नौ आसामी का चालान कर दिया।
नौ संथालों के अलावा जो लोग घायल होकर इसपिताल में पड़े हैं वे लोग भी गिरिफ्फ हैं। पुरैनियाँ इसपिताल में बन्दूकवाले मलेटरी का पहरा है।
गैर-संथालों में कोई गिरिफ्फ नहीं हुआ।...लेकिन, यह मत समझो कि मुफ्त में यह काम हुआ है।...दारोगा साहब कहने लगे कि खेलावन जी, आपके बारे में एस.पी. साहब को सन्देह हो गया है कि आपने सभी यादवों को हँसेरी में जाने के लिए जरूर हुकुम दिया होगा।...खेलावन जी की हालत खराब हो गई। वह तो तहसीलदार भाई थे, तो पाँच हजार पर बात टूट गई। नहीं तो...नहीं तो अभी बड़े घर की हवा खाते रहते खेलावन जी ! सिंघ जी घर में नहीं थे; शिवशक्करसिंह भी नहीं। अब सिंघ जी लोगों के मन में क्या है सो कौन जाने ?...दरोगा भी तो राजपूत ही है। आदमी के मन का कुछ ठिकाना नहीं, कब क्या करे।...मुफ्त में सबकी गर्दन नहीं छूटी है। पाँच हजार !
तहसीलदार बिस्नाथ को कुछ लगा कि नहीं ?...सुमरितदास बेतार को आज तीन दिनों से पेट में सूल हो गया है, नहीं तो सब बात कह जाता।...अरे ! बहुत दिनों जिएँगे सुमरितदास जी ! बहुत उमेर है !"
"तो हमारा उमेर तुम लोग क्या लगाते हो ?"
“यही चालीस।"
"चालीस नहीं पैंतीस।...जामुन का सिरका बिना पानी के पी गए थे, इसीलिए दाँत सब झड़ गए।"
“अच्छा सुमरितदास जी, कुछ पता है कि...?"
"अरे ! यह मत समझो कि सुमरितदास सूल से घर में पड़ा हुआ था। रामझरोखे बैठके सबका मुजरा लें...। पूछो, क्या जानना चाहते हो ?"
“क्या तहसीलदार साहेब को भी रुपैया लगा है ?"
"तहसीलदार बिस्नाथपरसाद को इतना बेकूफ नहीं समझना। वह दारोगा तो यह तहसीलदार। 'तुम कौआ तो हम कैथ' वाली कहानी नहीं सुने हो ?"
"तहसीलदार हरगौरी बेचारा..."
"अति संघर्ष करे जो कोउ, अनल प्रगट चन्दन ते होहिं ! सियावर रामचन्द्र की जै!"
"लेकिन राजपूतटोले को तो इसपी साहेब भी नहीं छोड़ सकते हैं। जानते हो इसपी साहेब क्या कहते थे ? '...यह समझ में नहीं आता है कि तहसीलदार बिस्नाथपरसाद की जमीन से बीहन बचाने के लिए तहसीलदार हरगौरीसिंह क्यों गए ! जरूर कोई बात है !'...सिंघजी को एक चरन लगेगा।"
"गवाही में किन लोगों के नाम हैं?"
"अरे, गवाही क्या ? बोलो तुम्हीं, ईमान-धरम से कि संथाल लोग ने जोर-जबर्दस्ती किया है या नहीं ?"
“इसमें क्या सन्देह है !"
“तो गवाही के लिए कोई बात नहीं।...लेकिन गाँव की तकदीर चमकी है। इतना बड़ा केस कभी हाथ नहीं लगेगा। इसमें जो गवाही देने जाएगा, उसके तो तीन-तीन खिलानेवाले रहेंगे। तीनों एक ही केस में नत्थी हैं। समझे ? खबरदार ! मेरा नाम नहीं लेना। हाँ !...और मेरा भी तो फैसला नहीं हुआ है। हमको क्या देते हैं लोग ? जितना कागज-पत्तर, लिखा-पढ़ी होगी, सब तो सुमरितदास के मत्थे पड़ेगा। लेकिन इस बार नहीं। पहले फैसला कर लें।"
“संथालों में किस-किसकी गवाही हुई है ?"
