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भाग 8

18 जुलाई 2022

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लछमी का भी इस संसार में कोई नहीं !

...जी, मेरा कोई नहीं !...लछमी सोचती है, उसका दिल इतना नरम क्यों है ? क्यों वह डाक्टर को देखकर पिघल गई ? यह अच्छी बात नहीं।...सतगुरु मुझे बल दो।।

सतगुरु के सिवा कोई और भी उसका नहीं। माँ की याद नहीं आती। पसराहा मठ के पास अपनी झोंपड़ी की याद आती है। सुबह होते ही बाबूजी कन्धे पर चढ़ाकर मठ ले जाते थे। महन्थ रामगुसाईं कितना प्यार करते थे–'आ गई लच्छो ! ले, मिसरी खाएगी? चाह पीएगी ?' भंडारी एक कटोरे में चाहचूड़ा दे जाता था। बाबूजी बैठकर महन्थ साहेब के लिए गाँजा तैयार करते थे। एक चिलम, दो चिलम, तीन चिलम ! पीते-पीते महन्थ साहेब की आँखें लाल हो जाती थीं। कभी-कभी बाबूजी भी थर-थर, काँपने लगते थे। भंडारी दही लाकर देता था-'खा लो रामचरन भाई ! नशा टूट जाएगा।' बाबूजी को महन्थ साहेब बहुत मानते थे। कोई काम नहीं। दिन-भर महन्थ साहेब की धूनी के पास बैठे रहो, गाँजा तैयार करो, चिलम चढ़ाओ। मठ पर ही हमारा खाना-पीना होता था।

गाँव में जब हैजा फैला तो बाबूजी को महन्थ साहेब ने कहा, "रामचरन ! तुम मठ पर ही रहो।" उन दिनों, दिन-भर में कभी चिलम ठंडी नहीं होने पाती थी। एक दिन महन्थ साहेब का बीजक जल गया। न जाने कैसे चिलम की आग बीजक पर गिर पड़ी। महन्थ साहेब ने रोते हुए कहा था, "रामचरन, साहेब करोध कीहिन है, दंड भोगना पड़ेगा। अमंगल होगा।"...दूसरे ही दिन मठ के एक साधु का पेट-मुह चलने (कै-दस्त होना) लगा। तीसरे दिन उस साधु ने देह 'तेयाग' दिया तो महन्थ साहेब बीमार पड़े। बाबूजी ने महन्थ साहेब की बड़ी सेवा की। शरीर त्यागने के पहले महन्थ साहेब ने कहा था, "रामचरन एक बार आखिरी चिलम पिलाओ बेटा !" बाबूजी चिलम तैयार करने के लिए धूनी से आग ले ही रहे थे कि धूनी में ही उलटी होने लगी। महन्थ साहेब ने शाम को और बाबूजी ने सुबह को काया बदल दिया। भंडारी ने दूर से ही बाबूजी का दरसन करा दिया था। भंडारी ने कहा था, “मरे हुए आदमी के पास नहीं जाना चाहिए।"

"लछमी ! ओ लछमी !"

“आई !" लछमी कुनमुनाती उठती है।...उस दिन बीजक छूकर कसम खाए थे और आज फिर पुकारने लगे। सतगुरु हो, तुम्हारी बुलाहट कब होगी ! बुला लो सतगुरु अपने पास दासी को!

"लछमी !"

"महन्थ साहेब, चित्त को शान्त कीजिए। सतगुरु का ध्यान कीजिए। माया..."

"सब माया है लछमी। लेकिन एक बार पास आओ।"

अन्धा आदमी जब पकड़ता है तो मानो उसके हाथों में मगरमच्छ का बल आ जाता है। अन्धे की पकड़। लाख जतन करो, मुट्ठी टस-से-मस नहीं होगी !...हाथ है या लोहार की 'सँडसी' ! दन्तहीन मुँह की दुर्गन्ध !...लार !..."महन्थ साहेब ! महन्थ साहेब, सुनिए !" रामदास धूनी के पास ही है। “महन्थ साहेब ! अरे रामदास ! रामदास ! जल्दी उठो जी ! महन्थ साहेब को क्या हो गया।"

