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पाँचवाँ दृश्य

11 फरवरी 2022

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स्थान : सबलसिंह का दीवानखाना, खस की टक्रियां लगी हुई, पंखा चल रहा है। सबल शीतलपाटी पर लेटे हुए डेमोक्रेसी नामक ग्रंथ पढ़ रहे हैं, द्वार पर एक दरबान बैठा झपकियां ले रहा है।
समय : दोपहर, मध्यान्ह की प्रचंड धूप।
सबल : हम अभी जनसत्तात्मक राज्य के योग्य नहीं हैं, कदापि नहीं हैं। ऐसे राज्य के लिए सर्वसाधारण में शिक्षा की प्रचुर मात्रा होनी चाहिए । हम अभी उस आदर्श से कोसों दूर हैं। इसके लिए महान स्वार्थ-त्याग की आवश्यकता है। जब तक प्रजा-मात्र स्वार्थ को राष्ट' पर बलिदान करना नहीं सीखती, इसका स्वप्न देखना मन की मिठाई खाना है। अमरीका, प्रांस, दक्षिणी अमरीका आदि देशों ने बड़े समारोह से इसकी व्यवस्था की, पर उनमें से किसी को भी सफलता नहीं हुई वहां अब भी धन और सम्पत्ति वालों के ही हाथों में अधिकार है। प्रजा अपने प्रतिनिधि कितनी ही सावधानी से क्यों न चुने, पर अंत में सत्ता गिने-गिनाए आदमियों के ही हाथों में चली जाती है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही ऐसी दूषित है कि जनता का अधिकांश मुट्ठी भर आदमियों के वंशवर्ती हो गया है। जनता इतनी निर्बल, इतनी अशक्त है कि इन शक्तिशाली पुरूषों के सामने सिर नहीं उठा सकती। यह व्यवस्था अपवादमय, विनष्टकारी और अत्याचारपूर्ण है। आदर्श व्यवस्था यह है कि सबके अधिकार बराबर हों, कोई जमींदार बनकर, कोई महाजन बनकर जनता पर रोब न जमा सके यह ऊँच-नीच का घृणित भेद उठ जाए। इस सबल?निबल संग्राम में जनता की दशा बिगड़ती चली जाती है। इसका सबसे भयंकर परिणाम यह है कि जनता आत्मसम्मान-विहीन होती जाती है, उसमें प्रलोभनों का प्रतिकार करने, अन्याय का सिर कुचलने की सामर्थ्य नहीं रही। छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए बहुधा भयवश कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे हैं। (मन में) कितनी यथार्थ बात लिखी है। आज ऐसा कोई असामी नहीं है जिसके घर में मैं अपने दुष्टाचरण का तीर न चला सकूं। मैं कानून के बल से, भय के बल से, प्रलोभन के बल से अपना अभीष्ट पूरा कर सकता हूँ। अपनी शक्ति का ज्ञान हमारे दुस्साहस को, कुभावों को और भी उत्तेजित कर देता है। खैर ! हलधर को जेल गए हुए आज दसवां दिन है, मैं गांव की तरफ नहीं गया। न जाने राजेश्वरी पर क्या गुजर रही है। कौन मुंह लेकर जाऊँ ? अगर कहीं गांव वालों को यह चाल मालूम हो गई होगी तो मैं वहां मुंह भी न दिखा सयंगी। राजेश्वरी को अपनी दशा चाहे कितनी कष्टप्रद जान पड़ती हो, पर उसे हलधर से प्रेम है। हलधर का द्रोही बनकर मैं उसके प्रेम-रस को नहीं पा सकता। क्यों न कल चला जाऊँ, इस उधेड़-बुन में कब तक पड़ा रहूँगी। अगर गांव वालों पर यह रहस्य खुल गया होगा तो मैं विस्मय दिखाकर कह सकता हूँ कि मुझे खबर नहीं है, आज ही पता लगाता हूँ। सब तरह उनकी दिलजोई करनी होगी और हलधर को मुक्त कराना पड़ेगा। सारी बाजी इसी दांव पर निर्भर है। मेरी भी क्या हालत है, पढ़ता हूँ डेमोक्रेसी औरअपने को धोखा देना व्यर्थ है।
यह प्रेम नहीं है, केवल काम-लिप्सा है। प्रेम दुर्लभ वस्तु है, यह उस अधिकार का जो मुझे असामियों पर है, दुरूपयोग मात्र है।
दरबान आता है।
