पहला दृश्य
स्थान : डाकुओं का मकान।
समय : ढाई बजे रात। हलधर डाकुओं के मकान के सामने बैठा हुआ है।
हलधर : (मन में) दोनों भाई कैसे टूटकर गले मिले हैं। मैं न जानता था। कि बड़े आदमियों में भाई-भाई में भी इतना प्रेम होता है। दोनों के आंसू ही न थमते थे।बड़ी कुशल हुई कि मैं मौके से पहुंच गया, नहीं तो वंश का अंत हो जाता। मुझे तो दोनों भाइयों से ऐसा प्रेम हो गया है मानो मेरे अपने भाई हैं। मगर आज तो मैंने उन्हें बचा लिया। कौन कह सकता है वह फिर एक-दूसरे के दुश्मन न हो जायेंगी। रोग की जड़ तो मन में जमी हुई है। उसको काटे बिना रोगी की जान कैसे बचेगी। राजेश्वरी के रहते हुए इनके मन की मैल न मिटेगी। दो-चार दिन में इनमें फिर अनबन हो जाएगी। इस अभागिनी ने मेरे कुल में आग लगायी, अब इस कुल का सत्यानाश कर रही है। उसे मौत भी नहीं आ जाती। जब तक जियेगी मुझे कलंकित करती रहेगी।
बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। सब लोग मुझे बिरादरी से निकाल देंगे। हुक्का-पानी बंद कर देंगे।हेठी और बदनामी होगी वह घाते में । यह तो यहां महल में रानी बनी बैठी अपने कुकर्म का आनंद उठाया करे और मैं इसके कारण बदनामी उठाऊँ। अब तक उसको मारने का जी न चाहता था।औरतों पर हाथ उठाना नीचता का काम समझता था।पर अब वह नीचता करनी पड़ेगी। उसके किए बिना सब खेल बिगड़ जाएगी।
चेतनदास का प्रवेश।
चेतनदास : यहां कौन बैठा है ?
हलधर : मैं हूँ हलधर।
चेतनदास : खूब मिले। बताओ सबलसिंह का क्या हाल हुआ ? वध कर डाला ?
हलधर : नहीं, उन्हें मरने से बचा लिया
चेतनदास : (खुश होकर) बहुत अच्छा किया। मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई सबलसिंह कहां हैं ?
हलधर : मेरे घर
चेतनदास : ज्ञानी जानती है कि वह जिंदा है ?
हलधर : नहीं, उसे अब तक इसकी खबर नहीं मिली।
चेतनदास : तो उसे जल्द खबर दो नहीं तो उससे भेंट न होगी। वह घर में नहीं है। न जाने कहां गयी ? उसे यह खबर मिल जाएगी तो कदाचित् उसकी जान बच जाए। मैं उसकी टोह में जा रहा हूँ। इस अंधेरी रात में कहां खोजूं ? (प्रस्थान)
हलधर : (मन में) यह डाकन न जाने कितनी जानें लेकर संतुष्ट होगी। ज्ञानीदेवी है। उसने सबलसिंह को कमरे में न देखा होगी। समझी होगी वह गंगा में डूब मरे। कौन जाने इसी इरादे से वह भी घर से निकल खड़ी हुई हो, चलकर अपने आदमियों को उसका पता लगाने के लिए दौड़ा दूं। उसकी जान मुर्ति में चली जाएगी। क्या दिल्लगी है कि रानी तो मारी-मारी फिरे और कुलटा महल में सुख की नींद सोये।
अचल दूसरी ओर से हवाई बंदूक लिये आता है।
हलधर : कौन ?
अचल : अचलसिंह, कुंअर सबलसिंह का पुत्र।
हलधर : अच्छा, तुम खूब आ गये पर अंधेरी रात में तुम्हें डर नहीं
लगा?
अचल : डर किस बात का ? मुझे डर नहीं लगता। बाबूजी ने मुझे बताया है कि डरना पाप है`
हलधर : जाते कहां हो ?