महन्थ साहेब को सतगुरु ने अपने पास बुला लिया।

सुबह को सारे गाँव के लोग जमा होते हैं।...महन्थ साहेब सिद्ध पुरुख थे ! इच्छा-मृत्यु हुई है ! रात को बैठकर, गाँव के बूढ़े-बच्चों को खिलाकर आए और रात में ही चोला बदल लिए। दुनिया में ऐसी मरनी सबों को नसीब नहीं होती। गियानी महातमा थे।

रामदास कहता है, “भंडारा से लौटकर जब सरकार आए और आसन पर 'धेयान' लगाकर बैठे तो देह से 'जोत' निकलने लगा। हम मसहरी लगाने गए तो इसारे से मना कर दिया। हम धूनी के पास बैठकर देखते रहे। सरकार के देह का जोत और तेज हो गया और सरकार एकदम बच्चा हो गए। जोत की चमक से हमारी आँखें बन्द हो गईं। हम वहीं धूनी के पास लेट गए। कोठारिन जी जब हल्ला करने लगीं तो आँखें खुली..."

लछमी सुबह कुछ नहीं बोलती।...साधुओं को माटी देने की रीत भी नहीं मालूम ? जटा बढ़ा लिया और हाथ में कमंडल ले लिया, हो गए साधू !..."चरनदास ! पहले बीजक पाठ होगा, तब माटी ! इसके बाद सभी सन्तन के गोर (समाधि) पर माटी दी जाएगी। इतना भी नहीं जानते ?"

“माया जाल बिखंडने सुर गुरु दुख परहरता

सरबे लोक जनाच जेन सततं,

हिया लोकिता..." ...

नमोस्तु सतगुरु साहेब को

चरणकमल धरी शीश !

सबसे पहले रामदास माटी देता है ! उसके बाद लछमी दासिन मुट्ठी-भर माटी महन्थ साहेब की सफेद चादर पर डाल देती है। फिर फूलों की माला। साधु लोग कुदाली से गोर में मिट्टी भरने लगते हैं। चरनदास कहता है, "महन्थ साहेब को लगाकर दस महन्थों को माटी दिया है। माटी देना भी नहीं जानेंगे ?"

गाँव के 'कीरतनियाँ लोग' समदाउन शुरू करते हैं-

“हाँ रे, बड़ा रे जतन से सुगा एक हे पोसल,

माखन दुधवा पिलाए।

हाँ रे, से हो रे सुगना बिरिछी चढ़ि बैठल

पिंजड़ा रे धरती लोटाए...?"

गौर के बाद रामदास बँजड़ी बजा-बजाकर 'निरगन' गाता है-

"कँहवाँ से हंसा आओल, कँहवाँ समाओल हो राम,

कि आहो रामा हो, कोन गढ़ कयल मोकाम, कवन लपटाओल हो राम !"

डिम डिमिक डिमिक...

"सुरपुर से हंसा आओल, नरपुर समाओल हो राम,

कि आहो रामा हो, कायागढ़ कयला मोकाम, मायहि लपटाओल हो राम !"

"जै हो, सतगुरु की जै हो ! महन्थ साहेब की जै हो ! सब सन्तन की जै हो !"

मठ सूना लगता है। जीवन में आज पहली बार लछमी समझ रही है महन्थ साहेब की कीमत को।...नेत्रहीन हो गए थे, कुछ देख नहीं सकते थे, बिना रामदास के सहारा के एक पग चल भी नहीं सकते थे, किन्तु ऐसा लगता था कि मठ भरा हुआ है। बिना महन्थ के मठ और बिना प्राण के काया !

काँचहि बाँस के पिंजड़ा,

जामें दियरो न बाती हो,

अरे हंसा उड़ल आकाश,

कोई संगो न साथी हो!

