तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के दरवाजे पर पंचायत बैठी है। दोनों तहसीलदार के अगल-बगल में बालदेवजी और कालीचरन जी बैठे हैं। बाभन-राजपूत के साथ में बैठा है यादव-एक ही ऊँचे सफरे (बिछावन, दरी) पर। अरे ! जीबेसर मोची भी उसी कम्बल पर बैठा है ? बस, अब रास्ते पर आ रहा है। देखो, आज तहसीलदार हरगौरी किस तरह हँस-हँसकर कालीचरन से बात कर रहा है-मानो एक प्याली का दोस्त है। हाँ, तो यादवों को अब जमाहिरलाल भी छत्री मान लिए हैं। कौन क्या बोल सकता है ?...बावनदास कौन जात है ?...कहाँ है बावनदास ? पुरैनियाँ गया है ? आज पंचायत के दिन उसको रहना चाहिए था। अरे भाई बाहरी आदमी फिर बाहरी आदमी है। उसको इस गाँव से कौन जरूरत है.? यहाँ नहीं, वहाँ । लेकिन
“ठाकुर (नाई) टोले से और रजकटोले से एक-एक आदमी को ऊँचे सफरे पर बैठने के लिए चुन लिया जाए ।”
ओ ! आओ डोमन भाई ! अपने टोले से किसको पंच चुनते हो ? बोलो ! तुम्हीं आओ ! और रजकटोलने से तो प्यारेलाल है ही। आओ प्यारे !” कालीचरन प्यारे को अपने ही पास बिठलाता है ।
“तो बात यह है कि,” तहसीलदार विश्वनाथप्रसाठजी सुपारी कतरते हुए कहते हैं, “जमाना बहुत खराब आ रहा है! जो लोग अखबार-गजट पढ़ते हैं, वही जानते हैं कि कितना खराब जमाना आ रहा है।...बंगाल की तरह अकाल फैलेगा । बंगाल के अकाल के बारे में नहीं जानते ?... अरे, चरवाह्य सब गाता है, सुने नहीं हो-
बड़ जुल्म कइलक अकलवा रे
बंगाल मुलुकवा में ।
चार करोड़ आदमी मरल"
“-- पूछो कालीचरन से, बालदेव भी कहेगा कि बंगाल के अकाल जैसा अकाल कभी पड़ा ?- उम्र ज्यादा होने से क्या हुआ ? जो लोग अखबार नहीं पढ़ते हैं, वे दुनिया की बातों से वाकिफ कैसे हो सकते हैं ? मैं ही पहले से यदि कर-कचहरी, कटिहार-पूर्णिया नहीं जाता तो कूपमण्डूक रहता। कुएँ का बेंग !” देखो, सरकार सभी धानवालो से धान वसूल रही है। क्यों ? सरकार को पूरा डर है कि अकाल फैलेगा । इसलिए अपने हाथ में बर-बखत के लिए पूरी स्टोक रखना जरूरी है। अरे, तुमको तो तीन आदमी की फिक्र करनी पड़ती है तो साल-भर बाप-बाप चिल्लाते हो, कभी इंद्र भगवान से पानी माँगते हो, सूरज भगवान से धूप उगाने के लिए कहते हो, नौकरी करते हो, कर्ज लेते हो ! और जिसको समूचा भारथवरश-हिंदुस्थान की फिक्र करनी पड़ती है, उसकी क्या हालत होती होगी ? अभी तुरत ही तो सभी लीडर जेहल से निकले हैं; तुरत मिनिस्टरी लिया है। यदि अकाल पड़ गया तो सुराज मिलनेवाला है, वह नहीं मिलेगा। यदि मिलेगा भी तो जो उसकी सारी ताकत तो लोगों का खिलाने में ही लग जाएगी। इसलिए हम लोगों को धरती से ज्यादा अन्न उपजाना चाहिए ।- अभी मान लो कि कर-कचहरी, फर-फौजदारी करके तुम खेत पर दफा 44 लगा देते हो, फिर 45 होगा, इससे जमीन में धान तो रोपा नहीं जाएगा ! खेत परती रहेगा और अन्न होगा नहीं । इसके बाद मालिक लोगों से ही यदि धान माँगोगे तो कहाँ से देंगे मालिक लोग ? अपने खर्च के लायक धान मालिकों के पास होगा नहीं और सरकार वसूल करेगी लाठी के हाथ से, कानून से । बड़े मालिकों के बखारों में भी चमगादड़ झूलेंगे।... तो हमारा यही कहना है कि सभी भाई आपस में विचारकर, मिलकर देखो कि किस काम में भलाई है !”