“अरे, संथालटोली में गवाह आवेगा कहाँ से, सभी तो आसामी हैं। बड़का माझी का बारह साल का बेटा भी।...दारोगा जी ने जब पूछा कि बताओ क्यों बीचड़ लूट रहे थे, तो बिरसा ने जवाब दिया कि हम लगाया है। इसके बाद, दारोगा जी ने झाड़-झपटके पूछा तो बिरसा के बाद सबों ने तुरन्त कबूल कर लिया कि बीचड़ तहसीलदार बिस्नाथपरसाद का है। औरतों और बच्चों ने भी कहा-तहसीलदार का बीचड़ है। तब ? उखाड़ता था जबर्दस्ती क्यों तुम लोग ? तो जवाब दिया कि जमींदारी परथा खत्तम हो गई, लेकिन हमारे गाँव के जमींदारों ने मिलकर हमारी जमीन छुड़ा ली है। इसीलिए लूट लिया।..."
"हा-हा-हा-हा ! साफ जवाब ! जमीन छुड़ा लिया तो बीहन लूट लिया ! हा-हा-हा ! सच ? काली किरिया ! ऐसा ही जवाब दिया ?"
“नहीं तो तुम समझते हो कि सुमरितदास झूठ कहता है ? अरे, यदि संथालों ने ऐसा बयान नहीं दिया होता तो क्या समझते हो, तुम लोग अभी घर में बैठकर हा-हा ही-ही करते ? अभी जेहलखाना में कोल्हू पेड़ते रहते। समझे ! दारोगा जी ने भी सोचा कि आग लगते झोंपड़ा, जो मिले सो लाभ !...इसीलिए न कहा कि तहसीलदार इतना बेकूफ नहीं। तब, दारोगा जी का इलाका है, जो ऊपरी झाड़-झपड़, पान-सुपाड़ी वसूल सकें। इसमें तहसीलदार साहेब क्या कर सकते हैं ?...सिंघ जी को पाँच हजार और शिवशक्करसिंह को भी उतना ही लगेगा।...डागडर से भी कुछ पूछा है दारोगा साहब ने। पता नहीं, अंग्रेजी में क्या डिमडाम बात हुई। इसपी साहेब से भी डागडर साहेब अंग्रेजी में ही बोल रहे थे। आदमी काबिल है यह डागडर !...हरेक लहास के बारे में क्या लिखा है, जानते हो ? लिखा है कि संथालों की मार से मालूम होता है और घाव के मुँह देखकर मालूम होता है कि किसी ने अपनी जान बचाने के लिए ही इस पर हमला किया है।...और, इधरवालों के लहास को लिखा...।"
"...लहास ?"
....लहास ! लाश ! पुलिस-दारोगा, मलेटरी ! मार ! जेहल !...कालापानी ! नहीं, फाँसी !...सचमुच ! यदि तहसीलदार बिस्नाथपरसाद नहीं होते तो आज फाँसी !... कालीचरन के आफिस में जाने से और बातों का पता लग जाएगा।
सोशलिस्ट पार्टी के आफिस में भीड़ लगी हुई है। कालीचरन ने कहा है, आज सुरा जी, सोशलिस्ट और भगवान कीर्तन एक साथ गाए जाएंगे। सबसे पहले पुराने जमाने का कीर्तन नारदी-भठियाली कीर्तन होगा। बूढ़े लोगों के गले में अब भी जादू है !
आजु से बिराजु श्याम कदली के छैयाँ,
आवत मोहनलाल बंशी बजैयाँ !
पीतबसन मकराकृत कुंडल...!
यही नारदी है ! मृदंग कैसा बजता है-धिधनक-तिधनक ! धिधनक-तिधनक !
"अब किरांती कीर्तन। '...गंगा रे जमुनवाँ' बहुत पुराना हो गया। वह रुलानेवाला कीर्तन मत गवाइए कालीचरन जी !..."
बम फोड़ दिया फटाक से मस्ताना भगतसिंह !
....है ! वाह रे सुनरा ! क्या सँभाला है ! वाह ! भारत का वीर लड़ाका था, मस्ताना भगतसिंघ ! “सिंघ ? भगतसिंघ कौन बता कौन जात था ?
मस्ताना भगतसिंघ जानते हो ? “कालीचरन जी कहते थे, पाँच बार फाँसी की रस्सी खींचा । दस-दस आदमी एक-एक ओर लटक गए। खींचने लगे, खींचते रहे और उधर भगतसिंघ के मुँह से निकलता जाता था-इनकिलाब, जिंदाबाघ ।
“इनकिलाब, जिंदाबाद ?”