...जो भी हो, संसार में सबसे बढ़कर लछमी को ही प्यार करते थे महन्थ साहेब। चढ़ती जवानी में, सतगुरु साहेब की दया से माया को जीतकर ब्रह्मचारी रहे। बुढ़ौती में तो आदमी की इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, माया के प्रबल घात को नहीं सँभाल सकती हैं। इसीलिए तो साधु-ब्रह्मचारी लोग बुढ़ापे में ही माया के बस में हो जाते हैं। यह तो महन्थ साहेब का दोख नहीं। उसका भाग ही खराब है। यदि वह नहीं होती तो महन्थ साहेब सतगुरु के रास्ते से नहीं डिगते। यह ध्रुव सत्त है। दोख तो लछमी का है। एक ब्रह्मचारी का धरम भ्रष्ट करने का पाप उसके माथे है। अब उसका अपना कौन है ? कोई नहीं !...

"महन्थ साहेब ! महन्थ साहेब ! हमको छोड़कर आप कहाँ चले गए ? दासी के अपराध को छिमा करना गुरु। जीवन में तुम्हारी कोई सेवा सुखी मन से नहीं कर सकी। मरने के समय भी तुमको सुख नहीं दे सकी प्रभू !...छिमा करो!"

जिन्दगी-भर के जमे हुए आँसू आज निकल जाना चाहते हैं, रोके रुकते नहीं।

“जायहिन्द कोठारिन जी !"

"दया सतगुरु के ! बालदेव जी, बैठिए !"

बालदेव जी सब भूल गए। लछमी को सांत्वना देने के लिए रास्ते में जितनी बातें सोची थीं, दोहा, कवित्त, सब भूल गए। उसे माये जी की याद आ जाती है। माये जी का वह रूप... गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही।'

बालदेव जी की गढ़ी हुई ढाढ़स की बाँध इस तेज धारा में नहीं टिक सकेगी। बालदेव जी की भी आँखें छलछला जाती हैं। फल्गू में भी बाढ़ आती है। वह दिल को मजबूत करके कहते हैं, “कोठारिन जी, सब परमेसर की माया है। हानि-लाभ जीवन-मरन जस-अपजस बिधि हाथ।...हम तो सूरज उगने के पहले ही डागडर साहेब के साथ बाहर निकल गए थे। डागडर साहेब को गाँव की चौहद्दी दिखलानी थी। दखिन संथालटोली से सुरु करके, दुसाधटोली तक गली-कूची, अगवारा-पिछवारा देखते-देखते दस बज गए। वहीं मालूम हुआ कि महन्थ साहेब इन्तकाल कर गए हैं। डागडर साहेब का भी मन उदास हो गया। वे इसपिताल लौट गए। बाकी टोलों को कल देखेंगे।... आज रौतहट हाट में ढोल भी दिला देना है-इसपिताल खुल गया है। शोभन मोची को भेजकर हम यहाँ आए हैं।"

लक्ष्मी के आँसू थम चुके थे। बालदेव जी ठीक समय पर आ गए। महन्थ साहेब बालदेव जी को बहुत प्यार करने लगे थे। पाँच-सात दिनों की जान-पहचान में ही महन्थ साहेब ने बालदेव जी को अच्छी तरह पहचान लिया था। रुपैया को बजाकर देखा जाता है और आदमी को एक ही बोली से पहचाना जाता है। महन्थ साहेब कहते थे, "सुद्ध विचार का आदमी है। संसकार बहुत अच्छा है।" इसके पहले महन्थ साहेब ने किसी पर इतना विश्वास नहीं किया था। मठ में रोज तरह-तरह के साधु-संन्यासी आते थे। महन्थ साहेब रोज यह कहना नहीं भूलते थे-"लछमी इन लोगों का कोई विश्वास नहीं। रमता लोग हैं। इन लोगों से ज्यादे मिलना-जुलना अच्छा नहीं !" नई उमर के साधुओं को पैर की आहट से ही वे पहचान लेते थे। उनके अन्तर की दृष्टि बड़ी तेज थी। पिछले साल एक दिन सत्संग में एक नौजवान साधु आकर बैठ गया। रात में आया था, बराहछत्तर (बराहछेत्र, एक तीर्थस्थान) जा रहा था। उसके नैन बड़े चंचल ! सत्संग में बैठकर लछमी की ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। महन्थ साहेब, ‘साहेब वचन' सुना रहे थे। आखर (पंक्ति) कहते-कहते अचानक रुक गए। बोले-“हों नौगछिया के नौजवान उदासी जी ! अरे साहेब, बचन पर धेयान दीजै जी ! लछमी के सरीर पर क्या नैन गड़ाए हैं ! माटी का सरीर तो मिथ्या है, साहेब बचन सत्त !"...बेचारा बिना 'बालभोग' किए ही आसन छोड़कर चला गया था। लेकिन, बालदेव जी पर उनका बड़ा विश्वास था।..."असल तेयागी यही लोग हैं लछमी !"