सबल : क्या है ? मैंने कह दिया है इस वक्त मुझे दिक मत किया करो। क्या मुखतार आए हैं ? उन्हें और कोई वक्त ही नहीं मिलता ?
दरबान : जी नहीं, मुखतार नहीं आए हैं। एक औरत है।
सबल : औरत है ? कोई भिखारिन है क्या ? घर में से कुछ लाकर देदो। तुम्हें जरा भी तमीज नहीं है, जरा-सी बात के लिए मुझे दिक किया।
दरबान : हुजूर, भिखारिन नहीं है। अभी फाटक पर एक्के पर से उतरी है। खूब गहने पहने हुई है। कहती है, मुझे राजा साहब से कुछ कहना है।
सबल : (चौंककर) कोई देहातिन होगी। कहां है ?
दरबान : वहीं मौलसरी के नीचे बैठी है।
सबल : समझ गया, ब्राह्मणी है, अपने पति के लिए दवा मांगने आई है। (मन में) वही होगी। दिल कैसा धड़कने लगा। दोपहर का समय है। नौकर-चाकर सब सो रहे होंगे।दरबान को बरफ लाने के लिए बाजार भेज दूं। उसे बगीचे वाले बंगले में ठहराऊँ। (प्रकट) उसे भेज दो और तुम जाकर बाजार से बरफ लेते आओ।
दरबान चला जाता है। राजेश्वरी आती हैं। सबलसिंह तुरंत उठकर उसे बगीचे वाले बंगले में ले जाते हैं।
राजेश्वरी : आप तो टट्टी लगाए आराम कर रहे हैं और मैं जलती हुई धूप में मारी-मारी फिर रही हूँ। गांव की ओर जाना ही छोड़ दिया । सारा शहर भटक चुकी तो मकान का पता मिला।
सबल : क्या कहूँ, मेरी हिमाकत से तुम्हें इतनी तकलीफ हुई, बहुत लज्जित हूँ। कई दिन से आने का इरादा करता था। पर किसी-न-किसी कारण से रूक जाना पड़ता था। बरफ आती होगी, एक गिलास शर्बत पी लो तो यह गरमी दूर हो जाए।
राजेश्वरी : आपकी कृपा है, मैंने बरफ कभी नहीं पी है। आप जानते हैं, मैं यहां क्या करने आई हूँ ?
सबल : दर्शन देने के लिए।
राजेश्वरी : जी नहीं, मैं ऐसी नि: स्वार्थ नहीं हूँ। आई हूँ आपके घर में रहने¼ आपका प्रेम खींच लाया है। जिस रस्सी में बंधी हुई थी वह टूट गई। उनका आज दस-ग्यारह दिन से कुछ पता नहीं है। मालूम होता है कहीं देस-विदेस भाग गए। फिर मैं किसकी होकर रहती। सब छोड़-छाड़कर आपकी सरन आई हूँ, और सदा के लिए। उस ऊजड़ गांव से जी भर गया।
सबल : तुम्हारा घर है, आनंद से रहो, धन्य भाग कि मुझे आज यह अवसर मिला। मैं इतना भाग्यवान हूँ, मुझे इसका विश्वास ही न था।मेरी तो यह हालत हो रही है:
हमारे घर में वह आएं, खुदा की कुदरत है।
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।
ऐसा बौखला गया हूँ कि कुछ समझ में ही नहीं आता, तुम्हारी कैसे खिदमत करूं।
राजेश्वरी : मुझे इसी बंगले में रहना होगा?
सबल : ऐसा होता तो क्या पूछना था।, पर यहां बखेड़ा है, बदनामी होगी। मैं आज ही शहर में एक अच्छा मकान ठीक कर लूंगा। सब इंतजाम वहीं हो जाएगी।
राजेश्वरी : (प्रेम कटाक्ष से देखकर) प्रेम करते हो और बदनामी से डरते हो, यह कच्चा प्रेम है।
सबल : (झेंपकर) अभी नया रंगरूट हूँ न ?
राजेश्वरी : (सजल नेत्रों से) मैंने अपना सर्वस आपको दे दिया । अब मेरी लाज आपके हाथ है।
सबल : (उसके दोनों हाथ पकड़कर तस्कीन देते हुए) राजेश्वरी, मैं तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूंगा। मुझे भी आज से अपना सेवक, अपना चाकर, जो चाहे समझो।
