लछमी का भी इस संसार में कोई नहीं !
...जी, मेरा कोई नहीं !...लछमी सोचती है, उसका दिल इतना नरम क्यों है ? क्यों वह डाक्टर को देखकर पिघल गई ? यह अच्छी बात नहीं।...सतगुरु मुझे बल दो।।
सतगुरु के सिवा कोई और भी उसका नहीं। माँ की याद नहीं आती। पसराहा मठ के पास अपनी झोंपड़ी की याद आती है। सुबह होते ही बाबूजी कन्धे पर चढ़ाकर मठ ले जाते थे। महन्थ रामगुसाईं कितना प्यार करते थे–'आ गई लच्छो ! ले, मिसरी खाएगी? चाह पीएगी ?' भंडारी एक कटोरे में चाहचूड़ा दे जाता था। बाबूजी बैठकर महन्थ साहेब के लिए गाँजा तैयार करते थे। एक चिलम, दो चिलम, तीन चिलम ! पीते-पीते महन्थ साहेब की आँखें लाल हो जाती थीं। कभी-कभी बाबूजी भी थर-थर, काँपने लगते थे। भंडारी दही लाकर देता था-'खा लो रामचरन भाई ! नशा टूट जाएगा।' बाबूजी को महन्थ साहेब बहुत मानते थे। कोई काम नहीं। दिन-भर महन्थ साहेब की धूनी के पास बैठे रहो, गाँजा तैयार करो, चिलम चढ़ाओ। मठ पर ही हमारा खाना-पीना होता था।
गाँव में जब हैजा फैला तो बाबूजी को महन्थ साहेब ने कहा, "रामचरन ! तुम मठ पर ही रहो।" उन दिनों, दिन-भर में कभी चिलम ठंडी नहीं होने पाती थी। एक दिन महन्थ साहेब का बीजक जल गया। न जाने कैसे चिलम की आग बीजक पर गिर पड़ी। महन्थ साहेब ने रोते हुए कहा था, "रामचरन, साहेब करोध कीहिन है, दंड भोगना पड़ेगा। अमंगल होगा।"...दूसरे ही दिन मठ के एक साधु का पेट-मुह चलने (कै-दस्त होना) लगा। तीसरे दिन उस साधु ने देह 'तेयाग' दिया तो महन्थ साहेब बीमार पड़े। बाबूजी ने महन्थ साहेब की बड़ी सेवा की। शरीर त्यागने के पहले महन्थ साहेब ने कहा था, "रामचरन एक बार आखिरी चिलम पिलाओ बेटा !" बाबूजी चिलम तैयार करने के लिए धूनी से आग ले ही रहे थे कि धूनी में ही उलटी होने लगी। महन्थ साहेब ने शाम को और बाबूजी ने सुबह को काया बदल दिया। भंडारी ने दूर से ही बाबूजी का दरसन करा दिया था। भंडारी ने कहा था, “मरे हुए आदमी के पास नहीं जाना चाहिए।"
"लछमी ! ओ लछमी !"
“आई !" लछमी कुनमुनाती उठती है।...उस दिन बीजक छूकर कसम खाए थे और आज फिर पुकारने लगे। सतगुरु हो, तुम्हारी बुलाहट कब होगी ! बुला लो सतगुरु अपने पास दासी को!
"लछमी !"
"महन्थ साहेब, चित्त को शान्त कीजिए। सतगुरु का ध्यान कीजिए। माया..."
