबू ! कोमल पंखुड़ियों का कमनीय स्पर्श । कमला !” ओ ! मैं कमला की गोद में हूँ ? मुझे नींद न लग जाए। मुझे उठकर बैठ जाना चाहिए। मेरी मंजिल ।
“कमला, चलो तुम्हें पहुँचा दूँ। "
“लेटे रहो बेटा !”
“ओ ! मौसी ! तुम आ गई ?”
प्यारू कहता है, “कल सुबह से ही सिरफ चाय पीकर हैं, तो सिर नहीं चक्कर देगा ?”