“ अरे ! तो यह पंचायत सिरफ बेजमीनवालों को ही सीख देने के लिए बैठाई गई है !” चुप रहो ! तहसीलदार जो कह रहे हैं, नहीं समझ रहे हो पक्की बात कहते हैं तहसीलदार ।” काबिल आदमी हैं। अरे, आज ही यह कालीचरन और बालदेव आया है न ! पहले तो हम लोगों के आँख-कान यही थे। इन्हीं के यहाँ बैठकर गजट में सुना था कि नेताजी सिंघापूर में पुसुप बिमान पर आ गए हैं। “ तहसीलदार ठीक कहते हैं।
“तहसीलदारबाबू ? माए-बाप,” आप ठीक ही कहते हैं। अब आप ही कोई रास्ता बताइए ।”
"हाँ, हाँ, तहसीलदार काका, आप ही जो कहिए ।”
“टीक है !“ क्या कालीचरन जी ?” तहसीलदार हरगौरी हँसकर पूछता है।
“कालीचरन को “जी" कहते हैं हरगौरी बाबू भी !”
“ठीक है। ठीक है। तहसीलदार साहब ठीक कहते हैं ।”
“- तो भाई, हम तो हिंदुस्थान, भारधवरश की बात नहीं जानते । हम अपने गाँव की बात जानते हैं। आप भला तो जग भला। हम तो इसी में गाँव का कल्याण देखते हैं कि सभी भाई, क्या गरीब कैया अमीर, सब भाई मिलकर एकता से रहें। न कोई जमीन छुड़ावे और न कोई गलत दावा करे । जैसे पहले जोतते-आबादते थे, आबाद करें, बाँट दें। न रसीद माँगें, न नकदी के लिए दर्खास्त दें।- दोनों को समझना होगा... क्यों हरगौरीबाबू ! सुनते हो तो ? अपने मैनेजर से जाकर कह देना कि हुजूर अब भी होश करें । यदि इस तरह रैयतों के साथ दुश्मनी करेंगे, कम-से-कम हमारे यहाँ के रैयतों से, तो फिर बात बिगड़ जाएगी ।” सभी बात तो हमारे ही हाथ में है। हम अभी गवाही देदें, कि हाँ हुजूरआली, यह सब फर्जी काम हमसे करवाया गया है, और कल कागज-पत्तर, चिट्ठी-चपाती, रुक्का-परवाना दिखला दें तो बस खोप सहित कबूतराय नमः...”
"हैं-हैं, हो-हो ।” पंचायत के सभी लोग मुक्त अट्टहास कर बैठते हैं।
“अरे तो, किस खानदान का तहसीलदार है, यह भी तो देखना चाहिए ?” सिंघ जी हँसते हुए कहते हैं।
“महारानी चंपावती” ”
हो-हो-हो-हो हँसी का दूसरा वेग, सैकड़ों सरलहदय इंसानों को गुदगुदी लगाती है ।
“अच्छा ! अच्छा ! अब काम की बात हो । सुनो कालीचरन बेटा ! लीडर बने हो तो बड़ा अच्छा काम है। बाबू-गाँव का नाम तो इसी में है। कोई सोशलिस्ट का लीडर है, तो कोई काँगरेस का, तो कोई काली टोपी का। लेकिन देख लो भैया, हम गाँव के सभी लौंडों के अकेले मालिक हैं। यदि गाँव में इधर-उधर कुछ किए तो पीठ की चमड़ी उधेड़ लें। : खेलावन ! जोतखी जी ! आप ही लोग कहिए, जो लौंडे हमको कहते हैं काका, मामा, भैया, फूफा, उन लड़कों की गलती पर यदि हम कान पकड़कर मल दें या दो कड़ी बात कह दें तो हमको कोई दोख देगा ?”