"सब माया है लछमी। लेकिन एक बार पास आओ।"
अन्धा आदमी जब पकड़ता है तो मानो उसके हाथों में मगरमच्छ का बल आ जाता है। अन्धे की पकड़। लाख जतन करो, मुट्ठी टस-से-मस नहीं होगी !...हाथ है या लोहार की 'सँडसी' ! दन्तहीन मुँह की दुर्गन्ध !...लार !..."महन्थ साहेब ! महन्थ साहेब, सुनिए !" रामदास धूनी के पास ही है। “महन्थ साहेब ! अरे रामदास ! रामदास ! जल्दी उठो जी ! महन्थ साहेब को क्या हो गया।"
महन्थ साहेब को सतगुरु ने अपने पास बुला लिया।
सुबह को सारे गाँव के लोग जमा होते हैं।...महन्थ साहेब सिद्ध पुरुख थे ! इच्छा-मृत्यु हुई है ! रात को बैठकर, गाँव के बूढ़े-बच्चों को खिलाकर आए और रात में ही चोला बदल लिए। दुनिया में ऐसी मरनी सबों को नसीब नहीं होती। गियानी महातमा थे।
रामदास कहता है, “भंडारा से लौटकर जब सरकार आए और आसन पर 'धेयान' लगाकर बैठे तो देह से 'जोत' निकलने लगा। हम मसहरी लगाने गए तो इसारे से मना कर दिया। हम धूनी के पास बैठकर देखते रहे। सरकार के देह का जोत और तेज हो गया और सरकार एकदम बच्चा हो गए। जोत की चमक से हमारी आँखें बन्द हो गईं। हम वहीं धूनी के पास लेट गए। कोठारिन जी जब हल्ला करने लगीं तो आँखें खुली..."
लछमी सुबह कुछ नहीं बोलती।...साधुओं को माटी देने की रीत भी नहीं मालूम ? जटा बढ़ा लिया और हाथ में कमंडल ले लिया, हो गए साधू !..."चरनदास ! पहले बीजक पाठ होगा, तब माटी ! इसके बाद सभी सन्तन के गोर (समाधि) पर माटी दी जाएगी। इतना भी नहीं जानते ?"
“माया जाल बिखंडने सुर गुरु दुख परहरता
सरबे लोक जनाच जेन सततं,
हिया लोकिता..." ...
नमोस्तु सतगुरु साहेब को
चरणकमल धरी शीश !
सबसे पहले रामदास माटी देता है ! उसके बाद लछमी दासिन मुट्ठी-भर माटी महन्थ साहेब की सफेद चादर पर डाल देती है। फिर फूलों की माला। साधु लोग कुदाली से गोर में मिट्टी भरने लगते हैं। चरनदास कहता है, "महन्थ साहेब को लगाकर दस महन्थों को माटी दिया है। माटी देना भी नहीं जानेंगे ?"
गाँव के 'कीरतनियाँ लोग' समदाउन शुरू करते हैं-
“हाँ रे, बड़ा रे जतन से सुगा एक हे पोसल,
माखन दुधवा पिलाए।
हाँ रे, से हो रे सुगना बिरिछी चढ़ि बैठल
पिंजड़ा रे धरती लोटाए...?"
गौर के बाद रामदास बँजड़ी बजा-बजाकर 'निरगन' गाता है-
"कँहवाँ से हंसा आओल, कँहवाँ समाओल हो राम,
कि आहो रामा हो, कोन गढ़ कयल मोकाम, कवन लपटाओल हो राम !"
डिम डिमिक डिमिक...
"सुरपुर से हंसा आओल, नरपुर समाओल हो राम,
कि आहो रामा हो, कायागढ़ कयला मोकाम, मायहि लपटाओल हो राम !"
"जै हो, सतगुरु की जै हो ! महन्थ साहेब की जै हो ! सब सन्तन की जै हो !"
मठ सूना लगता है। जीवन में आज पहली बार लछमी समझ रही है महन्थ साहेब की कीमत को।...नेत्रहीन हो गए थे, कुछ देख नहीं सकते थे, बिना रामदास के सहारा के एक पग चल भी नहीं सकते थे, किन्तु ऐसा लगता था कि मठ भरा हुआ है। बिना महन्थ के मठ और बिना प्राण के काया !
काँचहि बाँस के पिंजड़ा,
जामें दियरो न बाती हो,
अरे हंसा उड़ल आकाश,
कोई संगो न साथी हो!