बालदेव जी को देखते ही लछमी का दुख आधा हो गया। बालदेव जी कहते हैं, "बड़े भाग से ऐसे लोगों का दरसन मिलता है। हमको तो दरसन मिला, लेकिन सेवा का औसर नहीं मिला। हमारा अभाग...है।"

"बालदेव जी, आप तो दास हैं ?"

“जी ! मेरी माँ भी दास थी। माँस-मछली छूती भी नहीं थी।"

"तब तो आप 'गरभदास' हैं। फिर कंठी क्यों नहीं ले लेते ?"

बालदेव जी ज़रा होंठों पर हँसी लाकर कहते हैं, “कोठारिन जी, असल चीज है मन। कंठी तो बाहरी चीज है।"

दूसरा साधू होता तो कंठी को बाहरी चीज कहते सुनकर गुस्सा हो जाता। रामदेव गुसाईं होते तो तुरन्त चिमटा लेकर खड़े हो जाते, गाली-गलौज करने लगते। लेकिन लछमी शान्त होकर कहती है, "कंठी बाहरी चीज नहीं है बालदेव जी ! भेख है यह। आप विचार कर देखिए। जैसे आपका यह खधड़ कपड़ा है। मलमल और मारकीन कपड़ा पहननेवाले मन से भले ही महतमा जी के पन्थ को मानें, लेकिन आप उन्हें सुराजी तो नहीं कहिएगा ?"

लछमी की बातों का जवाब देना सहज नहीं। जब-जब लछमी से बातें होती हैं, बालदेव जी को नई बातों की जानकारी होती है।

"आप कहती हैं तो ले लेंगे कंठी।"

"किससे लीजिएगा ?"

“आप ही दे दीजिए।"

लछमी हँस पड़ती है। शोकाकुल वातावरण में लछमी की मुस्कराहट जान डाल देती है।...कितने सूधे हैं बालदेव जी ! मुझे गुरु बनाना चाहते हैं !

"नहीं बालदेव जी, मैं आपको आचारज जी से कंठी दिलाऊँगी। आचारज जी काशी जी में रहते हैं। मैं आपको अपना बीजक देती हूँ। इसका रोज पाठ कीजिए। बीजक पाठ से मन निरमल होता है, अन्तर की ज्योति खुलती है।"

...बीजक ! एक छोटी-सी पोथी ! ‘गयान' का भंडार ! बालदेव जी का दिल धक-धक कर रहा है। लछमी कहती है, “सब हाथ का लिखा हुआ है। उस बार काशी जी से एक विद्यार्थी जी आए थे। बड़े जतन से लिख दिया था। मोती जैसे अच्छर हैं।"

बीजक से भी लछमी की देह की सुगन्धी निकलती है। इस सुगन्ध में एक नशा है। इस पोथी के हरेक पन्ने को लछमी की उँगलियों ने परस किया है...'पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ा सो पंडित होय।'

लछमी को देखने से ही मन पवित्र हो जाता है।

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रचनाएँ
मैला आँचल
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मैला आँचल फणीश्वरनाथ 'रेणु' का प्रतिनिधि उपन्यास है। यह हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट रूप से जुड़े हुए थे, अत्यन्त जीवन्त और मुखर चित्रण किया है। फणीश्वरनाथ रेणु को ख्याति हिंदी साहित्य में अपने उपन्यास मैला आँचल से मिली है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातो-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद इसे हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित करने में भी देर नहीं की।
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मैला आँचल-प्रथम संस्करण की भूमिका