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) आदमी अपने सेवक की सरन नहीं जाता, अपने स्वामी की सरन आता है। मालूम नहीं आप मेरे मन के भावों को जानते हैं या नहीं, पर ईश्वर ने आपको इतनी विद्या और बुद्वि दी है, आपसे कैसे छिपा रह सकता है। मैं आपके प्रेम, केवल आपके प्रेम के वश होकर आई हूँ। पहली बार जब आपकी निगाह मुझ पर पड़ी तो उसने मुझ पर मंत्र-सा फूंक दिया । मुझे उसमें प्रेम की झलक दिखाई दीब तभी से मैं आपकी हो गई। मुझे भोगविलास की इच्छा नहीं, मैं केवल आपको चाहती हूँ। आप मुझे झोंपड़ी में रखिए, मुझे गजी-गाढ़ा पहनाइए, मुझे उनमें भी सरग का आनंद मिलेगी। बस आपकी प्रेम-दिरिष्ट मुझ पर बनी रहै।
सबल : (गर्व के साथ) मैं जिंदगी-भर तुम्हारा रहूँगा और केवल तुम्हारा। मैंने उच्च कुल में जन्म पाया। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। मेरा पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से हुआ, जैसा रईसों के लड़कों का होता है। घर में बीसियों युवती महरियां, महराजिनें थीं।उधर नौकर-चाकर भी मेरी कुवृत्तियों को भड़काते रहते थे।मेरे चरित्र-पतन के सभी सामान जमा थे।रईसों के अधिकांश युवक इसी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। पर ईश्वर की मुझ पर कुछ ऐसी दया थी कि लकड़पन ही से मेरी प्रवृत्ति विद्याभ्यास की ओर थी और उसने युवावस्था में भी साथ न छोड़ाब मैं समझने लगा था।, प्रेम कोई वस्तु ही नहीं, केवल कवियों की कल्पना है। मैंने एक-से-एक यौवनवती सुंदरियां देखी हैं, पर कभी मेरा चित्त विचलित नहीं हुआ। तुम्हें देखकर पहली बार मेरी ह्रदयवीणा के तारों में चोट लगी। मैं इसे ईश्वर की इच्छा के सिवाय और क्या कहूँ। तुमने पहली ही निगाह में मुझे प्रेम का प्याला पिला दिया, तब से आज तक उसी नशे में मस्त था। बहुत उपाय किए, कितनी ही खटाइयां खाई पर यह नशा न उतरा। मैं अपने मन के इस रहस्य को अब तक नहीं समझ सका। राजेश्वरी, सच कहता हूँ, मैं तुम्हारी ओर से निराश था।समझता था, अब यह जिंदगी रोते ही कटेगी, पर भाग्य को धन्य है कि आज घर बैठे देवी के दर्शन हो गए और जिस वरदान की आशा थी, वह भी मिल गया।
राजेश्वरी : मैं एक बात कहना चाहती हूँ, पर संकोच के मारे नहीं कह सकती।
सबल : कहो-कहो मुझसे क्या संकोच ! मैं कोई दूसरा थोड़े ही हूँ।
राजेश्वरी : न कहूँगी, लाज आती है।
सबल : तुमने मुझे चिंता में डाल दिया, बिना सुने मुझे चैन न आएगी।
राजेश्वरी : कोई ऐसी बात नहीं है, सुनकर क्या कीजिएगा!
सबल : (राजेश्वरी के दोनों हाथ पकड़कर) बिना कहे न जाने दूंगा, कहना पड़ेगा।
राजेश्वरी : (असमंजस में पड़कर) मैं सोचती हूँ, कहीं आप यह समझें कि जब यह अपने पति की होकर न रही तो मेरी होकर क्या रहेगी। ऐसी चंचल औरत का क्या ठिकाना?
सबल : बस करो राजेश्वरी, अब और कुछ मत कहो, तुमने मुझे इतना नीच समझ लिया। अगर मैं तुम्हें अपना ह्रदय खोलकर दिखा सकता तो तुम्हें मालूम होता कि मैं तुम्हें क्या समझता हूँ। वह घर, उस घर के प्राणी, वह समाज, तुम्हारे योग्य न थे। गुलाब की शोभा बाग में है, घूरे पर नहीं। तुम्हारा वहां रहना उतना अस्वाभाविक था। जितना सुअर के माथे पर सेंदुर का टीका होता है या झोंपड़ी में झाड़। वह जलवायु तुम्हारे सर्वथा। प्रतिकूल थी। हंस मरूभूमि में नहीं रहता। इसी तरह अगर मैं सोचूं, कहीं तुम यह न समझो कि जब यह अपनी विवाहिता स्त्री का न हुआ तो मेरा क्या होगा, तो ?
राजेश्वरी : (गंभीरता से) मुझमें और आप में बड़ा अंतर है।
सबल : यह बातें फिर होंगी, इस वक्त आराम करो, थक गई होगी। पंखा खोले देता हूँ। सामने वाली कोठरी में पानी-वानी सब रखा हुआ है। मैं अभी आता हूँ। 