...जो भी हो, संसार में सबसे बढ़कर लछमी को ही प्यार करते थे महन्थ साहेब। चढ़ती जवानी में, सतगुरु साहेब की दया से माया को जीतकर ब्रह्मचारी रहे। बुढ़ौती में तो आदमी की इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, माया के प्रबल घात को नहीं सँभाल सकती हैं। इसीलिए तो साधु-ब्रह्मचारी लोग बुढ़ापे में ही माया के बस में हो जाते हैं। यह तो महन्थ साहेब का दोख नहीं। उसका भाग ही खराब है। यदि वह नहीं होती तो महन्थ साहेब सतगुरु के रास्ते से नहीं डिगते। यह ध्रुव सत्त है। दोख तो लछमी का है। एक ब्रह्मचारी का धरम भ्रष्ट करने का पाप उसके माथे है। अब उसका अपना कौन है ? कोई नहीं !...
"महन्थ साहेब ! महन्थ साहेब ! हमको छोड़कर आप कहाँ चले गए ? दासी के अपराध को छिमा करना गुरु। जीवन में तुम्हारी कोई सेवा सुखी मन से नहीं कर सकी। मरने के समय भी तुमको सुख नहीं दे सकी प्रभू !...छिमा करो!"
जिन्दगी-भर के जमे हुए आँसू आज निकल जाना चाहते हैं, रोके रुकते नहीं।
“जायहिन्द कोठारिन जी !"
"दया सतगुरु के ! बालदेव जी, बैठिए !"
बालदेव जी सब भूल गए। लछमी को सांत्वना देने के लिए रास्ते में जितनी बातें सोची थीं, दोहा, कवित्त, सब भूल गए। उसे माये जी की याद आ जाती है। माये जी का वह रूप... गंगा रे जमुनवाँ की धार नयनवाँ से नीर बही।'
बालदेव जी की गढ़ी हुई ढाढ़स की बाँध इस तेज धारा में नहीं टिक सकेगी। बालदेव जी की भी आँखें छलछला जाती हैं। फल्गू में भी बाढ़ आती है। वह दिल को मजबूत करके कहते हैं, “कोठारिन जी, सब परमेसर की माया है। हानि-लाभ जीवन-मरन जस-अपजस बिधि हाथ।...हम तो सूरज उगने के पहले ही डागडर साहेब के साथ बाहर निकल गए थे। डागडर साहेब को गाँव की चौहद्दी दिखलानी थी। दखिन संथालटोली से सुरु करके, दुसाधटोली तक गली-कूची, अगवारा-पिछवारा देखते-देखते दस बज गए। वहीं मालूम हुआ कि महन्थ साहेब इन्तकाल कर गए हैं। डागडर साहेब का भी मन उदास हो गया। वे इसपिताल लौट गए। बाकी टोलों को कल देखेंगे।... आज रौतहट हाट में ढोल भी दिला देना है-इसपिताल खुल गया है। शोभन मोची को भेजकर हम यहाँ आए हैं।"
लक्ष्मी के आँसू थम चुके थे। बालदेव जी ठीक समय पर आ गए। महन्थ साहेब बालदेव जी को बहुत प्यार करने लगे थे। पाँच-सात दिनों की जान-पहचान में ही महन्थ साहेब ने बालदेव जी को अच्छी तरह पहचान लिया था। रुपैया को बजाकर देखा जाता है और आदमी को एक ही बोली से पहचाना जाता है। महन्थ साहेब कहते थे, "सुद्ध विचार का आदमी है। संसकार बहुत अच्छा है।" इसके पहले महन्थ साहेब ने किसी पर इतना विश्वास नहीं किया था। मठ में रोज तरह-तरह के साधु-संन्यासी आते थे। महन्थ साहेब रोज यह कहना नहीं भूलते थे-"लछमी इन लोगों का कोई विश्वास नहीं। रमता लोग हैं। इन लोगों से ज्यादे मिलना-जुलना अच्छा नहीं !" नई उमर के साधुओं को पैर की आहट से ही वे पहचान लेते थे। उनके अन्तर की दृष्टि बड़ी तेज थी। पिछले साल एक दिन सत्संग में एक नौजवान साधु आकर बैठ गया। रात में आया था, बराहछत्तर (बराहछेत्र, एक तीर्थस्थान) जा रहा था। उसके नैन बड़े चंचल ! सत्संग में बैठकर लछमी की ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। महन्थ साहेब, ‘साहेब वचन' सुना रहे थे। आखर (पंक्ति) कहते-कहते अचानक रुक गए। बोले-“हों नौगछिया के नौजवान उदासी जी ! अरे साहेब, बचन पर धेयान दीजै जी ! लछमी के सरीर पर क्या नैन गड़ाए हैं ! माटी का सरीर तो मिथ्या है, साहेब बचन सत्त !"...बेचारा बिना 'बालभोग' किए ही आसन छोड़कर चला गया था। लेकिन, बालदेव जी पर उनका बड़ा विश्वास था।..."असल तेयागी यही लोग हैं लछमी !"