18 जुलाई 2022
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‘मैला आँचल’ हिन्दी का श्रेष्ठ और सशक्त आंचलिक उपन्यास है। नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल को पृष्ठभूमि बनाकर रेणु ने इसमें वहाँ के जीवन का, जिससे वह स्वयं ही घनिष्ट र

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मैला आँचल-प्रथम खंड (भाग 1)

18 जुलाई 2022
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एक गाँव में यह खबर बिजली की तरह फैल गई-मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्तार कर लिया है और लोबिनलाल के कुँए से बाल्टी खोलकर ले गए हैं। यद्यपि 1942 के जन-आन्दोलन के समय इस गाँव में न तो फौजियों का कोई उत्

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भाग 2

18 जुलाई 2022
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पूर्णिया जिले में ऐसे बहुत-से गाँव और कस्बे हैं, जो आज भी अपने नामों पर नीलहे साहबों का बोझ ढो रहे हैं। वीरान जंगलों और मैदानों में नील कोठी के खंडहर राही बटोहियों को आज भी नीलयुग की भूली हुई कहानियाँ

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भाग 3

18 जुलाई 2022
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डिस्टीबोट के मिस्तिरी लोग आए हैं। बालदेव के उत्साह का ठिकाना नहीं है। आफसियरबाबू ने तहसीलदार साहब और रामकिरपालसिंघ के सामने ही कहा था"आप तो देश के सेवक हैं।" सबों ने सुना था। दुनिया में धन क्या है ? त

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भाग 4

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सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! महंथ साहेब सदा ब्रह्म बेला में उठते हैं। “हो रामदास। आसन त्यागो जी ! लक्ष्मी को जगाओ !...सतगुरु हो ! ये कभी जो बिना जगाए जागें। रामदास ! हो जी रामदास !" रामदास आँखें मलते हुए

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भाग 5

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मठ पर गाँव-भर के मुखिया लोगों की पंचायत बैठी है। बालदेव जी को आज फिर 'भाखन' देने का मौका मिला है। लेकिन गाँव की पंचायत क्या है, पुरैनिया कचहरी के रामू मोदी की दुकान है। सभी अपनी बात पहले कहना चाहते है

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भाग 6

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बालदेव जी को रात में नींद नहीं आती है। मठ से लौटने में देर हो गई थी। लौटकर सुना, खेलावन भैया की तबियत खराब है; आँगन में सोये हैं। यदि कोई आँगन में सोया रहे तो समझ लेना चाहिए कि तबियत खराब हुई है, बुख

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भाग 7

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प्यारू को सबों ने चारों ओर से घेर लिया। डागडर साहेब का नौकर है। डागडर साहेब कब तक आएँगे? तुम्हारा क्या नाम है ? कौन जात है ? दुसाध मत कहो, गहलोत बोलो गहलोत ! जनेऊ नहीं है ? बालदेव जी प्यारू को भीड़ स

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भाग 8

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लछमी का भी इस संसार में कोई नहीं ! ...जी, मेरा कोई नहीं !...लछमी सोचती है, उसका दिल इतना नरम क्यों है ? क्यों वह डाक्टर को देखकर पिघल गई ? यह अच्छी बात नहीं।...सतगुरु मुझे बल दो।। सतगुरु के सिवा कोई

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भाग 9

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डाक्टर प्रशान्तकुमार ! जात ?... नाम पूछने के बाद ही लोग यहाँ पूछते हैं-जात ? जीवन में बहुत कम लोगों ने प्रशान्त से उसकी जाति के बारे में पूछा है। लेकिन यहाँ तो हर आदमी जाति पूछता है। प्रशान्त हँसकर

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भाग - 10

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डाक्टर पत्र लिख रहा है- “ममता, "तुमने कहा था, पहुँचते ही पत्र देना। पहुँचने के एक सप्ताह बाद पत्र दे रहा हूँ। तुम्हारे बाबा विश्वनाथ ने मेरे आने से पहले ही अपने एक दूत को भेज दिया है। प्यारू सचमुच द

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भाग 11

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नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से नहीं तोरा पास में तीर जी !... एक सखी ने पूछा कि हे सखी, तुम्हारे पास में न तीर है न तलवार। ...नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से कौनहि चीजवा से मारलू बटोहिया क

