स्थान : शहर की एक गली।
समय : तीन बजे रात, इंस्पेक्टर और थानेदार की चेतनदास से
मुठभेड़।
इंस्पेक्टर : महाराज, खूब मिले। मैं तो आपके ही दौलतखाने की तरफ जा रहा था।लाइए दूध के धुले हुए पूरे एक हजार, कमी की गुंजाइश नहीं, बेशी की हद नहीं।
थानेदार : आपने जमानत न कर ली होती तो उधर भी हजार-पांच सौ पर हाथ साफ करता।
चेतनदास : इस वक्त मैं दूसरी फिक्र में हूँ। फिर कभी आना।
इंस्पेक्टर : जनाब, हम आपके गुलाम नहीं हैं जो बार-बार सलाम करने को हाजिर हों। आपने आज का वादा किया था। वादा पूरा कीजिए। कील व काल की जरूरत नहीं ।
चेतनदास : कह दिया, मैं इस समय दूसरी चिंता में हूँ। फिर इस संबंध में बातें होंगी।
इंस्पेक्टर : आपका क्या एतबार, इसी वक्त की गाड़ी से हरिद्वार की राह लें। पुलिस के मुआमले नकद होते हैं।
एक सिपाही : लाओ नगद-नारायन निकालो। पुलिस से ऊ फेरफार न चल पइहैं। तुमरे ऐसे साधुन का इहां रोज चराइत हैं।
इंस्पेक्टर : आप हैं किस गुमान में ! यह चालें अपने भोले-भाले चेले-चापड़ों के लिए रहने दीजिए, जिन्हें आप नजात देते हैं। हमारी नजात के लिए आपके रूपये काफी हैं। उससे हम फरिश्तों को भी राह पर लगा हुई। दारोगाजी, वह शेर आपको याद है
दारोगा : जी हां, ऐ तू खुदा नई, बलेकिन बखुदा हाशा रब्बी व गाफिल हो जाती।
इंस्पेक्टर : मतलब यह है कि रूपया खुदा नहीं है लेकिन खुदा के दो सबसे बड़े औसाफ उसमें मौजूद हैं। परवरिश करना और इंसान की जरूरतों को रफा करना।
चेतनदास : कल किसी वक्त आइए।
इंस्पेक्टर : (रास्ते में खड़े होकर) कल आने वाले पर लानत है। एक भले आदमी की इज्जत खाक में मिलवाकर अब आप यों झांसा देना चाहते हैं। कहीं साहब बहादुर ताड़ जाते तो नौकरी के लाले पड़ जाते।
चेतनदास : रास्ते से हटोब (आगे बढ़ना चाहता है।)
इंस्पेक्टर : (हाथ पकड़कर) इधर आइए, इस सीनाजोरी से काम न चलेगा!
चेतनदास हाथ झटककर छुड़ा लेता है और इंस्पेक्टर को जोर से धक्का मार कर गिरा देता है।
दारोगा : गिरफ्तारी कर लो।रहजन है।
चेतनदास : अगर कोई मेरे निकट आया तो गर्दन उड़ा दूंगा। दारोगा पिस्तौल उठाता है, लेकिन पिस्तौल नहीं चलती, चेतनदास उसके हाथ से पिस्तौल छीनकर उसकी छाती पर निशाना लगाता है।
दारोगा : स्वामीजी, खुदा के वास्ते रहम कीजिए। ताजीस्त आपका गुलाम रहूँगा।
चेतनदास : मुझे तुझ-जैसे दुष्टों की गुलामी की जरूरत नहीं (दोनों सिपाही भाग जाते हैं। थानेदार चेतनदास के पैरों पर फिर पड़ता है।) बोल, कितने रूपये लेगा ?
थानेदार : महाराज, मेरी जां बख्श दीजिए। जिंदा रहूँगा तो आपके एकबाल से बहुत रूपये मिलेंगे !
चेतनदास : अभी गरीबों को सताने की इच्छा बनी हुई है। तुझे मार क्यों न डालूं। कम-से-कम एक अत्याचारी का भार तो पृथ्वी पर कम हो जाये।
थानेदार : नहीं महाराज, खुदा के लिए रहम कीजिए। बाल-बच्चे दाने बगैर मर जाएंगी। अब कभी किसी को न सताऊँगा। अगर एक कौड़ी भी रिश्वत लूं तो मेरे अस्ल में गर्क समझिए। कभी हराम के माल के करी। न जाऊँगी।
चेतनदास : अच्छा, तुम इस इंस्पेक्टर के सिर पर पचास जूते गिनकर लगाओ तो छोड़ दूं।
थानेदार : महाराज, वह मेरे अफसर हैं। मैं उनकी शान में ऐसी बे-अदबी क्यों कर सकता हूँ। रिपोर्ट कर दें तो बर्खास्त हो जाऊँ।
चेतनदास : तो फिर आंखें बंद कर लो और खुदा को याद करो, घोड़ा गिरता है।
थानेदार : हुजूर जरा ठहर जायें, हुक्म की तामील करता हूँ। कितने जूते लगाऊँ ?
चेतनदास : पचास से कम न ज्यादाब
थानेदार : इतने जूते पड़ेंगे तो चांद खुल जाएगी। नाल लगी हुई है।
चेतनदास : कोई परवाह नहीं उतार लो जूते।
थानेदार जूते पैर से निकालकर इंस्पेक्टर के सिर पर लगाता है, इंस्पेक्टर चौंककर उठ बैठता है, दूसरा जूता फिर पड़ता है।
इंस्पेक्टर : शैतान कहीं का।
थानेदार : मैं क्या करूं ? बैठ जाइए, पचास लगा लूं। इतनी इनायत कीजिए ! जान तो बचे।
इंस्पेक्टर उठकर थानेदार से हाथा।पाई करने लगता है, दोनों एक दूसरे को गालियां देते हैं, दांत काटते हैं।
चेतनदास : जो जीतेगा उसे इनाम दूंगा। मेरी कुटी पर आना । खूब लड़ो, देखें कौन बाजी ले जाता है। (प्रस्थान।)
इंस्पेक्टर : तुम्हारी इतनी मजाल ! बर्खास्त न करा दिया तो कहना।
थानेदार : क्या करता, सीने पर पिस्तौल का निशाना लगाए तो खड़ा था।
इंस्पेक्टर : यहां कोई सिपाही तो नहीं है ?
थानेदार : वह दोनों तो पहले ही भाग गए।
इंस्पेक्टर : अच्छा, खैरियत चाहो तो चुपके से बैठ जाओ और मुझे गिन कर सौ जूते लगाने दो, वरना कहे देता हूँ कि सुबह को तुम थाने में न रहोगी। पगड़ी उतार लो।
थानेदार : मैंने तो आपकी पगड़ी नहीं उतारी थी।
इंस्पेक्टर : उस बदमाश साधु को यह सूझी ही नहीं।
थानेदार : आप तो दूसरे ही हाथ पर उठ खड़े हुए थे !
इंस्पेक्टर : खबरदार, जो यह कलमा फिर मुंह से निकला। दो के दस तो तुम्हें जरूर लगाऊँगा। बाकी फी पापोश एक रूपये के हिसाब से माफकर सकता हूँ।
दोनों सिपाही आ जाते हैं, दारोगा सिर पर साफा रख लेता है, इंस्पेक्टर क्रोधपूर्ण नेत्रों से उसे देखता है और सब गश्त पर निकल जाते हैं।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D