स्थान : मधुबन गांव।
समय : गागुन का अंत, तीसरा पहर, गांव के लोग बैठे बातें कर रहे हैं।
एक किसान : बेगार तो सब बंद हो गई थी। अब यह दहलाई की बेगार क्यों मांगी जाती है ?
फत्तू : जमींदार की मर्जी। उसी ने अपने हुक्म से बेगार बंद की थी। वही अपने हुक्म से जारी करता है।
हलधर : यह किस बात पर चिढ़ गए ? अभी तो चार-ही-पांच दिन होते हैं, तमाशा दिखाकर कर गए हैं। हम लोगों ने उनके सेवा-सत्कार में तो कोई बात उठा नहीं रखी।
फत्तू : भाई, राजा ठाकुर हैं, उनका मिजाज बदलता रहता है। आज किसी पर खुश हो गए तो उसे निहाल कर दिया, कल नाखुश हो गए तो हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया । मन की बात है।
हलधर : अकारन ही थोड़े किसी का मिजाज बदलता है। वह तो कहते थे, अब तुम लोग हाकिम-हुक्काम किसी को भी बेगार मत देना। जो कुछ होगा मैं देख लूंगा। कहां आज यह हुकुम निकाल दिया । जरूर कोई बात मर्जी के खिलाफ हुई है।
फत्तू : हुई होगी। कौन जाने घर ही में किसी ने कहा हो, असामी अब सेर हो गए, तुम्हें बात भी न पूछेंगे।इन्होंने कहा हो कि सेर कैसे हो जाएंगे, देखो अभी बेगार लेकर दिखा देते हैं। या कौन जाने कोई काम-काज आ पड़ा हो, अरहर भरी रखी हो, दलवा कर बेच देना चाहते हों।
कई आदमी : हां, ऐसी ही कोई बात होगी। जो हुकुम देंगे वह बजाना ही पड़ेगा, नहीं तो रहेंगे कहां!
एक किसान : और जो बेगार न दें तो क्या करें ?
फत्तू : करने की एक ही कही। नाक में दम कर दें, रहना मुसकिल हो जाए। अरे और कुछ न करें लगान की रसीद ही न दें तो उनका क्या बना लोगे ? कहां फरियाद ले जाओगे और कौन सुनेगा ? कचहरी कहां तक दौड़ोगे ? फिर वहां भी उनके सामने तुम्हारी कौन सुनेगा !
कई आदमी : आजकल मरने की छुट्टी ही नहीं है, कचहरी कौन दौड़ेगा ? खेती तैयार खड़ी है, इधर ऊख बोना है, फिर अनाज मांड़ना पड़ेगा। कचहरी के धक्के खाने से तो यही अच्छा है कि जमींदार जो कहे, वही बजाएं।
फत्तू : घर पीछे एक औरत जानी चाहिए । बुढ़ियों को छांटकर भेजा जाए।
हलधर : सबके घर बुढ़िया कहां ?
फत्तू : तो बहू-बेटियों को भेजने की सलाह मैं न दूंगा।
हलधर : वहां इसका कौन खटका है ?
फत्तू : तुम क्या जानो, सिपाही हैं, चपरासी हैं, क्या वहां सब-के-सब देवता ही बैठे हैं। पहले की बात दूसरी थी।
एक किसान : हां, यह बात ठीक है। मैं तो अम्मां को भेज दूंगा।
हलधर : मैं कहां से अम्मां लाऊँ ?
फत्तू : गांव में जितने घर हैं क्या उतनी बुढ़िया न होंगी। गिनो एक-दो-तीन, राजा की मां चार, उस टोले में पांच, पच्छिम ओर सात, मेरी तरफ नौ: कुल पच्चीस बुढ़ियां हैं।
हलधर : घर कितने होंगे ?
फत्तू : घर तो अबकी मरदुमसुमारी में तीस थे।कह दिया जाएगा, पांच घरों में कोई औरत ही नहीं है, हुकुम हो तो मर्द ही हाजिर हों।
हलधर : मेरी ओर से कौन बुढ़िया जाएगी ?
फत्तू : सलोनी काकी को भेज दो। लो वह आप ही आ गई।
सलोनी आती है।
फत्तू : अरे सलोनी काकी, तुझे जमींदार की दलहाई में जाना पड़ेगा।
सलोनी : जाय नौज, जमींदार के मुंह में लूका लगे, मैं उसका क्या चाहती हूँ कि बेगार लेगी। एक धुर जमीन भी तो नहीं है। और बेगार तो उसने बंद कर दी थी ?
फत्तू : जाना पड़ेगा, उसके गांव में रहती हो कि नहीं ?
सलोनी : गांव उसके पुरखों का नहीं है, हां नहीं तो। फतुआ, मुझे चिढ़ा मत, नहीं कुछ कह बैठूंगी।
फत्तू : जैसे गा-गाकर चक्की पीसती हो उसी तरह गा-गाकर दाल दलना। बता कौन गीत गाओगी ?
सलोनी : डाढ़ीजार, मुझे चिढ़ा मत, नहीं तो गाली दे दूंगी। मेरी गोद का खेला लौंडा मुझे चिढ़ाता है।
फत्तू : कुछ तू ही थोड़े जाएगी। गांव की सभी बुढ़ियां जाएंगी।
सलोनी : गंगा-असनान है क्या ? पहले तो बुढ़ियां छांटकर न जाती थीं।मैं उमिर-भर कभी नहीं गई। अब क्या बहुओं को पर्दा लगा है। गहने गढ़ा-गढ़ा कर तो वह पहनें, बेगार करने बुढ़ियां जाएं।
फत्तू : अबकी कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी है। हलधर के घर कोई बुढ़िया नहीं है। उसकी घरवाली कल की बहुरिया है, जा नहीं सकती। उसकी ओर से चली जा।
सलोनी : हां, उसकी जगह पर चली जाऊँगी। बेचारी मेरी बड़ी सेवा करती है। जब जाती हूँ तो बिना सिर में तेल डाले और हाथ-पैर दबाए नहीं आने देती। लेकिन बहली जुता देगा न ?
फत्तू : बेगार करने रथ पर बैठकर जाएगी।
हलधर : नहीं काकी, मैं बहली जुता दूंगा। सबसे अच्छी बहली में तुम बैठना।
सलोनी : बेटा, तेरी बड़ी उम्मिर हो, जुग-जुग जी। बहली में ढोल-मजीरा रख देना। गाती बजाती जाऊँगी।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D