स्थान : सबलसिंह का घर। सबलसिंह बगीचे में हौज के किनारे मसहरी के अंदर लेटे हुए हैं।
समय : ग्यारह बजे रात।
सबल : (आप-ही-आप) आज मुझे उसके बर्ताव में कुछ रूखाई-सी मालूम होती थी। मेरा बहम नहीं है, मैंने बहुत विचार से देखा । मैं घंटे भर तक बैठा चलने के लिए जोर देता रहा, पर उसने एक बार नहीं करके फिर हां न की। मेरी तरफ एक बार भी उन प्रेम की चितवनों से नहीं देखा जो मुझे मस्त कर देती हैं। कुछ गुमसुम-सी बैठी रही। कितना कहा कि तुम्हारे न चलने से घोर अनर्थ होगी। यात्रा की सब तैयारियां कर चुका हूँ, लोग मन में क्या कहेंगे कि पहाड़ों की सैर का इतना चाव था, और इतनी जल्द ठण्डा हो गया? लेकिन मेरी सारी अनुनय-विनय एक तरफ और उसकी नहीं एक तरफ। इसका कारण क्या है? किसी ने बहका तो नहीं दिया । हां, एक बात याद आई। उसके इस कथन का क्या आशय हो सकता है कि हम चाहे जहां जाएं, टोहियों से बच न सकेंगे। क्या यहां टोहिये आ गए ? इसमें कंचन की कुछ कारस्तानी मालूम होती है। टोहियेपन की आदत उन्हीं में है। उनका उस दिन उचक्कों की भांति इधर-उधर, उपर-नीचे ताकते जाना निरर्थक नहीं था।इन्होंने कल मुझे रोकने की कितनी चेष्टा की थी। ज्ञानी की निगाह भी कुछ बदली हुई देखता हूँ। यह सारी आग कंचन की लगाई हुई है । तो क्या कंचन वहां गया था। ? राजेश्वरी के सम्मुख जाने की इसे क्योंकर हिम्मत हुई किसी महफिल में तो आज तक गया नहीं बचपन ही से औरतों को देखकर झेंपता है। वहां कैसे गया ? जाने क्योंकर पाया। मैंने तो राजेश्वरी से सख्त ताकीद कर दी थी कि कोई भी यहां न आने पाए। उसने मेरी ताकीद की कुछ परवाह न की। दोनों नौकरानियां भी मिल गई।यहां तक कि राजेश्वरी ने इनके जाने की कुछ चर्चा ही नहीं की। मुझसे बात छिपाई, पेट में रखा। ईश्वर, मुझे यह किन पापों का दण्ड मिल रहा है ? अगर कंचन मेरे रास्ते में पड़ते हैं तो पड़ें, परिणाम बुरा होगी। अत्यंत भीषण। मैं जितना ही नर्म हूँ उतना ही कठोर भी हो सकता हूँ। मैं आज से ताक में हूँ। अगर निश्चय हो गया कि इसमें कंचन का कुछ हाथ है तो मैं उसके खून का प्यासा हो जाऊँगा। मैंने कभी उसे कड़ी निगाह से नहीं देखा । पर उसकी इतनी जुर्रत ! अभी यह खून बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ है, उस जोश का कुछ हिस्सा बाकी है, जो कटे हुए सिरों और तड़पती हुई लाशों का दृश्य देखकर मतवाला हो जाता था।इन बाहों में अभी दम है, यह अब भी तलवार और भाले का वार कर सकती हैं। मैं अबोध बालक नहीं हूँ कि मुझे बुरे रास्ते से बचाया जाए, मेरी रक्षा की जाए। मैं अपना मुखतार हूँ जो चाहूँ करूं। किसी को चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो, मेरी भलाई और हित?कामना का ढोंग रचने की जरूरत नहीं अगर बात यहीं तक है तो गनीमत है, लेकिन इसके आगे बढ़ गई है तो फिर इस कुल की खैरियत नहीं इसका सर्वनाश हो जाएगा और मेरे ही हाथों। कंचन को एक बार सचेत कर देना चाहिए ।
ज्ञानी आती है।
ज्ञानी : क्या अभी तक सोए नहीं ? बारह तो बज गए होंगे।
सबल : नींद को बुला रहा हूं, पर उसका स्वभाव तुम्हारे जैसा है। आप-ही-आप आती है, पर बुलाने से मान करने लगती है। तुम्हें नींद क्यों नहीं आई ?