हाँ, आज, कौन इतने जोरों से नारा लगा रहा है ? सोमा जट ? “अरे बाप ! तीन दिन से एकदम लापता था ! एकदम लापता ! लेकिन जानते हो, हँसेरी में सबसे ज्यादा मार किसने किया था ? चार को सोमा ने अकेले गिराया है।-हाँ खबरदार ! तहसीलदार साहेब ने मना किया है, सोमा का नाम कोई नहीं ले | दागी है ! लेकिन, देखते हैं, इधर सुधर रहा है। कालीचरन जी सुधार देंगे।
अब एक सुराजी कीर्तन होना चाहिए। हाँ, भाई ! सब संतन की जै बोलो | गाँव के देवताओं के परताप से, काली माय की कृपा से, महात्मा जी की दया से और किरांती 'इनकिलास जिंदाबाघ' से, गाँव के लोग बालबाल बच गए। सभी कीर्तन होना चाहिए।
भारत का डंका लंका में
बजवाया बीर जगाहिर ने
राजबलली महतो भी हरमुनिया बजाता है। कहाँ सीखा ? “सिरिफ दाँत बड़े हैं सामनेवाले । गाने के समय मुँह कुदाली की तरह हो जाता है। “ भारथ का डंका लंका में-
“बालदेव जी कहाँ हैं ? सुना कि बालदेव जी साधु हो रहे हैं। कंठी ले ली है। कंठी पर किसका नाम जपा करेंगे ? महतमा जी का या सतगुरु का ?
चर्खा स्कूल की मास्टरनी जी कितना मुटा गई हैं ! अरे बाप रे ! ...सिर्रिफि कालीचरन जी से ही हँसकर बोलती हैं। कालीचरन जी आज कुर्ता में गोल-गोल क्या लगाए हुए हैं ? सुसलिट पाटी का मोहर है ? ...देखा, कालीचरन जी मोहरवाले लीडर हो गए हैं। बालदेव जी को, बावनदास को या तहसीलदार साहब को मोहर है ? मास्टरनी जी उसमें क्या लगा रही हैं ? फूल ? वाह ! अब और बना ! फूलमोहर छाप सिकरेट ! ...डाकडर साहब का नौकर कहाँ आया है ! ..ऐ ! चुप रहो ! चुप रहो ! शांती, शांती !”
“कालीचरन जी को डाक्टरबाबू बुलाते हैं,” प्यारू मंगलादेवी से कहता है। अज्जा ! काली ! डाक्टरबाबू को निमंत्रण नहीं दिया ? तहसीलदार साहेब, खेलावन जी वगैरह तो कचहरी गए हैं। डाक्टर साहेब तो थे। “जाओ, बुला रहे हैं -
क्या बात है ?- जरूर कोई बात है। -सुमरितदास बेतार कहाँ है ?
एक बार बोलिए प्रेम से-
काली माई की जै !
महात्मा गाँधी की जै
सोसलिट पाटी की जै
इनकिलास
“कालीचरन जी !”
“जी !!
“एक बात कहूँ ! बुरा मत मानिएगा। “हरगौरी बाबू की माँ रो रही है और दूसरे टोले में भी औरतें रो रही हैं। आप लोग कीर्तन कर रहे हैं, यह अच्छा नहीं लग रहा है। मुझे लगता है कि आज के कीर्तन से आपके भगवान भी दुखी होंगे ।”
“हम लोग भगवान को नहीं मानते,” कामरेड बासुदेव ने बीच में ही टोक दिया ।
“तुम चुप रहो !” कालीचरन कहता है, “हर जगह मत टपका करो |”
सब चुप हैं। हरगौरी की माँ अब भी रो रही है-राजा बेटा रे ! गौरी बेटा रे!
कालीचरन की आँखें भी सजल हो जाती हैं। बचपन से ही वह हरगौरी के साथ खेला-कूदा था। पूँजीवादी हो या बूर्जुआ, आखिर वह बचपन का साथी था। वह आज नहीं है। उसकी माँ रो रही है। यह हरगौरी की माँ नहीं रो रही है-सिर्फ माँ रो रही है !
“वासुदेव !”
“सबों से जाकर कहो-कीर्तन बंद करें । और कोठी के बगीचे में कल सोक-सभा होगी। ऐलान कर दो। समझे !”
बासुदेव सोचता है, सब बात तो समझे, मगर सोक-सभा का क्या मतलब ? उसमें गीत नहीं गावेगा, भाखन नहीं होगा ? बस, पाँच मिनट चुपचाप खड़ा रहना होगा ? वाह रे सभा !