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रचनाएँ
संग्राम (नाटक)
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। अमरकथा शिल्पी मुंशी प्रेमचंद ने इस नाटक में किसानों के संघर्ष का बहुत ही सजीव चित्रण किया है। इस नाटक में लेखक ने पाठकों का ध्यान किसान की उन कुरीतियों और फिजूल-खर्चियों की ओर भी दिलाने की कोशिश की है जिसके कारण वह सदा ही कर्जे के बोझ से दबा रहता है। और जमींदार और साहूकार से लिए गए कर्जे का सूद चुकाने के लिए उसे अपनी फसल मजबूर होकर औने-पौने बेचनी पड़ती है।... मुंशी प्रेमचन्द द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट!
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पहला दृश्य

11 फरवरी 2022
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प्रभात का समय। सूर्य की सुनहरी किरणें खेतों और वृक्षों पर पड़ रही हैं। वृक्षपुंजों में पक्षियों का कलरव हो रहा है। बसंत ऋतु है। नई-नई कोपलें निकल रही हैं। खेतों में हरियाली छाई हुई है। कहीं-कहीं सरसों

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दूसरा दृश्य

11 फरवरी 2022
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सबलसिंह अपने सजे हुए दीवानखाने में उदास बैठे हैं। हाथ में एक समाचार-पत्र है, पर उनकी आंखें दरवाजे के सामने बाग की तरफ लगी हुई हैं। सबलसिंह : (आप-ही-आप) देहात में पंचायतों का होना जरूरी है। सरकारी अदा

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तीसरा दृश्य

11 फरवरी 2022
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समय: आठ बजे दिन। स्थान: सबलसिंह का मकान। कंचनसिंह अपनी सजी हुई बैठक में दुशाला ओढ़े, आंखों पर सुनहरी ऐनक चढ़ाए मसनद लगाए बैठे हैं, मुनीमजी बही में कुछ लिख रहे हैं। कंचन : समस्या यह है कि सूद की दर क

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चौथा दृश्य

11 फरवरी 2022
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स्थान : मधुबन। सबलसिंह का चौपाल। समय : आठ बजे रात। फाल्गुन का आरंभ। चपरासी : हुजूर, गांव में सबसे कह आया है। लोग जादू के तमाशे की खबर सुनकर उत्सुक हो रहे हैं। सबल : स्त्रियों को भी बुलावा दे दिया ह

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पाँचवाँ दृश्य

11 फरवरी 2022
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प्रात: काल का समय। राजेश्वरी अपनी गाय को रेवड़ में ले जा रही है। सबलसिंह से मुठभेड़। सबल : आज तीन दिन से मेरे चंद्रमा बहुत बलवान हैं। रोज एक बार तुम्हारे दर्शन हो जाते हैं। मगर आज मैं केवल देवी के दर