ज्ञानी : चिंता का नींद से बिगाड़ है।
सबल : किस बात की चिंता है ?
ज्ञानी : एक बात है कि कहूँ। चारों तरफ चिंताएं ही चिंताएं हैं। इस वक्त तुम्हारी यात्रा की चिंता है। तबीयत अच्छी नहीं, अकेले जाने को कहते हो, परदेश वाली बात है, न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। इससे तो यही अच्छा था। कि यहीं इलाज करवाते।
सबल : (मन-ही-मन) क्यों न इसे खुश कर दूं जब जरा-सी बात फेर देने से काम निकल सकता है। (प्रकट) इस जरा-सी बात के लिए इतनी चिंता करने की क्या जरूरत ?
ज्ञानी : तुम्हारे लिए जरा-सी हो, पर मुझे तो असूझ मालूम होता है।
सबल : अच्छा तो लो, न जाऊँगी।
ज्ञानी : मेरी कसम ?
सबल : सत्य कहता हूँ। जब इससे तुम्हें इतना कष्ट हो रहा है तो न जाऊँगी।
ज्ञानी : मैं इस अनुग्रह को कभी न भूलूंगी। आपने मुझे उबार लिया, नहीं तो न जाने मेरी क्या दशा होती। अब मुझे कुछ दंड भी दीजिए। मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है और उसका कठिन दंड चाहती हूँ।
सबल : मुझे तुमसे इसकी शंका ही नहीं हो सकती।
ज्ञानी : पर यह अपराध इतना बड़ा है कि आप उसे क्षमा नहीं कर सकते।
सबल : (कौतूहल से) क्या बात है, सुनूं ?
ज्ञानी : मैं कल आपके मना करने पर भी स्वामी चेतनदास के दर्शनों को चली गई थी।
सबल : अकेले ?
ज्ञानी : गुलाबी साथ थी।
सबल : (मन में) क्या करे बेचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरह इससे मिलना ही छोड़ दिया । बैठे-बैठे जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्व की वस्तु है। जब नौकर-चाकर जब चाहते हैं उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकता, तो इस पर क्यों गर्म पड़ू।ब मैं खुली आंखों धर्म और नीति को भंग कर रहा हूँ, ईश्वरीय आज्ञा से मुंह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा-सी बात के लिए सख्ती करूं। (प्रकट) यह कोई अपराध नहीं, और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भंग ही न की जायब अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ।
ज्ञानी : स्वामी, आपके बर्ताव में आजकल क्यों इतना अंतर हो गया है? आपने क्यों मुझे बंधनों से मुक्त कर दिया है, मुझ पर पहले की भांति शासन क्यों नहीं करते ? नाराज क्यों नहीं होते, कटु शब्द क्यों नहीं कहते, पहले की भांति रूठते क्यों नहीं, डांटते क्यों नहीं ? आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध मन में भांति-भांति की शंका उठने लगती है कि यह प्रेम-बंधन का ढीलापन न हो,
सबल : नहीं प्रिये, यह बात नहीं है। देश-देशांतर के पत्र-पत्रिकाओं को देखता हूँ तो वहां की स्त्रियों की स्वाधीनता के सामने यहां का कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियां कौन्सिलों में जा सकती हैं, वकालत कर सकती हैं, यहां तक कि भारत में भी स्त्रियों को अन्याय के बंधन से मुक्त किया जा रहा है, तो क्या मैं ही सबसे गया-बीता हूँ कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊँ।
ज्ञानी : मुझे तो उस राजनैतिक स्वाधीनता के सामने प्रेम-बंधन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती।
सबल : (मन में) भगवन्, इस अपार प्रेम का मैंने कितना घोर अपमान किया है ? इस सरल ह्रदया के साथ मैंने कितनी अनीति की है? आंखों में आंसू क्यों भरे आते हैं ? मुझ जैसा कुटिल मनुष्य इस देवी के योग्य नहीं था।(प्रकट) प्रिये, तुम मेरी ओर से लेश-मात्र भी शंका न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूँगा। इस समय गाना सुनने का जी चाहता है । वही अपना प्यारा गीत गाकर मुझे सुना दो।
ज्ञानी सरोद लाकर सबलसिंह को दे देती है। गाने लगती है।
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई।
माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई,
संतन संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई। अब तो..
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D