स्थान: गंगा के करार पर एक बड़ा पुराना मकान।
समय: बारह बजे रात, हलधर और उसके साथी डाकू बैठे हुए हैं।
हलधर : अब समय आ गया, मुझे चलना चाहिए ।
एक डाकू रंगी : हम लोग भी तैयार हो जाएं न ? शिकारी आदमी है, कहीं पिस्तौल चला बैठे तो ?
हलधर : देखी जाएगी। मैं जाऊँगा अकेले।
कंचन का प्रवेश।
हलधर : अरे, आप अभी तक सोए नहीं ?
कंचन : तुम लोग भैया को मारने पर तैयार हो, मुझे नींद कैसे आए ?
हलधर : मुझे आपकी बातें सुनकर अचरज होता है। आप ऐसे पापी आदमी की रक्षा करना चाहते हैं जो अपने भाई की जान लेने पर तुल जाए।
कंचन : तुम नहीं जानते, वह मेरे भाई नहीं, मेरे पिता के तुल्य हैं। उन्होंने भी सदैव मुझे अपना पुत्र समझा है। उन्होंने मेरे प्रति जो कुछ किया, उचित किया। उसके सिवा मेरे विश्वासघात का और कोई दंड न था। उन्होंने वही किया जो मैं आप करने जाता था।अपराध सब मेरा है। तुमने मुझ पर दया की है। इतनी दया और करो। इसके बदले में तुम जो कुछ कहो करने को तैयार हूँ। मैं अपनी सारी कमाई जो बीस हजार से कम नहीं है, तुम्हें भेंट कर दूंगा। मैंने यह रूपये एक धर्मशाला और देवालय बनवाने के लिए संचित कर रखे थे।पर भैया के प्राणों का मूल्य धर्मशाला और देवालय से कहीं अधिक है।
हलधर : ठाकुर साहब,ऐसा कभी न होगी। मैंने धन के लोभ से यह भेष नहीं लिया है। मैं अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। मेरा मर्याद इतना सस्ता नहीं है।
कंचन : मेरे यहां जितनी दस्तावेजें हैं वह सब तुम्हें दे दूंगा।
हलधर : आप व्यर्थ ही मुझे लोभ दिखा रहे हैं। मेरी इज्जत बिगड़ गई। मेरे कुल में दाग लग गया। बाप-दादों के मुंह में कालिख पुत गई। इज्जत का बदला जान है, धन नहीं जब तक सबलसिंह की लाश को अपनी आंखों से तड़पते न देखूंगा, मेरे ह्रदय की ज्वाला शांत न होगी।
कंचन : तो फिर सबेरे तक मुझे भी जीता न पाओगी।
प्रस्थान।
हलधर : भाई पर जान देते हैं।
रंगी : तुम भी तो हक-नाहक की जिद कर रहे हो, बीस हजार नकद मिल रहा है। दस्तावेज भी इतने की ही होगी। इतना धन तो ऐसा ही भाग जागे तो हाथ लग सकता है। आधा तुम ले लो। आधा हम लोगों को दे दो। बीस हजार में तो ऐसी-ऐसी बीस औरतें मिल जाएंगी।
हलधर : कैसी बेगैरतों की-सी बात करते हो ! स्त्री चाहे सुंदर हो, चाहे कुरूप, कुल-मरजाद की देवी है। मरजाद रूपयों पर नहीं बिकती।
रंगी : ऐसा ही है तो उसी को क्यों नहीं मार डालते। न रहे बांस न बजे बंसुरी।
हलधर : उसे क्यों मारूं ? स्त्री पर हाथ उठाने में क्या जवांमरदी है ?
रंगी : तो क्या उसे फिर रखोगे ?
हलधर : मुझे क्या तुमने ऐसा बेगैरत समझ लिया है। घर में रखने की बात ही क्या, अब उसका मुंह भी नहीं देख सकता। वह कुलटा है, हरजाई है। मैंने पता लगा लिया है। वह अपने-आप घर से निकल खड़ी हुई है। मैंने कब का उसे दिल से निकाल दिया । अब उसकी याद भी नहीं करता। उसकी याद आते ही शरीर में ज्वाला उठने लगती है। अगर उसे मारकर कलेजा ठंडा हो सकता तो इतने दिनों चिंता और क्रोध की आग में जलता ही क्यों ?
रंगी : मैं तो रूपयों का इतना बड़ा ढेर कभी हाथ से न जाने देता। मान-मर्यादा सब ढकोसला है। दुनिया में ऐसी बातें आए दिन होती रहती हैं। लोग औरत को घर से निकाल देते हैं। बस।
हलधर : क्या कायरों की-सी बातें करते हो, रामचन्द्र ने सीताजी के लिए लंका का राज विध्वंस कर दिया । द्रोपदी की मानहानि करने के लिए पांडवों ने कौरवों को निरबंस कर दिया । जिस आदमी के दिल में इतना अपमान होने पर भी क्रोध न आए, मरने-मारने पर तैयार न हो जाए, उसका खून न खौलने लगे, वह मर्द नहीं हिजड़ा है। हमारी इतनी दुर्गत क्यों हो रही है ? जिसे देखो वही हमें चार गालियां सुनाता है, ठोकर मारता है। क्या अहलकार, क्या जमींदार सभी कुत्तों से नीच समझते हैं। इसका कारण यही है कि हम बेहया हो गए हैं। अपनी चमड़ी को प्यार करने लगे हैं। हममें भी गैरत होती, अपने मान?अपमान का विचार होता तो मजाल थी कि कोई हमें तिरछी आंखों से देख सकता। दूसरे देशों में सुनते हैं गालियों पर लोग मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। वहां कोई किसी को गाली नहीं दे सकता। किसी देवता का अपमान कर दो तो जान न बचेब यहां तक कि कोई किसी को ला-सखुन नहीं कह सकता, नहीं तो, खून की नदी बहने लगे। यहां क्या है, लात खाते हैं, जूते खाते हैं, घिनौनी गालियां सुनते हैं, धर्म का नाश अपनी आंखों से देखते हैं, पर कानों पर जूं नहीं रेंगती, खून जरा भी गर्म नहीं होता। चमड़ी के पीछे सब तरह की दुर्गत सहते हैं। जान इतनी प्यारी हो गई है। मैं ऐसे जीने से मौत को हजार दर्जे अच्छा समझता हूँ। बस यही समझ लो कि जो आदमी प्रान को जितना ही प्यारा समझता है वह उतना ही नीच है। जो औरत हमारे घर में रहती थी, हमसे हंसती थी, हमसे बोलती थी, हमारे खाट पर सोती थी वह अब भी(क्रोध से उन्मत्त होकर) तुम लोग मेरे लौटने तक यहीं रहो, कंचनसिंह को देखते रहना।
चला जाता है।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D