अचल : कहीं नहीं।
हलधर : तो इतनी रात गए घर से क्यों निकले ?
अचल : तुम कौन हो ?
हलधर : मेरा नाम हलधर है।
अचल : अच्छा, तुम्हीं ने माताजी की जान बचायी थी ?
हलधर : जान तो भगवान् ने बचायी, मैंने तो केवल डाकुओं को भगा दिया था। तुम इतनी रात गए अकेले कहां जा रहे हो ?
अचल : किसी से कहोगे तो नहीं ?
हलधर : नहीं, किसी से न कहूँगा
अचल : तुम बहादुर आदमी हो, मुझे तुम्हारे उसपर विश्वास है। तुमसे कहने में शर्म नहीं है। यहां कोई वेश्या है। उसने चाचा जी को और बाबूजी को विष देकर मार डाला है। अम्मांजी ने शोक से प्राण त्याग दिए । वह स्त्री थीं, क्या कर सकती थीं । अब मैं उसी वेश्या के घर जा रहा हूँ। इसी वक्त बंदूक से उसका सिर उड़ा दूंगा। (बंदूक तानकर दिखाता है।)
हलधर : तुमसे किसने कहा?
अचल : मिसराइन ने, चाचाजी कल से घर पर नहीं हैं। बाबूजी भी दस बजे रात से नहीं हैं। न घर में अम्मां का पता है। मिसराइन सब हाल जानती हैं।
हलधर : तुमने वेश्या का घर देखा है ?
अचल : नहीं, घर तो नहीं देखा है।
हलधर : तो उसे मारोगे उसे ?
अचल : किसी से पूछ लूंगा ।
हलधर : तुम्हारे चाचाजी और बाबूजी तो मेरे घर में हैं।
अचल : झूठ कहते हो, दिखा दोगे ?
हलधर : कुछ इनाम दो तो दिखा दूं।
अचल : चलो, क्या दिखाओगे ! वह लोग अब स्वर्ग में होंगे।हां, राजेश्वरी का घर दिखा दो तो जो कहो वह दूं।
हलधर : अच्छा मेरे साथ आओ, मगर बंदूक ले लूंगा।
दोनों घर में जाते हैं, सबल और कंचन चकित होकर अचल को देखते हैं, अचल दौड़कर बाप की गरदन से चिमट जाता है।
हलधर : (मन में) अब यहां नहीं रह सकता। फिर तीनों रोने लगे ? बाहर चलूं। कैसा होनहार बालक है। (बाहर आकर मन में) यह बच्चा तक उसे वेश्या कहता है। वेश्या है ही। सारी दुनिया यही कहती होगी। अब तो और भी गुल खिलेगी। अगर दोनों भाइयों ने उसे त्याग दिया तो पेट के लिए उसे अपनी लाज बेचनी पड़ेगी। ऐसी हयादार नहीं है कि जहर खाकर मर जाए। जिसे मैं देवी समझता था। वह ऐसी कुल-कलंकिनी निकली ! तूने मेरे साथ ऐसा छल किया ! अब दुनिया को कौन मुंह दिखाऊँ। सब की एक ही दवा है । न बांस रहे न बांसुरी बजेब तेरे जीने से सबकी हानि है। किसी का लाभ नहीं तेरे मरने से सबका लाभ है, किसी की हानि नहीं उससे कुछ पूछना व्यर्थ है । रोएगी, गिड़गिड़ाएगी, पैरों पड़ेगी। जिसने लाज बेच दी
वह अपनी जान बचाने के लिए सभी तरह की चालें चल सकती है। कहेगी, मुझे सबलसिंह जबरदस्ती निकाल लाए, मैं तो आती न थी। न जाने क्या-क्या बहाने करेगी ! उससे सवाल-जवाब करने की जरूरत नहीं चलते ही काम तमाम कर दूंगा
हथियार संभालकर चल खड़ा होता है।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D