फिर वो ट्रे में चाय लेकर कमरे में जाती है ।वो चाय लेकर अमरेश की ओर जैसे हीं दो -चार कदम बढ़ाई हीं थी ,की अमरेश भी अपनी धीमी कदमो के साथ अदिति की ओर बढ़ने लगा अदिति चाय का ट्रे लिए अमरेश की कदमो की ओर देख रही थी । की एक कदम अदिति चलती तो दूसरा कदम अमरेश चलता ऐसा करते -करते अदिति और अमरेश के बीच सिर्फ दो चार कदम हीं बचे थे की ,अदिति अपनी जगह पड़ हीं रुक गई ।और अमरेश भी उस दूरी पड़ बिराम लगाते हुए वो भी रुक चुका था ।अदिति ये सोंचती है ,की अमरेश आगे बढ़ कर चाय ले लेंगे ?और अमरेश ये सोंचता है ,की अदिति आगे बढ़ कर चाय पकड़ायेगी ?फिर काफी देर बाद भी जब अदिति वही खड़ी रही तो अमरेश अपनी जगह से दो -चाम्र कदम पीछे चलकर अपने सिरहाने से एक चादर निकलता है ,और वो चादर अदिति को कंधे से ओढ़ा देता है ।शायद वो अदिति को उससे बिना बोले ये समझाना चाहता था ।की वो कमरे में उसे गलत नियत से नहीं बुलाया था ।जब अदिति उससे बात नहीं करती थी ।तब अमरेश भी ,उससे बात नहीं करता था ।वो चादर अदिति के कंधो पड़ डाल कर तेज कदमो से कमरे से नीचे जा चुका था ।और फिर वो चला जाता है ।अदिति की आँखों में आँशु भर आये थे उसे ये अब शायद एहसास हो रहा था ,की उसने जाने -अनजाने में हीं सही पड़ उसने अमरेश जी के साथ गलत किया है ।पड़ वो दूसरे हीं पल ये सोंचती है ,की वो अब वो अदिति रही हीं नही ,जो कभी हुया करती थी ।उसने तो उस अदिति को उसी दिन मार दिया था ।जिस दिन उसके बाबा ने उसके आँखों का सपना छिनकर उसके माथे पड़ सिंदूर सजबा दिया था । उस सपने के दम तोड़ते हीं उस सपने के साथ वो अदिति भी दम तोड़ चुकी थी ।अब तो बस वो अदिति जिंदा थी ,जिसे जिंदगी मिली तो ,बस उसे कैसे भी करके सिर्फ अ सिर्फ उसे काट रही थी ।अदिति चाय की ट्रे लिए अपने कमरे में हीं खड़ी थी ,की अमरेश की माँ कमरे में आती है ।और वो आते हीं ठंढी चाय देखकर कहती है ,की अरे देख मैने कहा था ,न की चाय तो एक बहाना है वो ,तो तेरे साथ अकेले में कुछ वक्त बिताना चाहता था ।इतना कहते हुए अमरेश की मां मुस्कुराते हुए कमरे से चली गई ।माँ का दिल तो अमरेश के जाने के बाद रो रहा था ।पड़ वो अपनी होटो पड़ मुस्कुराहट सजा चुकी थी ,ताकि अदिति उदास ना हो जाय अमरेश के बिना ।माँ के जाने के बाद भी अदिति अपने हीं ख्यालो में खोई रही ।उसे ये एहसास हुआ था ,की उसे कोई हक नहीं था ,की वो किसी के सपने को ठेस पहुंचाए ,पड़ जाने -अनजाने हीं सही उसने कही न -कही अमरेश जी के सपनो और अरमानो का गला तो घोटा था न!अपने सपनो की। रुषवाइयों
में उसने एक हमसफ़र के आँखों का सपना भी तो तोड़ दिया था ।क्या होता ?अगर वो सिर्फ हमसफ़र के उस वजुद को निभाती जो एक हमसफ़र को चाहिए होता है ? यही सब बाते सोंच कर एक बार फिर उसकी आँखे भर आई थी ।और वो स्वंम से हीं कह उठती है की शायद अब उसने देर कर दी है । क्योंकि उसका हमसफ़र उसका हमसफ़र बनता उससे पहले