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भाग 12

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मठ पर आचारजगुरु आनेवाले हैं, नए महन्थ को चादर-टीका देने के लिए ! मुजफ्फरपुर जिला का एक मुरती आया है-लरसिंघदास। आचारजगुरु मुजफ्फरपुर जिले के पुपड़ी मठ पर भंडारा में आए हैं। लरसिंघदास खबर लेकर आया है-आच

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भाग 13

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तेरह गाँव के ग्रह अच्छे नहीं ! सिर्फ जोतखी जी नहीं, गाँव के सभी मातबर लोग मन-ही-मन सोच-विचार कर देख रहे हैं-गाँव के ग्रह अच्छे नहीं ! तहसीलदार साहब को स्टेट के सर्किल मैनेजर ने बुलाकर एकान्त में कह

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भाग 14

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चढ़ली जवानी मोरा अंग अंग फड़के से कब होइहैं गवना हमार रे भउजियाऽऽऽ ! पक्की सड़क पर गाड़ीवानों का दल भउजिया का गीत गाते हुए गाड़ी हाँक रहा .' है। “आँ आँ ! चल बढ़के। दाहिने...हाँ, हाँ, घोड़ा देखकर भी

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भाग 15

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सुमरितदास को लोग लबड़ा आदमी समझते हैं, लेकिन समय पर वह पते की बातें बता जाता है। आजकल उसका नाम पड़ा है-बेतार की खबर। संक्षेप में 'बेतार' । बात छोटी या बड़ी, कोई भी नई बात बेतार तुरत घर-घर में पहुँचा द

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भाग 16

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मुसम्मात सुनरी ! टक्का कटपीस-एक गज। छींट-डेढ़ गज। मलेछिया साटिन-एक गज। साड़ी-एक नग। बालदेव जी कपड़े की पुर्जी बाँट रहे हैं। रौतहट टीशन के हंसराज बच्छराज मरवाड़ी के यहाँ कपड़ा मिलेगा। खेलावन यादव

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भाग 17

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चारजगुरु कासी जी से आए हैं। सभी मठ के जमींदार हैं, आचारजगुरु। साथ में तीस मुरती आए हैं-भंडारी, अधिकारी, सेवक, खास, चिलमची, अमीन, मुंशी और गवैया। साधुओं के दल में एक नागा साधू भी है। यद्यपि वह दूसरे म

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भाग 18

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अठारह "क्या नाम ?" "सनिच्चर महतो।" "कितने दिनों से खाँसी होती है? कोई दवा खाते थे या नहीं ?...क्या, थूक से खून आता है ? कब से ?...कभी-कभी ? हूँ !...एक साफ डिब्बा में रात-भर का थूक जमा करके ले आना।.

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भाग 19

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चलो ! चलो ! सभा देखने चलो ! सोशलिस्ट पार्टी की सभा की खबर ने संथालटोली को विशेष रूप से आलोड़ित किया है। गाँव में अस्पताल खुलने की खुशखबरी की कोई खास प्रतिक्रिया संथालों पर नहीं हुई थी। गाँव के लड़ाई-

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भाग 20

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कमली डाक्टर को पत्र लिखती है- "प्राणनाथ !...तुम कल नहीं आए। क्यों नहीं आए ? सुना कि रात में...।" कमली डाक्टर को रोज पत्र लिखती है। लिखकर पाँच-सात बार पढ़ती है, फिर फाड़ डालती है। उसकी अलमारी के एक क

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भाग 21

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रात को तन्त्रिमाटोली में सहदेव मिसर पकड़े गए ! यह सब खलासी की करतूत है। ऊपरी आदमी (परदेशी) के सिवा ऐसा जालफरेब गाँव का और कौन कर सकता है ? पुश्त-पुश्तैनी के बाबू लोग छोटे लोगों के टोले में जाते हैं।

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भाग 22

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सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! महन्थ रामदास भी छींकने, खाँसने और जमाही लेने के समय महन्थ सेवादास जी की तरह ही चुटकी बजाते हैं, 'सतगुरु हो', 'सतगुरु हो' कहते हैं और आँखें स्वयं ही बन्द हो जाती हैं। भजन, बीजक