“नहीं, नहीं। आप वाजिब बात कहते हैं।”
“हम गाँव से बाहर थोड़े ही हैं, लेकिन एक बात हम भी पहले ही कह देते हैं। अभी आप जैसा करने के लिए कहते हैं, हम लोग करें। बाद में फिर हमारी गर्दन पर छुरी चले तब ?” कालीचरन कहता है।
"इसका जिम्मा हम लेते हैं। अरे, हमने कहा न कि सभी खेला मेरे हाथ में है।"
"तो ठीक है। हम गाँव से बाहर थोड़े हैं।"
"ठीक बात ! ठीक बात !"
"लेकिन सभी भाई सुन लीजिए। यदि गाँव के बाहर का कोई बाहरी हम पर हमला करे तो इसका मुकाबला सभी को मिलकर करना होगा। हाँ, यदि बाहरवाले इस गाँव के जमीनवालों पर हमला करें तो सबों को सहायता करनी होगी।...गाँव की जमीन गाँव में रहेगी। बाहरवाले क्यों लेंगे समझे ?"
“हाँ-हाँ, ठीक है। ठीक है। बहुत रात हो गई। आसमान में बादल उमड़ आए हैं। बरसा होगी।...दुहाई इन्द्र महाराज ! बरसो, बरसो !"
हर साल बरसात के मौसम में यही होता है। भगवान के हाथ की बात इंसान क्या जाने ! इन्द्र भगवान से प्रार्थना की जाती है-बरसाओ ! हे इन्द्र महाराज !...जरा भी आसमान के किसी कोने में काले बादलों का जमाव हुआ, बिजली चमकी, कि 'बरसो', 'बरसो' की पुकार घर-घर से सुनाई पड़ती है। जमीनवालों, बेजमीनों, सबों की रोटी का प्रश्न है। और यदि लगातार पाँच दिन तक घनघोर बरसा हुई और खेतों के आल डूबे कि '...जरा एक सप्ताह सबुर करो महाराज !'
इन्द्र महाराज की खुशी ! यदि उनका मिजाज अच्छा रहा तो प्रार्थना पर विचारकर एक सप्ताह सब्र कर गए। मौके से बरसा होती गई, धूप भी उगती रही तो फिर धान रखने की जगह नहीं मिलेगी। 'भूसिन पूछे मूस से कहाँ के रखबऽधान"( घाघ की एक सूक्ति) ....तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद के पास डाक-वचनामृत, भविष्यफल और खान-बचन है। पंजिका से हिसाब निकालकर बता देंगे कि यह पक्ष सूखेगा या झरेगा।...नक्षत्रों की गणना में यदि स्त्री-स्त्री का संयोग हुआ तो शून्य, यदि पुरुष-पुरुष संयोग निकला तो शून्य । एक बूँद भी बरसा नहीं होगी, चिल्लाने से क्या होगा ?...
...ततमाटोला, पासवानटोला, धानुक-कुर्मीटोला तथा कोयरीटोला की औरतें हर साल ऐसे समय में इन्द्र महाराज को रिझाने के लिए, बादल को सरसाने के लिए, 'जाट-जट्टिन' खेलती हैं।
आज भी 'जाट-जट्टिन' का आयोजन है। कल तो पिछयारीटोले की औरतों ने किया था। बादल का एक टुकड़ा थोड़ी देर के लिए आकर चाँद को ढंक गया था। आज पुरनिमाँ है। कल से यदि बरखा नहीं हुई तो सारा पख सूखा रहेगा।...ततमाटोली की औरतों ने बाबूटोला की औरतों को निमन्त्रण दिया है-“एक साथ सब मिलकर जाट-जट्टिन खेलें, जरूर बरखा होगी।"
गुआरटोली और कायस्तटोली के बीच में जो पन्द्रह रस्सी मैदान खाली है, उसी में औरतें जमा हुई हैं।
...जाट के पास हजारों-हजार भैंसे हैं। वह उन्हें चराने के लिए कोशी के किनारे जाता है। जट्टिन घर में रहती है; दूध, घी और दही की बिक्री करती है, हिसाब रखती है।...सास या पति से झगड़कर, रूठकर जट्टिन नैहर चली गई। जाट उसे ढूँढ़ने जा रहा है। जट्टिन बड़ी सुन्दरी थी, उसकी सुन्दरता की चारों ओर चर्चा होती थी।
सुनरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
पातरि बाँस के छौंकिनियाँ हो बाबूजी,
गोरी हमर जटिनियाँ हो बाबूजी,
चाननी रात के इँजोरिया हो बाबूजी !