बालदेव जी को देखते ही लछमी का दुख आधा हो गया। बालदेव जी कहते हैं, "बड़े भाग से ऐसे लोगों का दरसन मिलता है। हमको तो दरसन मिला, लेकिन सेवा का औसर नहीं मिला। हमारा अभाग...है।"
"बालदेव जी, आप तो दास हैं ?"
“जी ! मेरी माँ भी दास थी। माँस-मछली छूती भी नहीं थी।"
"तब तो आप 'गरभदास' हैं। फिर कंठी क्यों नहीं ले लेते ?"
बालदेव जी ज़रा होंठों पर हँसी लाकर कहते हैं, “कोठारिन जी, असल चीज है मन। कंठी तो बाहरी चीज है।"
दूसरा साधू होता तो कंठी को बाहरी चीज कहते सुनकर गुस्सा हो जाता। रामदेव गुसाईं होते तो तुरन्त चिमटा लेकर खड़े हो जाते, गाली-गलौज करने लगते। लेकिन लछमी शान्त होकर कहती है, "कंठी बाहरी चीज नहीं है बालदेव जी ! भेख है यह। आप विचार कर देखिए। जैसे आपका यह खधड़ कपड़ा है। मलमल और मारकीन कपड़ा पहननेवाले मन से भले ही महतमा जी के पन्थ को मानें, लेकिन आप उन्हें सुराजी तो नहीं कहिएगा ?"
लछमी की बातों का जवाब देना सहज नहीं। जब-जब लछमी से बातें होती हैं, बालदेव जी को नई बातों की जानकारी होती है।
"आप कहती हैं तो ले लेंगे कंठी।"
"किससे लीजिएगा ?"
“आप ही दे दीजिए।"
लछमी हँस पड़ती है। शोकाकुल वातावरण में लछमी की मुस्कराहट जान डाल देती है।...कितने सूधे हैं बालदेव जी ! मुझे गुरु बनाना चाहते हैं !
"नहीं बालदेव जी, मैं आपको आचारज जी से कंठी दिलाऊँगी। आचारज जी काशी जी में रहते हैं। मैं आपको अपना बीजक देती हूँ। इसका रोज पाठ कीजिए। बीजक पाठ से मन निरमल होता है, अन्तर की ज्योति खुलती है।"
...बीजक ! एक छोटी-सी पोथी ! ‘गयान' का भंडार ! बालदेव जी का दिल धक-धक कर रहा है। लछमी कहती है, “सब हाथ का लिखा हुआ है। उस बार काशी जी से एक विद्यार्थी जी आए थे। बड़े जतन से लिख दिया था। मोती जैसे अच्छर हैं।"
बीजक से भी लछमी की देह की सुगन्धी निकलती है। इस सुगन्ध में एक नशा है। इस पोथी के हरेक पन्ने को लछमी की उँगलियों ने परस किया है...'पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़ा सो पंडित होय।'
लछमी को देखने से ही मन पवित्र हो जाता है।