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दैनिक प्रतियोगिता

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चंद ख्वाहिशें दिल में सजा लीं, सजा हो गई। टूट कर बिखर गए, ख्वाहिशें कजा हो गईं।    लम्हा लम्हा संजोया, बनाया सपनों का घरौंदा।    ढ़ह गई दीवारें, छत भी जुदा हो गई। बिखरी ख्वाह

राधे , कारचालक होना कोई गुनाह है क्या !!! तुम ये सोच निकाल दो ,तुम तो ऐसे सोचते हो जैसे कार चालक इंसान न होकर कीडे़ -मकौडे़ हों !!!प्रकुल ने बताया ना कि उसके घर वाले खुली सोच के हैं तो फिर तुम चिंता क

रात्रि को पराजित कर अपनी विजय पर प्रसन्न होती हुई भोर ,आसमान के अपने दरबार में आकर मुस्कुरा रही थी। खग कोलाहल करते हुए जैसे कह रहे थे -भोर साम्राज्ञी की जय हो ।  पवन ,भोर की विजय पताका के रूप में

सुकून तुमसे दूर कहां तुम बिन जीवन नूर कहांकरार दिल को तेरे पास हैतुमसे जुड़े मेरे अहसास हैमेरे वजूद को तू महकाएंमहक तेरे इश्क सी तोफूलों में भी ना पाएबिन तेरे अधूरी ख्वाहिशेंअधूरे ख्वाब अधूरी है

तुम्हे कुछ बताना हैमेरा नहीं मेरे दिल का ये फसाना हैमाना दिल को तुमने तोड़ दियाख्वाब हसीन दिखा कर तन्हा मुझे छोड़ दियाअपना मुझे बनाया मुझे समझा जाना फिरमुंह मुझसे मोड़ लियाअगर तुम्हे जरा भी होगा एहसास

ऐसे बरसे सावनजैसे मिलने तू आयाहर बूंद मे सनम स्पर्शतेरा पायारिमझिम सावन की मीठी सी सौगातसावन की फुहार मे अक्स तेरामुझे नजर आयाझिरमिर घटाओं मे बस कर तू आयाहर बूंद मे एहसास तेरा पायादूर रहकर भीसावन

नैनों से ऐसे बरसे सावनजैसे बिन मौसम होती बरसातना पूछो क्या गुजरी हम परमिली बेवफाई की जब सौगातताउम्र मुहब्बत का वादा करने वालेनिभा ना सके दो घड़ी जीवन में साथराहें गलत थी इश्क की या हमराही में ना

पुरुष चले जब प्रेम की राहतलाश करे सिर्फ प्रेमरहती सिर्फ प्रेम की चाहमगर...स्त्री प्रेम डगर परजब चलती हैहर मोड़ पर कुछ कमीउसे खलती हैकिसी न किसी बहाने सेखोजती है साथी मेंकभी पिता सा सायाकभी भाई सा साथक

बीते जो पल नदियां किनारेथामकर हाथ एक दूजे काऔर वो तेरी बाहों के सहारेनदियां की मचलती धारछेड़े दिल के मेरे तारअंधियारे में चमकते जैसे झिलमिल सितारेवक्त भी थमकर होता साथ हमारेबहते पानी संग बहता सा बातों

आजकल गर्मी ने घर-बाहर सभी जगह लोगों का हाल-बेहाल कर रखा है। वसंत के बाद गर्मी शुरू होते ही मंद-मंद चलने वाली हवाएं साँय-साँय कर लू का रूप धारण कर तन को झुलसाने बैठ जाती है। गर्मी में मनुष्य तो छोडो, ध

       सृष्टि को देने मूर्त रुप ईश्वर नेकिया अपनी प्रतिमूर्ति का निर्माण,ममतामयी एक मूरत का कर सृजनकिया इस सृष्टि का उत्थान।मां सरस्वती के आशीष से सिंचितज्ञान की जिसे दी निर्मल धार

मैं वर्ष २००९ से ब्लॉगिंग करती आ रही हूँ। प्रारंभ में हिंदी लिखने में बड़ी कठिनाई आती थी।  लेकिन धीरे-धीरे इसके जानकारों से ब्लॉग पर चर्चा और ईमेल द्वारा पूछ-पूछकर सीखते चले गए। हमने अपना ब्लॉग घर

कपड़े, जूते फुटबॉल, वीडियो गेम, कुछ भी मत लाना। इस बार मेरे बर्थडे पर, पापा जल्दी घर आ जाना। मेरे पिछले बर्थडे पर, आप आए थे इतने लेट। मुझे आपके बिना ही,  काटना पड़ा था केक। पिज़्ज़ा, बर्गर, चॉकल

मैं न्यूज़पेपर, मेरी इतनी सी कहानी। सिमटी पूरी दुनिया मुझमें, चंद घंटों की मेरी जिंदगानी।आकर सुबह सवेरे, घर के दरवाजे पर बैठ जाता हूँ।कोई देख ले एक नजर, टकटकी लगाकर देखता हूँ।कुछ आँखें मुझे, पूरा टटोल

बड़ी अनोखी हमारी पीढ़ी, दो पीढ़ियों की बीच की सीढ़ी। परंपराओं को भी निभाते, आधुनिकता को भी आजमाते। मिट्टी के चूल्हे की रोटी, पिज्जा, बर्गर, आइसक्रीम, फ्रूटी। ठंडा पानी मटके का पीते, बिसलेरी की बोतल

पहले एक इंक पेन लाते थे, और एक इंक पोट। रिफिल का पैकेट लाते थे, और एक डोट। कई दिनों तक, यूज़ करते थे। रिफिल बदलते, लेकिन डोट नहीं बदलते थे। अब यूज एंड थ्रो का, जमाना आ गया है।  नई नई चीजों को, आ

गर्मियों का मौसम, रात का समय। कूलर की हवा में, नींद आए गहरी। कि अचानक चली गई लाइट। एक तो तेज गर्मी, ऊपर से मच्छरों की फाइट। थोड़ी देर तक, करते हैं इंतजार। फिर छत पर जाते, वहाँ बिस्तर लगाते। और जैसे ही

जिंदगी में किताब ही तो होता है।📚सबसे खूबसूरत तोहफा, 📚जिसे हम हमेशा सहेज कर रखते हैं।📚 बार बार पढ़ने के लिए।📚📚📚पुस्तक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें 📚📚

कैसा है ये तेरा ही अपना करिश्मा ,मिलना किसीसे दो दिन का है मेला ,साथ आकर दो पल चल देते है हम ,अपना या पराया खोने का नहीं गम 

हर दफ़ा हर सीढ़ी पर मैं डरता सा चल रहा था ll चलते चलते थक हांफ कर फिर गिर रहा था ll मुश्क़िल था जीना यूं खुद से ही लड़ कर जिन्दगी ll फिर भी ना जाने किस उमिंद में जी रहा था ll एक ही सवाल मेरे जहन मे अब

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