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छठा दृश्य दृश्य

11 फरवरी 2022
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स्थान : मधुबन गांव। समय : गागुन का अंत, तीसरा पहर, गांव के लोग बैठे बातें कर रहे हैं। एक किसान : बेगार तो सब बंद हो गई थी। अब यह दहलाई की बेगार क्यों मांगी जाती है ? फत्तू : जमींदार की मर्जी। उसी न

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सातवाँ दृश्य

11 फरवरी 2022
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समय: संध्या। स्थान: मधुबन। ओले पड़ गए हैं। गांव के स्त्री-पुरूष खेतों में जमा हैं। फत्तू: अल्लाह ने परसी?-परसायी थाली छीन ली। हलधर: बना-बनाया खेल बिगड़ गया। फत्तू : छावत लागत छह बरस और छिन में होत

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संग्राम (नाटक) अंक-2

11 फरवरी 2022
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पहला दृश्य स्थान : चेतनदास की कुटी, गंगातट। समय : संध्या। सबल : महाराज, मनोवृत्तियों के दमन करने का सबसे सरल उपाय क्या है ? चेतनदास : उपाय बहुत हैं, किंतु मैं मनोवृत्तियों के दमन करने का उपदेश नही

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दूसरा दृश्य

11 फरवरी 2022
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समय : संध्या। स्थान : सबलसिंह की बैठक। सबल : (आप-ही-आप) मैं चेतनदास को धूर्त समझता था।, पर यह तो ज्ञानी महात्मा निकले। कितना तेज और शौर्य है ! ज्ञानी उनके दर्शनों को लालायित है। क्या हर्ज है ! ऐसे आ

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तीसरा दृश्य दृश्य

11 फरवरी 2022
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स्थान : मधुबन गांव। समय : बैशाख, प्रात: काल। फत्तू : पांचों आदमियों पर डिगरी हो गई। अब ठाकुर साहब जब चाहें उनके बैल-बधिये नीलाम करा लें। एक किसान : ऐसे निर्दयी तो नहीं हैं। इसका मतलब कुछ और ही है।

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चौथा दृश्य

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स्थान : हलधर का घर, राजेश्वरी और सलोनी आंगन में लेटी हुई हैं। समय : आधी रात। राजेश्वरी : (मन में) आज उन्हें गए दस दिन हो गए। मंगल-मंगल आठ, बुध नौ, वृहस्पत दस। कुछ खबर नहीं मिली, न कोई चिट्ठी न पत्तर

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पाँचवाँ दृश्य

11 फरवरी 2022
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स्थान : सबलसिंह का दीवानखाना, खस की टक्रियां लगी हुई, पंखा चल रहा है। सबल शीतलपाटी पर लेटे हुए डेमोक्रेसी नामक ग्रंथ पढ़ रहे हैं, द्वार पर एक दरबान बैठा झपकियां ले रहा है। समय : दोपहर, मध्यान्ह की प्

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छठा दृश्य

11 फरवरी 2022
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सबलसिंह का भवन। गुलाबी और ज्ञानी फर्श पर बैठी हुई हैं। बाबा चेतनदास गालीचे पर मसनद लगाए लेटे हुए हैं। रात के आठ बजे हैं। गुलाबी : आज महात्माजी ने बहुत दिनों के बाद दर्शन दिए । ज्ञानी : मैंने समझा था

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सातवाँ दृश्य

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समय : प्रात: काल, ज्येष्ठ। स्थान : गंगा का तट। राजेश्वरी एक सजे हुए कमरे में मसनद लगाए बैठी है। दो-तीन लौंडियां इधर-उधर दौड़कर काम कर रही हैं। सबलसिंह का प्रवेश। सबल : अगर मुझे उषा का चित्र खींचना ह

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आठवाँ दृश्य

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समय : संध्या, जेठ का महीना। स्थान : मधुबन। कई आदमी फत्तू के द्वार पर खड़े हैं। मंगई : फत्तू, तुमने बहुत चक्कर लगाया, सारा संसार छान डाला। सलोनी : बेटा, तुम न होते तो हलधर का पता लगना मुसकिल था। हर