नान्हीं-नान्हीं तवा, पातर ठोरवा...
छटके जैसन बिजलिया...।
इसलिए जाट को गाँव के हरेक मालिक, नायक या मंडल पर सन्देह ।...जट्टिन नैहर नहीं जा सकेगी, किसी ने जरूर उसे अपने घर में रख लिया होगा।...रास्ते में कितने गाँव हैं, कितनी नदियाँ हैं, कितने घाट हैं और घटवार हैं। वह रास्ते के हर गाँव के मालिक मड़र (मंडल प्रमुख, मालिक), और नायक के यहाँ जाता है :
नायक जी हो नायक हो,
खोले देहो किवड़िया हो नायक जी,
ढूँढ़े देहो जटिनियाँ हो नायक जी...
जट्टिन बनी है रमपियरिया, और जाट बनी है कोयरीटोला की मखनी। मखनी ठीक मर्दों-जैसी लगती है।
'जाट-जट्टिन' अभिनय के साथ और भी सामयिक अभिनय तथा व्यंग नाट्य बीचबीच में होते हैं।...फुलिया बनी है डाक्टर। उसने कमल के फल की डंडी को किस तरह जोड़-जोड़कर डाक्टर के गले में झूलनेवाला आला बनाया है। सनिचरा का नया पैजामा माँग लाई है और बिहुला नाचवालों के यहाँ से साहबी टोपा और कोट माँग लाई है।
“ए मैन ! इदार आता हाए। बोलो क्या होता हाए !"
“हुजूर ! थोड़ा सिर दुखता है, थोड़ा आँख भी दुखता है, थोड़ा कान भी दरद करता है और कलेजा भी धुक-धुक करता है। सर्दी भी होता है, गर्मी भी लगता है। भूख नहीं लगता है और जब भूख लगता है तो खाना नहीं मिलता है।"
...रोगी बनी है धानुकटोले की सुरती ! खूब बात जोड़ती है...हा-हँ-हँ-हँ-हँ !...
"अरे बाप रे बाप ! ऐसा बेमारी तो कभी नाहीं देखा। तुम्मारा नेबज देके ! (देखकर) उँहू ! तुम नेही बचेगा। तुमारा बेमारी को कीड़ा हो गया।...जकसैन लगेगा।"
दूसरी रोगिनी आती है-कुर्मीटोले की तराबत्ती।
“ऐ औरत ! तुमको क्या हुआ ?"
"हमरा दिल दकदक करता है।"
"अरे बाप ! यहाँ तो सबों का दिल धकधक करता हाए। अमारा भी दिल धकधक करने लगा !"
डाक्टर और रोगिनी दोनों डरते हुए एक-दूसरे को बाँहों में पकड़ लेती हैं-दिल धकधक दिल दकदक !
...औरतों की मंडली हँसते-हँसते लोटपोट हो जाती है। बूढ़ियों की खाँसी उभर आती है। हो-हो-हो, खों-खों, अक्खों !...खूब किया !
मर्दो को 'जाट-जट्टिन' देखने का एकदम हक नहीं है। यदि यह मालूम हो गया कि किसी ने छिपकर भी देखा है तो दूसरे ही दिन पंचायत में चली जाएगी बात !... जिसकी मूंछे नहीं उगी हैं, वह देख सकता है।
अन्त में औरतें मिलकर हल जोतती हैं। हल और बैल किसी का ले आती हैं और जोतते समय गाँव के बड़े-बड़े किसानों को गाली देती हैं- "अरे बिस्नाथ तहसीलदरवा ! जल्दी पानी ला रे ! पियास से मर रहे हैं रे !"
"अरे ! सिंघवा सिपहिया रे ! पानी लाओ रे !"
"अरे रमखैलोना रे !...पानी ला रे !"
...इस गाली को कोई बुरा नहीं मानते। बल्कि किसी बड़े किसान का नाम छूट जाए तो उसे तकलीफ होती है।...बहुत दुख होता है।
इस बार डाक्टर को भी गाली दी जाती है-“अरे डकटरवा रे !...अरे परसन्तो रे, जल्दी से बोतल में पानी लेके आ रे !..."
हो-हो-हा-हा...
आसमान में काले बादल घुमड़ रहे हैं।...बिजली भी चमक रही है।