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भाग 23

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गाँव के लोग अर्थशास्त्र का साधारण सिद्धान्त भी नहीं जानते। 'सप्लाई' और 'डिमांड' के गोरख-धन्धे में वे अपना दिमाग नहीं खपाते। अनाज का दर बढ़ रहा है; खुशी की बात है। पाट का दर बढ़ रहा है, बढ़ता जा रहा है

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भाग 24

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चौबीस हाँ रे, अब ना जीयब रे सैयाँ छतिया पर लोटल केश, अब ना जीयब रे सैयाँ ! महँगी पड़े या अकाल हो, पर्व-त्योहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मैलेरि

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भाग 25

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बावनदास आजकल उदास रहा करता है। "दासी जी, चुन्नी गुसाईं का क्या समाचार है ?" रात में बालदेव जी सोने के समय बावनदास से बातें करते हैं। “चुन्नी गुसाईं तो सोसलिट पाटी में चला गया।" बालदेव जी आश्चर्य से

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भाग 26

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बाबू हरगौरीसिंह राज पारबंगा के नए तहसीलदार बहाल हुए। 'बेतार का खबर' सुमरितदास सबों को कहता है, “देखो-देखो, कायस्थ के जूठे पत्तल में राजपूत खा रहा है। तहसीलदार विश्वनाथबाबू को राज पारबंगा के कुमार साहे

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भाग 27

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डाक्टर की जिन्दगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ है। उसने प्रेम, प्यार और स्नेह को बायोलॉजी के सिद्धान्तों से ही हमेशा मापने की कोशिश की थी। वह हँसकर कहा करता, "दिल नाम की कोई चीज आदमी के शरीर में है, हमें

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भाग 28

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डाक्टर आदमी नहीं, देवता है देवता ! तन्त्रिमाटोली, पोलियाटोली, कुर्मछत्रीटोली और रैदासटोली में सब मिलाकर सिर्फ पाँच आदमी नुकसान हुए। घर-घर में एक-दो आदमी बीमार थे, लेकिन डाक्टर देवता है। दिन-रात, कभी

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भाग 29

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कल 'सिरवा' पर्व है। कल पड़मान में 'मछमरी' होगी-मछमरी अर्थात् मछली का शिकार। आज चैत्र संक्रान्ति है। कल पहली वैशाख, साल का पहला दिन। कल सभी गाँव के लोग सामूहिक रूप से मछली का शिकार करेंगे। छोटे-बड़े,

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भाग 30

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अखिल भारतीय मेडिकल गजट में डाक्टर प्रशान्त, मैलेरियोलॉजिस्ट के रिसर्च की छमाही रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। गजट के सम्पादक-मंडल में भारत के पाँच डाक्टर हैं। इस रिपोर्ट पर उन लोगों ने अपना-अपना नाम नोट दिय

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भाग 31

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मंगलादेवी, चरखा-सेंटर की मास्टरनी जी बीमार हैं। डाक्टर ने खून जाँचकर देखा, कालाआजार नहीं, टाइफायड है। चरखा-सेंटर के दोनों मास्टर तहसीलदार साहब के गुहाल में रहते हैं और मास्टरनी जी भगमान भगत की एक झों

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भाग 32

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बैशाख और जेठ महीने में शाम को 'तड़बन्ना' में जिन्दगी का आनन्द सिर्फ तीन आने लबनी बिकता है। चने की घुघनी, मूड़ी और प्याज, और सुफेद झाग से भरी हुई लबनी !... खट-मिट्ठी, शकर-चिनियाँ और बैर-चिनियाँ ताड़ी

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भाग 33

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अमंगल ! "गाँव के मंगल का अब कोई उमेद नहीं।" हरगौरी तहसीलदार दुर्गा के वाहन की तरह गुर्राता है-“साले सब ! चुपचाप दफा 40 का दर्खास देकर समझते थे कि जमीन नकदी हो गई। अब समझो। बौना और बलदेवा से जमीन लो।