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नवाँ दृश्य

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स्थान : मधुवन, हलधर का मकान, गांव के लोग जमा हैं। समय : ज्येष्ठ की संध्या। हलधर : (बाल बढ़े हुए, दुर्बल, मलिन मुख) फत्तू काका, तुमने मुझे नाहक छुड़ाया, वहीं क्यों न घुलने दिया । अगर मुझे मालूम होता

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दसवाँ दृश्य

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स्थान : गुलाबी का घर। समय : प्रात: काल। गुलाबी : जो काम करन बैठती है उसी की हो रहती है। मैंने घर में झाडू लगाई, पूजा के बासन धोए, तोते को चारा खिलाया, गाय खोली, उसका गोबर उठाया, और यह महारानी अभी पा

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संग्राम (नाटक) अंक-3

11 फरवरी 2022
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पहला दृश्य स्थान : कंचनसिंह का कमरा। समय : दोपहर, खस की टट्टी लगी हुई है, कंचनसिंह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैं, पंखा चल रहा है। कंचन : (आप-ही-आप) भाई साहब में तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेश-म

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दूसरा दृश्य

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स्थान : राजेश्वरी का सजा हुआ कमरा। समय : दोपहर। लौंडी : बाईजी, कोई नीचे पुकार रहा है। राजेश्वरी : (नींद से चौंककर) क्या कहा - ', आग जली है ? लौंडी : नौज, कोई आदमी नीचे पुकार रहा है। राजेश्वरी : प

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तीसरा दृश्य दृश्य

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स्थान : सबलसिंह का घर। सबलसिंह बगीचे में हौज के किनारे मसहरी के अंदर लेटे हुए हैं। समय : ग्यारह बजे रात। सबल : (आप-ही-आप) आज मुझे उसके बर्ताव में कुछ रूखाई-सी मालूम होती थी। मेरा बहम नहीं है, मैंने

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पाँचवाँ दृश्य

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स्थान : मधुबन। समय : नौ बजे रात, बादल घिरा हुआ है, एक वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछाले पर बैठे हुए हैं। फत्तू, मंगई, हरदास आदि धूनी से जरा हट कर बैठे हैं। चेतनदास : संसार कपटमय है। किसी प्राणी का

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छठा दृश्य

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स्थान : शहर वाला किराये का मकान। समय : आधी रात। कंचनसिंह और राजेश्वरी बातें कर रहे हैं। राजेश्वरी : देवरजी, मैंने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया । पर जिस प्रेम की आशा थी वह नहीं मयस्सर हुआ। मैंन

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सातवाँ दृश्य

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स्थान : दीवानखाना। समय : तीन बजे रात। घटा छायी हुई है। सबलसिंह तलवार हाथ में लिये द्वार पर खड़े हैं। सबल : (मन में) अब सो गया होगा। मगर नहीं, आज उसकी आंखों में नींद कहां ! पड़ा-पड़ा प्रेमाग्नि में ज

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आठवाँ दृश्य

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स्थान : नदी का किनारा। समय : चार बजे भोर, कंचन पूजा की सामग्री लिए आता है और एक तख्त पर बैठ जाता है, फिटन घाट के उसपर ही रूक जाती है। कंचन : (मन में) यह जीवन का अंत है ! यह बड़े-बड़े इरादों और मनसूब

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नवाँ दृश्य

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स्थान : गुलाबी का मकान। समय : संध्या, चिराग जल चुके हैं, गुलाबी संदूक से रूपये निकाल रही है। गुलाबी : भाग जाग जाएंगे। स्वामीजी के प्रताप से यह सब रूपये दूने हो जाएंगे। पूरे तीन सौ रूपये हैं। लौटूंगी

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संग्राम (नाटक) अंक-4

11 फरवरी 2022
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पहला दृश्य स्थान: मधुबन। थानेदार, इंस्पेक्टर और कई सिपाहियों का प्रवेश। इंस्पेक्टर : एक हजार की रकम एक चीज होती है। थानेदार : बेशक ! इंस्पेक्टर : और करना कुछ नहीं दो-चार शहादतें बनाकर खाना तलाशी क

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दूसरा दृश्य

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स्थान: सबलसिंह का कमरा। समय: दस बजे दिन। सबल : (घड़ी की तरफ देखकर) दस बज गए। हलधर ने अपना काम पूरा कर लिया। वह नौ बजे तक गंगा से लौट आते थे।कभी इतनी देर न होती थी। अब राजेश्वरी फिर मेरी हुई चाहे ओढू

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तीसरा दृश्य दृश्य

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स्थान: स्वामी चेतनदास की कुटी। समय: संध्या। चेतनदास : (मन में) यह चाल मुझे खूब सूझी। पुलिस वाले अधिक-से-अधिक कोई अभियोग चलाते। सबलसिंह ऐसे कांटों से डरने वाला मनुष्य नहीं है। पहले मैंने समझा था। उस

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चौथा दृश्य

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स्थान: राजेश्वरी का मकान। समय: दस बजे रात। राजेश्वरी : (मन में) मेरे ही लिए जीवन का निर्वाह करना क्यों इतना कठिन हो रहा है ? संसार में इतने आदमी पड़े हुए हैं। सब अपने-अपने धंधों में लगे हुए हैं। मैं

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पाँचवाँ दृश्य

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स्थान: गंगा के करार पर एक बड़ा पुराना मकान। समय: बारह बजे रात, हलधर और उसके साथी डाकू बैठे हुए हैं। हलधर : अब समय आ गया, मुझे चलना चाहिए । एक डाकू रंगी : हम लोग भी तैयार हो जाएं न ? शिकारी आदमी है,

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सातवाँ दृश्य

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स्थान: सबलसिंह का मकान। समय: ढाई बजे रात। सबलसिंह अपने बाग में हौज के किनारे बैठे हुए हैं। सबल : (मन में) इस जिंदगी पर धिक्कार है। चारों तरफ अंधेरा है, कहीं प्रकाश की झलक तक नहीं सारे मनसूबे, सारे इ

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संग्राम (नाटक) अंक-5

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पहला दृश्य स्थान : डाकुओं का मकान। समय : ढाई बजे रात। हलधर डाकुओं के मकान के सामने बैठा हुआ है। हलधर : (मन में) दोनों भाई कैसे टूटकर गले मिले हैं। मैं न जानता था। कि बड़े आदमियों में भाई-भाई में भी

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दूसरा दृश्य

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स्थान : शहर की एक गली। समय : तीन बजे रात, इंस्पेक्टर और थानेदार की चेतनदास से मुठभेड़। इंस्पेक्टर : महाराज, खूब मिले। मैं तो आपके ही दौलतखाने की तरफ जा रहा था।लाइए दूध के धुले हुए पूरे एक हजार, कमी

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तीसरा दृश्य दृश्य

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स्थान : राजेश्वरी का कमरा। समय : तीन बजे रात। फानूस जल रही है, राजेश्वरी पानदान खोले फर्श पर बैठी है। राजेश्वरी : (मन में) मेरे मन की सारी अभिलाषाएं पूरी हो गयीं। जो प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा

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चौथा दृश्य

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स्थान : गुलाबी का मकान। समय : दस बजे रातब गुलाबी : अब किसके बल पर कूदूं। पास जो जमापूंजी थी वह निकल गई। तीन-चार दिन के अन्दर क्या-से-क्या हो गया। बना-बनाया घर उजड़ गया। जो राजा थे वह रंक हो गए। जि

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पाँचवाँ दृश्य

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स्थान : स्वामी चेतनदास की कुटी समय : रात, चेतनदास गंगा तट पर बैठे हैं। चेतनदास : (आप-ही-आप) मैं हत्यारा हूँ, पापी हूँ, धूर्त हूँ। मैंने सरल प्राणियों को ठगने के लिए यह भेष बनाया है। मैंने इसीलिए योग

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छठा दृश्य

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स्थान : मधुबन। समय : सावन का महीना, पूजा-उत्सव, ब्रह्मभोज, राजेश्वरी और सलोनी गांव की अन्य स्त्रियों के साथ गहने-कपड़े पहने पूजा करने जा रही हैं गीत जय जगदीश्वरी मात सरस्वती, सरनागत प्रतिपालनहारी।

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