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भाग 34

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फुलिया पुरैनियाँ टीसन से आई है। एकदम बदल गई है फुलिया | साड़ी पहनने का ढंग, बोलने-बतियाने का ढंग, सबकुछ बदल गया है। तहसीलदार साहब की बेटी कमली अँगिया के नीचे जैसी छोटी चोली पहनती है, वैसी वह भी पहनती

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भाग 35

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तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के सामने विकट समस्या उपस्थिति है । नई बंदोबस्तीवाले किसान रोज उनके यहाँ जाते हैं। मामला-मुकदमा उठने पर विश्वनाथ प्रसाद की गवाही की जरूरत होगी। बेजमीन लोग अपनी पार्टीबंदी कर रहे

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भाग 36

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डाक्टर पर यहाँ की मिट्टी का मोह सवार हो गया। उसे लगता है, मानो वह युग-युग से इस धरती को पहचानता है। यह अपनी मिट्टी है। नदी तालाब, पेड़-पौधे, जंगल-मैदान, जीवन-जानवर, कीड़े-मकोड़े, सभी में वह एक विशेषता

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भाग 37

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तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के दरवाजे पर पंचायत बैठी है। दोनों तहसीलदार के अगल-बगल में बालदेवजी और कालीचरन जी बैठे हैं। बाभन-राजपूत के साथ में बैठा है यादव-एक ही ऊँचे सफरे (बिछावन, दरी) पर। अरे ! जीबेसर म

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भाग 38

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दो दिन से बदली छाई हुई है। आसमान कभी साफ नहीं होता। दो-तीन घंटों के लिए बरसा रुकी, बूंदा-बाँदी हुई, फिर फुहिया। एक छोटा-सा सफेद बादल का टुकड़ा भी यदि नीचे की ओर आ गया तो हरहराकर बरसा होने लगती है। आसा

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भाग 39

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संथाल लोग गाँव के नहीं, बाहरी आदमी हैं ? "...जरा विचार कर देखो। यह तन्त्रिमा का सरदार है...अच्छा, तुम्हीं बताओ जगरू, तुम लोग कौन ततमा हो ? मगहिया हो न ? अच्छा कहो, तुम्हारे दादा ही पच्छिम से आए और तु

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भाग 40

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जोतखी ठीक कहते थे-गाँव में चील-काग उड़ेंगे और पुलिस-दारोगा गली-गली में घूमेगा । पुलिस-दारोगा, हवलदार और मलेटरी, चार हवागाड़ी में भरकर आए हैं। दुहाई माँ काली ! इसपी, कलक्टर, हाकिम अभी आनेवाला है। लह

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भाग 41

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नौ आसामी का चालान कर दिया। नौ संथालों के अलावा जो लोग घायल होकर इसपिताल में पड़े हैं वे लोग भी गिरिफ्फ हैं। पुरैनियाँ इसपिताल में बन्दूकवाले मलेटरी का पहरा है। गैर-संथालों में कोई गिरिफ्फ नहीं हुआ।.

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भाग 42

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हरगौरी की माँ रो रही है-“राजा बेटा रे ! “गौरी बेटा रे !” हरगौरी की सोलह साल की स्त्री बिना गौना के ही आई है । वह बहुत धीरे-धीरे रोती है। घूँघट के नीचे उसकी आँखें हमेशा बरसती रहती हैं। शिवशक्करसिंघ प

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भाग 43

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लछमी दासिन आज मन के सभी दुआर खोल देगी। एक लक्ष दुआर ! "बालदेव जी !" “जी!" “रामदास फिर बौरा गया है। कल भंडारी से कह रहा था, लछमी से कहो एक दासी रखने की आज्ञा दे।...कहिए तो भला !" बालदेव जी क्या जवा

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भाग 44

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इधर कुछ दिनों से डाक्टर मौसी के यहाँ ज्यादा देर तक बैठने लगा है। मौसी के यहाँ जब तक रहता है, ऐसा लगता है मानो वह शीतल छाया के नीचे हो । काम में जी नहीं लगता है। ऐसा लगता है, उसका सारा उत्साह स्पिरिट क

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